वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 175
From जैनकोष
सुगुप्तेन सुकायेन कायोत्सर्गेण वानिशम्।
संचिनोति शुभं कर्म काययोगेन संयमी।।175।।
कायसंयम से शुभास्रव―भली प्रकार गुप्त रूप किया हुए अर्थात् अपने वशीभूत किए हुए शरीर से तथा निरंतर कायोत्सर्ग से ये संयमी मुनि शुभ कर्मों का संयम करते हैं। इससे पहिले छंद में वचनयोग द्वारा शुभास्रव का वर्णन किया था। अब यहाँ काययोग से पुण्यास्रव होने का वर्णन किया जा रहा है। कायगुप्ति से अथवा कायोत्सर्ग से अथवा शुभकाय की प्रवृत्ति से उत्पन्न जो योग होता है उस स्थिति में जो राग रहता है उसके कारण पुण्यप्रकृति का आस्रव होता है। कायगुप्ति और कायोत्सर्ग में साधारण सा अंतर है। कायगुप्ति का अर्थ है काय से मिथ्यात्व का त्याग करना, काय की ओर लगाव और झुकाव न रहने देना ये दोनों पुण्यास्रव के काययोग के प्रसंग में उत्कृष्ट साधन हैं।
शुभकाययोग से शुभास्रव―तीर्थयात्रा अथवा दूसरों की वैयावृत्ति के उपाय से भी शुभास्रव होता है। मोही जीवों को चूँकि पुण्य के फल में रुचि है और मोही पुरुषों का ही आधिक्य है लोक में, उनकी रुचि के अनुसार पुण्य के आस्रव को भला माना जाता है और किसी हद तक यह बात कुछ ठीक यों मानी जा सकती है कि जैसे दो पुरुष किसी पुरुष की प्रतीक्षा में हों, प्रतीक्षा कहते है बाट जोहने को, आने की प्रतीक्षा कर रहे हों, लेकिन उनमें से एक पुरुष को पेड़ की छाया के नीचे बैठकर प्रतीक्षा कर रहा हो और एक पुरुष कड़ी धूप में खड़ा होकर प्रतीक्षा कर रहा हो तो प्रतीक्षक यद्यपि दोनों हैं, किंतु उनकी वर्तमान स्थिति में अंतर है। छाया में बैठकर किसी की बाट जोहने वाला कम संक्लेश में है और धूप में खड़ा होकर किसी की बाट जोहने वाला बड़े संक्लेश में है। यों ही जिसके पुण्य का उदय है, पुण्यवान् जीव है, पुण्यफल भोगते हुए वह पुरुष तो उस प्रतीक्षक की तरह है जो छाया में बैठा हुआ है और पाप-उदय वाला पापी जीव की कोटि उस प्रतीक्षक जैसी है जो धूप में खड़ा हुआ प्रतीक्षा कर रहा है। ऐसी स्थिति में इस संतप्त पुरुष के पुण्य का आस्रव तो क्या होगा और पाप के ही आस्रव होते हैं जिससे परंपरा आगे की ओर बिगड़ती है।
अंतस्तत्त्व के रुचिया की दु:ख सुख दोनों में उपेक्षा―जिसको योग्य साधन मिले हैं उसे यह अवसर है कि वह कुछ धर्मकार्यों में अपनी प्रगति और प्रवेश बना ले। यों इस दृष्टि से पुण्यास्रव पापास्रव की अपेक्षा भला है, किंतु जिसे एक शुद्ध ज्ञायकस्वरूप के विकास की ही रुचि है ऐसे पुरुष को अन्य और कुछ नहीं सुहाता। केवल एक शुद्ध अंतस्तत्त्व का ही दर्शन सुहाता है। वह पुण्यास्रव को और पापास्रव को हेय मानता है। यहाँ इस ओर से देखिये―संसार में जीवों को सुख और दु:ख इन दो का भोग लगा हुआ है। कोई जीव सुख भोगते हैं और कोई जीव दु:ख भोगते हैं वह दु:ख भी क्या है और यह सुख भी क्या है? दु:ख―वह है जहाँ इंद्रियों को बात भली न लगे। जैसे अनिष्ट रस खाना ही पड़े, अनिष्ट रूप देखना ही पड़े, अनिष्ट गंध सूँघना ही पड़े, अनिष्ट स्पर्श करना ही पड़े ऐसी स्थिति में इस जीव के दु:ख उत्पन्न होता है और सुख क्या है? जहाँ इंद्रियों को सुहावना लग जाय। सुंदररूप इसे सुहावना लगता है, ऐसी स्थिति में इसे सुख होता है, किंतु कुछ स्वरूप की ओर दृष्टि डालें तो स्वरूप के समक्ष सुख दु:ख ये दोनों परिणमन विकार, परभाव है, क्लेशरूप हैं, इस कारण दोनों हेय हैं, दोनों के कारण हेय हैं।
सुख दु:ख में, पुण्यपाप में, शुभ अशुभ भाव में समानता और कर्तव्य―विकार होने के कारण जितना गंदा परिणाम दु:ख भोगने का है उतना ही गंदा बल्कि यों कह लीजिए कि उससे भी अधिक गंदा इंद्रियजंय सुख भोगने का परिणाम है। दु:ख आये तो उन दु:खों को भोगता है, सहता है, एक तो इस जीव के अंतर का यह परिणाम और इंद्रियजंय सुखों को ललचाता है, उन सुखों की ओर झुकता है, उनमें अपना उपयोग फँसाये है एक उसका यह विकार परिणाम। कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि उस दु:ख भोगने की अपेक्षा सुख भोगने का परिणाम अधिक गंदा होता है विकारों की दृष्टि से देखो, तब ऐसा दु:ख मिला, किस निमित्त से पापों का उदय आया, अतएव और ऐसा इंद्रियजंय सुख मिला किस निमित्त से, पुण्य का उदय आया किस निमित्त से? तब ये पुण्य और पाप दोनों भी सुख दु:ख के सामान विकार हैं और गंदे हैं। यहाँ तक तो रही पुण्यकर्म और पापकर्म की बात। अब आगे और चलिए ये पुण्यकर्म व पापकर्म बँधे कैसे हैं? इस जीव ने शुभ व अशुभ परिणाम किया उससे। तो जब पुण्य और पाप दोनों विकार और बंधन की दृष्टि से समान हैं तो इनके कारणभूत ये शुभ भाव और अशुभ भाव भी समान हैं। यह समता तत्त्वज्ञानी पुरुष के उत्पन्न होती है। इस श्लोक में शुभकर्म का आस्रव किस काययोग से होता है? इसका इसमें वर्णन चल रहा है। कायगुप्ति के कारण, कायोत्सर्ग के कारण जो स्थिति बनती है उस स्थिति में जो योग रहता है उस योग के निमित्त से पुण्य प्रकृतियों का आस्रव होता है।