वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1762
From जैनकोष
उत्पातभयसंतापभंगचौरादिविद्धरा: ।
न हि स्वप्नेपि दृश्यंते क्षुद्रसत्त्वाश्च दुर्जना ।।1762।।
वैमानिक देवों के आवास में उत्पात भय आदि का अभाव―उन स्वर्गो में न कहीं उत्पात है, न कहीं उपद्रव है, न कोई किसी पर उपसर्ग करता है, न लड़ाई झगड़े हैं । लड़ाई झगड़े का कारण तो परिग्रह है । उन्हें, कमाई करनी नहीं, आजीविका के साधन बनाने की जरूरत नहीं, उनका वैक्रियक शरीर है, जब कभी हजारों वर्षों से भूख लगती है तो उनके ही कंठ से अमृत झड़ जाता है और वे तृप्त हो जाते हैं । उनको शृंगार के लिए वस्त्र आभूषण ये स्वयं प्राप्त हो जाते हैं । तो वहाँ कलह की कोई गुंजाइश नही है, फिर भी सूक्ष्मता से तो यह नहीं कहा जा सकता कि उनमें कभी लड़ाई ही नहीं होती । होती है किसी प्रकार की उनके ढंग की मगर ऐसी कलह ऐसा उत्पात कारणों का अभाव होने से नहीं होते जैसा कि मनुष्य लोक में हुआ करता है । वहाँ भय भी कुछ रही है । भय किसी भी देव को नहीं है क्योंकि सभी सुरक्षित हैं । बीच में किसी का मरण नहीं होता लेकिन पुण्य पाप के फल सर्वत्र फलते हैं । वहां इंद्रों का और बड़े देवों का छोटे देव कुछ भय मानते हैं, वह भय एक पुण्य से प्रेरित भय है । उनकी आज्ञा में रहना पड़ता है इस कारण से थोड़ी बहुत भय की बात है पर जैसा भय यहां है कि आजीविका रहेगी कि नहीं, कहीं मरण न हो जाय, ऐसा भय उन देवों के नहीं है । वहाँ कोई संताप भी नहीं है । संताप यह दो प्रकार से होता है-एक तो शारीरिक संताप और दूसरा मानसिक संताप । इष्टवियोग हो गया उसका खेद मान रहे हैं तो देवतावों को कोई शारीरिक संताप तो होते ही नहीं, इष्टवियोग भी उनके नहीं होता । वहाँ ऐसा ही नियोग है कि कोई देव गुजर गया तो उसके स्थान पर वहाँ जो भी देव होगा वह देव उसका इष्ट हो जायगा, वहाँ कोई देवांगना मर गयी तो वहाँ जो दूसरी देवांगना हो वह उस दैव की इष्ट बन जायगी । तो वहाँ संताप नहीं होता, चोर शत्रु आदिक की भी वहाँ बाधा नहीं है । किसका क्या चुराये? यहाँ तो परिग्रह का संबंध आजीविका से है तौ कुछ परिग्रह मनुष्य लोग चुरा भी लेते हैं पर वहाँ क्या चुराये? चोरी कर के कहां रखना, उसका क्या उपयोग करना? यद्यपि वहाँ भी बड़े वैभव वाले, छोटे वैभव वाले देव हैं और वे कुछ मन में संताप भी करते हैं दूसरे के बड़े वैभव को निरखकर, लेकिन चुराने का काम वहाँ नहीं है । यह तो पुण्योदय से जिसे जो वैभव मिला उसे पा कर के वह अपने भाव बनाता रहता है । तो वहां चोरी की भी बात नहीं है । वहाँ वंचक भी नहीं, ठगने वाले भी नहीं । जैसे यहाँ जेब कतरे लोग या और-और भी अनेक पद्धतियों से चोरी करने वाले लोग पाये जाते हैं वैसे वहाँ चोरी कोई देव नहीं करते । चोरी करने का, ठगाई करने का परिणाम वहाँ है ही नहीं । यहाँ तो मनुष्य लोग ठगाई करने के चोरी करने के नाना प्रकार के उपाय रचते हैं । जैसे अभी यात्रा के प्रसंग में ही कितनी ही तरह से लोगों को ठगने की बात देखने में आयी । कुछ पैसे बिखेर दिया और कह दिया कि देखो तुम्हारे ये पैसे गिर गये, वह पैसे उठाने लगा उतने में ही उसकी कोई चीज लेकर वह चंपत हो गया । किसीने पानी भरने के लिया लोटा या गिलास मांगा तो अपरिचित होकर भी वह उसे बड़े प्रेम से दे देता और जहाँ वह नहाने लगा तो झट उसकी कोई कीमती चीज लेकर चंपत हो जाता । एक नया रिवाज और देखा सुना कि कोई जड़ी बूटी लगा दी शिर के पास । वह अपना सर खुजाने लगा, इतने में ही उसकी कोई कीमती चीज लेकर भाग गया । मौका मिल गया तो झट जेब काटकर धन चुरा लिया । तो जैसे यहाँ मनुष्यों में नाना तरह की ठगाई चलती है इस तरह की ठगाई उन देवों में नहीं है । क्षुद्र जीव, दुर्जन क्रूरता वाले जीव ऊर्ध्व लोक में नहीं होते हैं ।