वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1761
From जैनकोष
वर्षातपतुषारादिसमयै: परिवर्जित: ।
सुखद: सर्वदा सौम्यस्तत्र काल: प्रवर्तते ।।1761।।
स्वर्गों में शीतातपादिक दुःखों से रहितता―उन स्वर्गों में वर्षा शीत तुषार गर्मी ये समय नहीं हैं । ऐसी ये ऋतुएँ नहीं होतीं । वर्षा के समय भी लोगों को बहुत सी असुविधायें हो जाती हैं । घर चू रहा है, ज्यादा बरस गया है, बाहर भ्रमण करने भी नहीं जा सकते, अनेक असुविधायें होती हैं पर स्वर्ग और ऊपर के विमान ये तो पुण्य के स्थान हैं, यहाँ असुविधा वाली बातें न होना चाहिए । सों वहाँ यै कोई ऋतुयें नहीं होती हैं । जहाँ विकलत्रय जीव भी उत्पन्न नहीं हैं कि कीड़ा मकोड़ा मक्खी मच्छर आदिक की तरह उन्हें सतावें, वहाँ वर्षा भी नहीं होती, शीतकाल भी नहीं होता, वहाँ देवों का शरीर ही वैक्रियक है और फिर ऐसी बाधा देने वाली ऋतुयें भी नहीं हैं । ठंड का भी बहुत कठिन क्लेश होता है । जब ठंड अधिक पड़ती है तो लोग उस ठंड से परेशान होकर यह कहने लगते कि इस ठंड से तो गरमी अच्छी है और जब गरमी अधिक पड़ती है तो उससे भी बहुत परेशान होकर लोग कहने लगते कि इस गरमी से तो ठंड अच्छी है । तो ठंड गरमी-इन दोनों में बहुत अधिक वेदनाएँ है । इस ठंड और गरमी का समय स्वर्ग लोक से और ऊपर नहीं है, वहाँ सदा एक मध्यस्त काल रहता है । जैसे यहाँ बसंत ऋतु में या फागुन चैत के महीनों में जब कि न अधिक गरमी है और न अधिक ठंड है, एक सम जलवायु रहता है, उसमें किसी को कोई ठंड गरमी की वेदना नहीं होती, इस प्रकार का मध्यस्त काल ऊर्ध्व लोक में बना रहता है जिससे वहॉ के देव बाहरी बाधावों से भी परे रहा करते हैं ।