वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 177
From जैनकोष
कषाया: क्रोधाद्या: स्मर सहचरा: पंचविषया:। प्रमादा मिथ्यात्वं वचनमनसि काय इति च।।
दुरंते दुध्योर्न विरतिविरहश्चेति नियतम्। स्रवंत्येते पुंसां दुरितपटलं जन्मभयदम्।।177।।
मिथ्यात्व का महापाप―जीवों का यह अशुभ परिणाम नियम से पाप का ही आस्रव कराता है। उन अशुभ परिणामों में प्रधान तो है मिथ्यात्व। मिथ्यात्व, अज्ञान, मोह ये एकार्थवाचक है। कोई पुरुष ऐसी शंका करते हैं कि जिन्हें मालूम है कि जल में जीव होते हैं वे जल छानकर न पियें तो उन्हें पाप लगेगा और जिन्हें पता ही नहीं है कि जल में जीव होते हैं और वे अनछना ही पियें तो उनको पाप का क्या काम? ऐसे ही सभी प्रसंगों में समझ लीजिए, लेकिन तत्त्व की बात यह है कि मन, वचन, काय की बुद्धिपूर्वक प्रवृत्तियों से जो पाप लगता है उससे भी अधिक पाप अज्ञान का होता है। भला ज्ञानस्वरूप यह आत्मा जिसको ज्ञानस्वरूप से विदित न हो, इसको कितना अंधेर खाता कहा जाय, अज्ञान, मिथ्यात्व, मोह यह तो महापाप है।
अज्ञान में क्लेश की विशेषता―जो अज्ञान मोह पाप में बस रहा हो उसके तो पाप का प्रतिसमय आस्रव बंध चल ही रहा है। जैसे पीछे या अगल-बगल कोई आग का अंगारा पड़ा है जो सामने नहीं है, जो हमें दिखता नहीं है। कोई पुरुष मुझे धक्का दे या मैं ही अपने आप पैर बदलूँ और आग पर रख लूँ तो उस समय मैं कितना जलूँगा और एक हमें पता है कि यह सामने आग पडी है और कोई धक्का दे तो हमें आगे बढ़ना पड़ता है और बढ़कर हम उस आग पर से ही जा रहे हैं उस समय देख लो हम कितना बढ़ते हैं? जानी हुई स्थिति में हम कम जलेंगे और अनजानी स्थिति में आग पर पैर रखने से हम अधिक जलेंगे। विशेष क्या कहें, इतना ही समझ लीजिए कि मोह का पाप सब पापों से बुरा पाप है।
मिथ्यात्व से पापास्रव और उसके निराकरण का यत्न―प्रथम तो इस जीव को मिथ्यात्व का ही अशुभ परिणाम लगा है। उस परिणाम में इस जीव के पापकर्मों का आस्रव हो रहा है। अन्य जितने भी पाप होते हैं वे सब पाप इस मोहराज सैन पर होते हैं। जहाँ मोह का क्षय हो गया वहाँ अन्य पाप अपनी स्थिति नहीं बना सकते, वे दृढ़ नहीं हो सकते, इस कारण धर्मपालन की दशा में सर्वप्रथम कर्तव्य यह होना चाहिए कि हमारा मोह भाव टूटे और हम आत्मा के यथार्थस्वरूप का दर्शन करें। इसके लिए बुद्धिपूर्वक उपाय तो ज्ञानार्जन का है। ज्ञानार्जन में भी गुरु मुख से ज्ञानार्जन का बहुत महत्व है, वह भी करें और अपने आप स्वाध्याय आदिक करके भी ज्ञानार्जन करें। अपने जीवन में ज्ञान के अर्जन की धुन बनाना चाहिए और उस ज्ञान के अर्जन से अपने आपको प्रसन्न रखना चाहिए, यह प्रोग्राम हो। बाकी जो कुछ होता है, जैसी स्थिति है उसमें गुजारा और व्यवस्था करने की अपनी कला बना लेनी चाहिए।
पापास्रवों में मुख्य मिथ्यात्व―जिन जीवों के विकार परिणाम के द्वारा पापकर्मों का बंधन होता है उन अशुभ परिणाम के वर्णन में मिथ्यात्व नामक अशुभ परिणाम की बात चल रही है। मिथ्यात्व भाव वहाँ है जहाँ अनंताभाव वाले परपदार्थों के साथ अपने जुड़ाव की कल्पनाएँ हैं। मिथ्यात्व भाव वहाँ है जहाँ वस्तु के यथार्थस्वरूप का भान नहीं है और इसी कारण परवस्तुओं में जो अंत: आकर्षण चलता है इस मिथ्यात्व भाव के दो प्रकट अंग हो गए हैं―अहंकार और ममकार। अनंत भिन्न वस्तु में ‘यह मैं हूँ’ इस प्रकार का भाव करना अहंकार है और ‘यह मेरा है’ इस प्रकार का आशय रखना ममकार है। संसार का मूल मिथ्यात्व है। इस जीव का मूल बैरी मिथ्यात्व है, जिस परिणाम के वश होकर अनादि काल से यह जीव नाना कुजन्मों में जन्म लेता चला आया है। मिथ्यात्व भाव के दूर हुए बिना आत्मकल्याण के लिए कोई पथ नहीं मिल सकता, यह महापाप है और पापों का आस्रव करने वाला है।
क्रोधकषाय से आस्रव―पापास्रव के कारण व पापास्रव है मोह के बाद क्रोधादिक कषायें। कषाय शब्द बना है कष् धातु से। जो आत्मा को कसे उसे कषाय कहते हैं। कसने में क्लेश है। जैसे कोई मनुष्य अथवा पशु को रस्सी आदिक से कसे तो वह पीड़ा का रूप है। यह जीव जिन भावों से कसा जाता है दु:ख रूप होता है वह भाव कषाय है। चार प्रकार की हैं वे क्रोध, मान, माया, लोभ। जब इनके स्वरूप पर दृष्टि करें तो सुविदित हो जायेगा कि इस जीव की ये कषायें ही तो बैरी हैं। आनंद में बाधा डालने वाले ये कषाय भाव ही तो हैं। क्रोध हो तब इस जीव को कुछ सुध नहीं रहती है, रहे सहे गुण भी जल जाते हैं। कोई जीव बड़ा उपकारी है, पर वह क्रोध करे तो दूसरों की दृष्टि में उसके सारे गुण धुल जाते हैं याने उन सारे गुणों पर पानी फिर जाता है। क्रोध करने से उसके सारे गुण ओझल हो जाते हैं। क्रोध को चांडाल की उपमा दी है। अब समझ लीजिए कि इस क्रोध के द्वारा हम अपना कितना अनर्थ कर डालते हैं? क्रोध से हमारा जो अनर्थ होता है उस समय हमें ज्ञात नहीं रहता, पर पता पड़ जाता हे कुछ समय निकलने के बाद कि मैंने गलती की थी और इस गलती के फल में मुझे यह अनर्थ भोगना पड़ा।
मनकषाय से आस्रव―अहंकार कितनी व्यर्थ की सी चीज है। किसे अहंकार दिखाते हो? यहाँ कोई तुम्हारा प्रभु है क्या? कोई रक्षा करने वाला भी है क्या? किसे अपनी चतुराई, किसे अपना अस्तित्व दिखाना चाहते हो? अरे ये सभी प्राणी हम ही जैसे तो भूले-भटके संसार में रुलने वाले आशय मलिन, दीन स्वयं हैं वे। उनमें अपना क्या मान रखना चाहते हो? जो पुरुष अहंकार के वश है और इस कारण उसके अंतरंग में विह्वलता के क्षोभ का जो परिणाम हुआ है उसे वही भोगता है। मान में भी कोई सार की बात नहीं है और अचरज की बात तो देखो―हम तो मान करते हैं इसलिए कि दूसरों की दृष्टि में हम उच्च कहलाने लगें। फल यह होता है कि सब लोग हमें अधम समझने लगते हैं। कितना अँधेरा है? मान तो करने चला यह जीव बड़प्पन पाने के लिए, किंतु उस प्रवृत्ति में फल मिला यह कि लोग मुझे अधम मूर्ख समझने लगे।
मायाकषाय से आस्रव―मायाचार का परिणाम तो एक शल्य बन जाता है। मायाचार को शल्य कहा है। जैसे पैर में कांटा लग जाय तो कितनी वेदना रहती है, चलते फिरते बैठते दर्द होता रहता है, तो जैसे काँटा चुभा हो तो वह शल्य बन जाता है, इसी प्रकार मायाचार का परिणाम इस जीव को शल्य बन जाता है। कुछ घटना हो तो अर्थ अपने पर लगाइयेगा। बहुत से मायाचारी जीव तो अपनी ही कमजोरी और शल्य के कारण खुद अपना मायाचार प्रकट कर देते हैं और लोग समझ जाते हैं। मायाचार से भी इस जीव को दु:ख ही है। यह जीव को कसने वाली ही कषाय है।
लोभकषाय से आस्रव―लोभ का रंग तो बहुत विचित्र है। कैसा रंग फैल गया है इस जीव में? रग-रग में सर्वप्रदेशों में सर्वगुणों पर आवरण डालते हुए यह राग यह तृष्णा लोभ कैसा इस जीव पर छाया है? है कुछ नहीं इसका, मरने पर तो प्रकट ही सब जानते है कि कुछ साथ नहीं ले जाता, लेकिन इसे धैर्य कहाँ? लोभकषाय का रंग जिस पर चढ़ता है उसके गंभीरता कैसे हो सकती है? तो ये क्रोधादिक कषायें पापकर्म का आस्रव करती हैं।
विषय-अविरति से आस्रव―इसके बाद तीसरे नंबर पर पंचेंद्रियों के विषयों को रख लीजिए। ये इंद्रियों के पांचों विषय कामदेव के सहचर हैं। सहचर उसे कहते हैं जो साथ-साथ चले, पीछे न चलें। पंचेंद्रियों के विषय ये काम के सहचर हैं। अच्छे शब्द सुनने से, राग भरे शब्द सुनने से काम को ही तो प्रोत्साहन मिलता है। सुंदररूप निरखने से काम को ही तो प्रोत्साहन मिला। अच्छे सुगंधित वातावरण में रहना, रसीले गरिष्ठ स्वादिष्ट भोजन करने से, उस ओर आसक्तिपूर्वक प्रवृत्ति होने से इस स्मरको ही तो सहयोग मिला। स्पर्श का स्पर्शन करने से इस स्मर की ही तो जागृति हुई। ये 5 विषय काम के सहचर हैं। इस कारण योगी साधुसंत इन पंच-विषयों से विरक्त रहते हैं। ये पंचेंद्रिय के विषय भी पाप का आस्रव कराते हैं।
प्रमाद से आस्रव―चौथी बात निरखिये प्रमाद की। प्रमाद 15 प्रकार के होते हैं। जिन प्रमादों से यह जीव प्रमत्त कहलाता है। चार तो विकथायें हैं। राजाओं की कथा करना, अमुक राजा यों, राजाओं का कथन करना, यह राजकथा नाम का प्रमाद है। भोजन की कथा करना, कहो जी आज तुम्हारा आहार कैसा रहा, क्या खाया, आज तो मेरा आहर ऐसा ही रूखा-सूखा रहा अथवा आज बहुत अच्छा रहा, किसी प्रकार की चर्चायें करना ये सब भोजन कथाएँ हैं। यह प्रमाद है। प्रमाद का अर्थ मोक्षमार्ग में अनुत्साह होना है। जिस जीव को मोक्षमार्ग में उत्साह नहीं है वही तो बेकार है और जो बेकार होगा वही गप्पसप्प लगायेगा। तो मोक्षमार्ग की ओर से बेकार पुरुष इन कथाओं को किया करते हैं। एक देशकथा है। किस देश में कैसा रिवाज है, कैसा श्रृंगार है, कैसे लोग रहते हैं, देश की व्यवस्थाएँ प्रबंध और यहाँ की विशेषताओं का वर्णन करना यह देशकथा है। यह भी प्रमाद है। एक स्त्रीकथा है। स्त्री संबंधी कथा करना, अमुक स्त्री यों है, अमुक स्त्री यों है ये चार विकथाएँ है, प्रमाद हैं। 4 कषायें भी प्रमाद हैं और 5 इंद्रियों के विषय प्रमाद हैं। तथा स्नेह और निद्रा, इस प्रकार यह 15 प्रमाद हुए हैं। प्रमाद के परिणाम पापों का आस्रव करते हैं।
योग से आस्रव―योग तो आस्रव का मूल है काय, वचन और मन का योग। काय की प्रवृत्ति करना काययोग है। इस काय को इष्टविषयसाधन के कार्यों में लगाना, इससे पापों का आस्रव होता है। वचन खोटे बोलना अहितकर, अप्रमाणिक वचनों से पाप का आस्रव होता है। यों ही मन की संकल्पना, कल्पनायें बढ़ाने से भी पापास्रव होता है। मन का विषय काम है और लोकेषणा आदिक भी हैं, नाना विषय है। मन के विषय नियत नहीं हैं। जैसे इंद्रिय का विषय हम नियत कह डालते हैं ना, स्पर्शन इंद्रिय का विषय स्पर्श है, रसनाइंद्रिय का विषय रस है, घ्राण का गंध, चक्षु का रूप और श्रोत्र का शब्द है। यों मन का क्या एक विषय है? नियत नहीं कर सकते। उसकी चाल तो बहुत दूर-दूर तक चलती है। स्मर का दूसरा नाम है मनोज। यह कामविकार मन से उत्पन्न होता है। जैसे भूख का रोग है। यह केवल कल्पनाओं से संबंध नहीं रखता। पेट खूब भरा हुआ हो और सामने बहुत बढ़िया फूली हुई रोटी उतर रही हो तो यह कैसे डालें? पेट में। कुछ कल्पना से बात बनती है क्या? कल्पना किया कि खूब भूख लगी है। तो यों कल्पनाएँ करने भर से तो पेट में रोटियाँ न समा जायेंगी, ऐसे ही शरीर के अंदर रोग है, इस प्रकार रोग और भूख प्यास की तरह यह नहीं है कि जिसका समय नियत हो, कोई घटना नियत हो कि ऐसे समय पर ही कामविकार हुआ करता है। वह तो मनोज है। जब वह मन उद्दंड हुआ और तभी मन की कल्पनाएँ जगी, लो मनोज हो गया। यह भी पाप का आस्रव करता है।
दुर्ध्यान से आस्रव―इससे आगे निरखिये दुर्ध्यान को। 4 प्रकार के आर्तध्यान और चार प्रकार के रौद्रध्यान ये पाप का आस्रव करने वाले है। आर्तध्यान में क्लेश पड़ा हुआ है और रौद्रध्यान में मौज माना जाता है। इन दोनों प्रकार के ध्यानों में आर्त और रौद्रध्यान में पाप के आस्रव का हेतु चना पाया जाता है। अरतिविरति, व्रत का त्याग। कोई मनचले लोग उस प्रसंग में जब कि कोई उपदेश दे रहा हो, देखिये आप लोग कुछ त्याग कीजिए तो कोई यह कह सकेगा कि हाँ साहब हम त्याग करते हैं। अच्छा करो त्याग। काहे का? हम त्याग का त्याग करते हैं, तो व्रतों का वियोग होना, यह भी पाप का आस्रव कराने वाला है। इन परिणामों का फल पापबंध है। और इसके कारण भावीकाल में भी इसे क्लेश का ही सामना करना पड़ता है। यद्यपि यह आत्मा शुद्धनिश्चयनय की दृष्टि से आस्रवरहित है अब भी, संसार में रुलते हुए भी हम आप अपने आपके स्वरूप पर दृष्टिपात करें तो विदित होगा कि हम आपका स्वरूप स्वभावत: अपने आपके अस्तित्व के कारण समस्तविकारों से हैं, केवल ज्ञानस्वरूप है तो भी अनादि कर्म के संबंध से यह मिथ्यात्व आदिक परिणामोंरूप परिणमता है, इस कारण यह प्राणी नवीन कर्मों का आस्रव करता रहता है।
कल्याणलाभ का पुरुषार्थ―जब यह जीव भेदविज्ञान के अभ्यास से उन मिथ्यात्व आदिक परिणामों से अपना विलगाव करे, स्वभाव का लगाव करे, अपने स्वरूप का ध्यान करे तो कर्मास्रव से रहित होता है। अलग शब्द कहाँ से लाया गया है? न लग इति अलग। लगे नहीं उसका नाम अलग है। अलग हो अर्थात् लगाव न रहे, इस प्रकार से बन जाये उसे कहते हैं अलगाव। लगाव किससे था? लगाव था इस जीव का आस्रव परिणामों से, उनका लगाव मिटे, उन भावों का अभाव हो तो इस जीव को कल्याणपना मिलता है। इस बात को समझने के लिए और इस कल्याण भावना के लिए आस्रव भावना का विचार संतजन किया करते हैं। यह आस्रव महादु:खमयी है। ये खोटे परिणाम ही मेरे वास्तविक बैरी हैं, उन बैर परिणामों से अपने को अलग हटा लेने में ही लाभ है।
मिलन का सदुपयोग―इस असार संसार में इस अशरण लोक में हम आप यदि आज इकट्ठे हो गए हैं। चाहे कोई परिवार के रूप में इकट्ठे हों और चाहे कुछ लोग समाज के रूप में इकट्ठे हों अथवा धर्मधर्मी गुरु शिष्य आदि के रूप में मिले हुए हम आपके इस मिलाप का वास्तविक फल यही है कि एक दूसरे को धर्म में स्थिर करें, धर्म से न डिगने दें, अधर्म से हटावें, ऐसी प्रवृत्ति बने तो यह समागम भी सफल है। चाहे परिजन परिवाररूप समागम हो वहाँ भी भाई भाई को, पिता पुत्र को, पति पत्नी को, पत्नी पति को, कोई भी किसी अपने संबंधी को धर्म में लगाए, अपना ऐसा व्यवहार बनाये कि जिससे दूसरे भी शांत सुखी रहें और धर्म का प्रकाश पाते रहें, ऐसा व्यवहार बन सके तो यह कुछ काम का है और केवल विवाद विषय कषायों का भोगना विषय कषायों की खुदगर्जी, इनमें ही समय बीता तो वह समय निष्फल है, बेकार है। काहे का मोह? उस मिलन में तो और बुरा असर हुआ, एक दूसरे का दु:ख कारण बना। कर्तव्य यह है कि हम अपने इस क्षणिक समागम से कोई तात्त्विक बात लें, अट्टसट्ट बातों में समय न गुजारें।
संवर भावना