वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 179
From जैनकोष
य: कर्मपुद्गलादानविच्छेद: स्यात्तपस्विन:।
स द्रव्यसंवर: प्रोक्तों ध्याननिर्द्धूतकल्मषै:।।179।।
कर्म की क्लेशहेतुता―द्रव्यकर्म के संवर का स्वरूप―इस जीव के साथ क्रोधादिक कषायों के कारण, मन, वचन, काय के योग के कारण बहुत सा विरुद्ध वातावरण लगा हुआ है, अर्थात् कर्मों का संग लगा हुआ है। ये कर्म इस जीव को बड़े-बड़े क्लेशों के कारण बनते हैं। आदिनाथ भगवान जो ब्रह्म के रूप में प्रसिद्ध हुए, युग के अंत में जो जनता के आधार थे और इस भरतरक्षेत्र में 18 कोड़ाकोड़ी सागर के बाद धर्म के प्रथम नेता हुए वे मुनि हुए। मुनिपद धारण करने के बाद 6 महीने तक लगातार चर्या को रोज जाते रहे किंतु अन्न जल का सुयोग न मिला। ऐसे ही बड़े-बड़े महापुरुष नारायण बलभद्रों की भी ऐसी ही कहानियाँ भरी पडी हुई हैं। ये कर्म इस जीव को बड़े क्लेश के कारण हैं। इस समय भी देख लो बड़ा घर है पर उस परिवार के लड़के या अन्य संबंधी किसी भी विरुद्ध तरह के उदय वाले हैं। यहाँ भी बड़ी विचित्रताएँ नजर आती हैं। उन कर्मों के रोकने का कुछ उपाय किया गया तो तो भला है, नहीं तो कर्मों के प्रेरे ये जीव ऐसे ही संसार में भटकते रहेंगे।
द्रव्यकर्म के संवर का स्वरूप―इस प्रकरण में उन कर्मों के रोकने के उपाय और भेद-प्रभेद बताये जा रहे हैं। कर्मों के रुकने का नाम संवर है। किसी भी प्रकार का बिगाड़ न हो सके―उसका नाम संवर है। वह संवर दो तरह का है―एक द्रव्यसंवर और दूसरा भावसंवर। उनमें से इस छंद में द्रव्य संवर का लक्षण बताया है। जीव में दो प्रकार के बिगाड़ आ रहे हैं―एक तो अपने परिणाम अशुद्ध बनाना यह है भाव बिगाड़ और इस विकार भाव का निमित्त पाकर जो कर्म पुद्गल का आना बनता है वह है द्रव्य बिगाड़। द्रव्यकर्म का आना द्रव्यास्रव है और अपने बुरे भावों का बनना भावास्रव है। भावास्रव के रुकने का नाम भावसंवर है और द्रव्यास्रव के रुकने का नाम द्रव्यसंवर है। तपस्वी मुनि संतों की कर्मरूपी पुद्गल के ग्रहण करने का निरोध हो जाय वह द्रव्य संवर है।
कर्मों का स्वरूप―भैया ! कर्मों के संबंध में बातें तो बहुत से लोग करते हैं, हर एक मनुष्य के जुदे-जुदे कर्म है। सब अपने कर्मों से दु:खी सुखी होते हैं, पर इन कर्मों का स्वरूप क्या है, कर्मों की मुद्रा मूरत क्या है? इसके संबंध में किसी ने भी निर्णय नहीं लिया। कर्म शब्दार्थ से तो किए जाने का नाम है। जो किया जाय उसका नाम कर्म है। जीव के द्वारा परिणाम किये जाते हैं तो शुभ और अशुभ परिणामों का नाम कर्म है और इन परिणामों का निमित्त पाकर जो बात बनती है बाहर में अर्थात् अनेक कर्मपरमाणु कर्मरूप बन जाते हैं वे सब द्रव्यास्रव हैं। तो उन द्रव्यकर्मों का न आना, आस्रव का निरोध हो जाना, इसका नाम द्रव्य संवर है। जैसे पूजा पाठ में कहते हैं ना लोग अष्टकर्म विध्वंसनाय, वे 8 प्रकार के कर्म क्या हैं? द्रव्यकर्म, बहुत सूक्ष्म जो वज्रों से भी न रुके, जो किसी से भी न निवारें जायें, ऐसे बहुत सूक्ष्म पुद्गल हैं जो कर्मरूप बन जाते हैं। वे कर्मरूप न बन सकें, इसका नाम है द्रव्यसंवर। यह बात उन ऋषि संतों ने बतायी है जिन्होंने आत्मा के ध्यान से पापकर्मों का विघात किया है, ऐसे संतों ने द्रव्यसंवर का यह लक्षण कहा है।
भावसंवर के समय द्रव्यसंवर का स्वयंभावन―द्रव्यसंवर पर हमारा कुछ वश नहीं है। हमारा वश तो अपने परिणामों पर है। हम ही स्वच्छंद होकर बुरे परिणाम करते हैं तो हम ही विवेक उत्पन्न करके शुद्धपरिणाम भी कर सकते हैं। शुद्ध परिणामों के होने पर द्रव्यसंवर स्वयं हो जाता है प्रथम तो कर्म बिगाड़े से बिगाड़े भी नहीं जा सकते और फिर यह अमूर्त आत्मा उन कर्मों का क्या करे? यह तो अपने परिणाम बनाता है और पुद्गल कर्मों में कर्मरूप बन जाना या कर्मरूप न बनना कर्मत्व मिट जाना―ये सब बातें होती रहती हैं। यह द्रव्यसंवर स्वयं होता है। अष्टकर्मों का विध्वंस करना है तो अपने को करने का यही काम है कि अपने भाव निर्मल रक्खें।