वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1799
From जैनकोष
गीतवादित्रनिर्घोषैर्जयमंगलपाठकै: ।
विवोध्यंते शुभै: शब्दै: सुखनिद्रात्यये यथा ।।1799।।
जन्मसमय में गीत वादित्र आदि घोषों द्वारा देवों का विवोधन―वह देव उस उपपादशय्या में इस प्रकार उत्पन्न होता है कि जैसे कोई राजकुमार सोया हो और वह गीत वादित्रों के शब्दों से, जय-जय आदिक मंगल के वादों से जगाये जाते हैं, ऐसी ही वहाँ की स्थिति है । मानो कोई सोया हुआ पुरुष बड़े अच्छे पाठों से, बड़े अच्छे गीत वादित्रों से जगाया जा रहा हो तो जग कर वह चेष्टा करता है, यहाँ वहाँ निरखता है ऐसे ही वहाँ उपपादशय्या पर कोई था नहीं पहिले । कुछ ही मिनट में एकदम वहाँ एक बालक दिखाई दिया और कुछ ही मिनट में वह जवान होकर बैठकर चारों ओर निरखने लगता है, इस प्रकार सुखपूर्वक उन देवों का जन्म होता है । जन्म के समय अनेक देव वहाँ जय-जय शब्द बोलते हैं । देखिये पुण्य का एक प्रभाव कि जैसे यहाँ लोग किसी महापुरुष के प्रति जय-जय शब्दोचारण करते हैं, पूज्य पुरुष का जयवाद किया करते हैं इसी प्रकार वहाँ उत्पन्न हुए देव के प्रति लोग जय-जय शब्द करते हैं, वहाँ प्राय; कर के वे ही मनुष्य उत्पन्न होते हैं जो तपश्चरण करते, धर्मसाधना करते । तो पवित्र आत्मा ही तो स्वर्गों में उत्पन्न होते हैं । जिन देवों के प्रति अन्य देवों का आकर्षण है उनकी बात कही जा रही है । ऐसे महापुरुषों की उत्पत्ति के समय अनेक देव उनके निकट पहुंचकर उनका जयवाद करते हैं । ऐसे सुखपूर्ण वातावरण में वे मूर्धिक देव कुछ सावधान होकर यत्र तत्र निरखने लगते हैं ।