वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1798
From जैनकोष
किंच पुण्यफलाक्रांतै: प्रवालदलदंतुरै: ।
तेषां कोकिलवाचालैर्द्रुमैजन्म निगद्यते ।। 1798 ।।
देवों के जम के समय में प्राकृतिक वातावरण की सुरम्यता―देव जब उत्पन्न होते हैं तो वहाँ का आसपास का वातावरण भी खिल उठता है, आसपास के वृक्ष फल फूलों से भरपूर हो जाते हैं । लोग ऐसा वातावरण देखकर जान जाते हैं कि कोई पुण्यवान देव उत्पन्न हुआ है, उनकी उत्पत्ति के समय उनकी दिव्य अतिशय जैसी उत्पत्ति होती है । वहाँ की एक यह प्राकृतिक बात है । जिस समय देव उत्पन्न होता है फल फूलों से भरपूर वृक्ष हो जाते हैं, कोमल पत्तों से अंकुरित वृक्ष हो जाते हैं । एक नवीनता उनमें आ जाती है जिससे लोग यह सूचना पाते हैं कि कोई देव उत्पन्न हो रहा है और उन वृक्षों पर बहुत सुहावने सुंदर कोकिलावों जैसे शब्द सुनाई देते हैं, ऐसी विचित्र आश्चर्यजनक बातें होती हैं जब कोई विशिष्ट देव अथवा इंद्र उस उपपादशय्या पर जन्म लेता है । संसार में पुण्य और पाप दोनों का ही खेल है । कोई जीव पाप के उदय से दुखी है, कोई जीव पुण्य के उदय में मौज मान रहा है, वस्तुत: जब तक ज्ञानदृष्टि नहीं आती है तब तक पाप का फल बँधा तो क्या लाभ, इसी प्रकार पुण्य का फल भी बंधा तो क्या लाभ? थोड़े से समय के लिए कुछ मौज के साधन मिल गए तो उससे क्या लाभ? लेकिन जो जीव धर्ममार्ग में चलते हैं उनके राग रहने के कारण जैसा पुण्यबंध होता है उस पुण्यबंध का यह फल है, यह अवश्य भोगना होता है । उस ही पुण्य फल की बात कही जा रही है । उनका जब जन्म होता है तो जन्म की सूचना वहाँ के आसपास का वातावरण देता है । मानो वह वातावरण भी पुलकित हो उठता है, वे वृक्ष नवीन अंकुरों से भर जाते हैं, पुष्प और फलों से भरपूर हो जाते हैं, ऐसे वातावरण को निरखकर अन्य देव जान जाते हैं कि कोई पुण्यवान देव उत्पन्न हुआ है । वे देव उस पुण्यवान देव की प्रतीक्षा करने लगते हैं । बाद में उसके गुणों का गान कर के उसे प्रसन्न करते हैं ।