वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1814
From जैनकोष
अत्र संकल्पिता: कामा नवं नित्यं च यौवनम् ।
अत्राविनश्वरा लक्ष्मी: सुखं चात्र निरंतरम् ।।1814।।
स्वर्गलोक की विशेषताओं का आख्यान―हे नाथ ! इस स्वर्ग में वांछित पदार्थ भोगने योग्य हैं, ऐसा पुण्यफल है यहाँ कि जो कुछ चाहा जाय उसकी प्राप्ति तुरंत होती है । यहाँ तो किसी वस्तु का निर्माण करना हो तो उस वस्तु की प्राप्ति में विलंब न लगेगा । किसी वस्तु का व्यापार करना हो तो कही से मंगाने में विलंब लगेगा लेकिन वहाँ सर्व भोग भूमि की चीजें कल्पवृक्ष के निमित्त से प्राप्त होती हैं । तो ज्यों ही इच्छा की, बस कुछ ही क्षणों में उस वस्तु की प्राप्ति हो जाती है । दृष्टांत भी दिया जाता है । जैसे धर्म भावना में बताया है कि―जाचै सुरतरुदेय सुख, चिंतत चिंता रैन । बिन जांचे बिन चिंतये धर्म सकल सुख दैन ।। धर्म सर्व सुखों का देने वाला है, ये कल्प वृक्ष तो याचना करने से जो भी चाहा उस ही फल को देते हैं । यहाँ यह बात भी समझ लेनी चाहिए कि कल्पवृक्ष भी अगर सुख के साधन देते हैं, चिंतामणि आदिक रत्न भी सुख के साधन देते हैं तो उस ही पुरुष को तो वे सुख साधन मिलते हैं जो किसी भी रूप में धर्मधारण करता है । तो धर्म ही प्रधान हुआ । समस्त सुखों की प्राप्ति के लिए कारण धर्म ही हुआ । क्योंकि उस धर्म के बिना, उस पुण्य के बिना तो यह कल्पवृक्ष और चिंतामणियों का भी समागम नहीं मिलता है । मंत्री जन कह रहे हैं कि हे नाथ ! इस स्वर्ग के सर्व मनोवांछित पदार्थ भोगने योग्य हैं । यहाँ नित्य नवयौवन है, वैसी ही लक्ष्मी है । निरंतर सुख ही सुख है । ऐसा सुखों का विशिष्ट धाम यह स्वर्ग है । मंत्री उन सब समागमों का परिचय दे रहे हैं । यद्यपि यह इंद्र अभी थोड़ी ही देर के बाद में अवधिज्ञान से इससे भी अधिक जानेंगे, निर्णय करेंगे, किंतु अवधिज्ञान को जब उपयोग में लिया जाय तब ही जानेंगे न, यहाँ नई जगह में उत्पन्न हुआ है नये समागमों को देख रहा है तो अवधिज्ञान का उपयोग नहीं किया जा रहा है, फिर भी बहुत कुछ तो देखते ही परिचय मिल जाता है, और ये मंत्री जन उसका परिचय करा रहे हैं ।