वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1834
From जैनकोष
अतस्तत्वार्थश्रद्धामे श्रेयसी स्वार्थसिद्धये ।
अर्हद्देवपदद्वंद्वे भक्तिश्चात्यंतनिश्चला ।।1834।।
पुण्यफल निरखकर प्रभुभक्ति आदि पुण्याचारों के संकल्प का निर्णय―इस कारण जब कि स्वर्गलोक में देवों के चारित्र की योग्यता नहीं है, केवल सम्यक्त्व की ही योग्यता है तब मेरा तो अपने आत्मा के प्रयोजन की सिद्धि के लिए तत्वार्थ की श्रद्धा बनी रहे, यही कल्याणकारिणी है । मेरे सात तत्व का श्रद्धान रहे, अरहंत देव के चरणों में मेरी निश्चल भक्ति रहे, वीतराग सर्वज्ञ देव की जिन्होंने शरण गहा उन्होंने एक सत्य शरण पाया, और जो स्त्री पुत्र मित्र और ये प्रजा के लोग मोही जन इनकी जिन्होंने शरण गहा वे अपने आपको बरबाद गया समझें । प्रभु वीतराग सर्वज्ञ देव के निकट मेरा हृदय सदा बसा रहे । अरहंत देव के चरण कमलों में मेरी अत्यंत निश्चल भीड़ रहे । सौधर्म इंद्र करता भी अरहंत भक्ति बहुत-बहुत है । तीर्थंकरों के कल्याणक की भक्ति करने से उसे कितना मौज मिलता है, जहाँ दो सागर की आयु होती है । तो दो सागर की आयु के बीच हजारों तीर्थंकरों के कल्याणक मना लेता है । एक सागर में हजारों कोटपूर्व समाये हुए है और एक तीर्थंकर की आयु अधिक से अधिक कोट पूर्व तक ही हो सकती है । विदेह क्षेत्र में तीर्थंकरों की परंपरा सदा चला करती है । तो सभी तीर्थंकरों का कल्याणक वह सौधर्म इंद्र मनाता है । तो सौधर्म इंद्र चिंतन कर रहा है कि अरहंत देव के चरण-कमलों में मेरी भक्ति अत्यंत निश्चल बनी रहे ।