वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1835-1836
From जैनकोष
यान्यत्र प्रतिबिंबानि स्वर्गलो के जिनेशिनाम ।
विमानचैत्यवृक्षेषु मेर्वाद्युपवनेषु च ।।1835।।
तेषां पूर्वमहं कृत्वा स्वद्रव्यै: स्वर्गसंभवै: ।
पुष्पचंदननैवेद्यैर्गंधदीपाक्षतोत्करै: ।।1836।।
गीतवादित्रनिर्घोषै: स्तुतिस्तोमैर्मनोहरै: ।
स्वर्गैश्वर्यं ग्रहीष्यामि ततस्त्रिदशवंदित: ।।1837।।
इति सर्वज्ञदेवस्य कृत्वा पूजामहोत्सवम् ।
स्वीकरोति ततो राज्यं पट्टबंधादिलक्षणम् ।।1838।।
सुरेश द्वारा सर्वप्रथम देवार्चता का निश्चय―सौधर्म इंद्र विचार कर रहा है कि जितने प्रतिबिंब इस स्वर्गलोक में जिनेंद्रदेव के हैं, जो भी जिनेंद्रदेव के प्रतिबिंब इस स्वर्गलोक में समाये हुए हैं, चैत्यवृक्षों में मेरु आदिक बनों में बने हुए हैं उनकी द्रव्य, पुष्प, चंदन, नैवेद्य, गंध, दीपक व अक्षतों से सर्वप्रथम पूजा करके और गीत मूल्य वादित्रों के शब्दों से मनोहारी स्तुतियों के समूहों से उन अरहद बिंबों की पूजा करके फिर मैं स्वर्ग के ऐश्वर्य को ग्रहण करूँगा । किसी को वैभव मिलता है तो धर्म की कुछ बात भी ख्याल में न रखकर सबसे पहिले उस वैभव को ही बटोरने के लिए दौड़ता है । ऐसी स्थितियाँ तो यहाँ भी लोगों की देखी होंगी । जब अधिक वैभव पास में था तब तो मंदिर भी जाते थे, भक्ति, पूजा, समारोह आदि के लिए भी अधिक समय था, पर पुण्य के प्रताप से जब वैभव अधिक बढ़ गया तो ऐसी नौबत आ गयी कि दर्शन करने जाने तक का भी समय नहीं मिल पाता । लोग कहते कि बाबू जी दर्शन करने जाने का तो समय निकाल लिया करो तो क्या कहते कि क्या करें भाई ! तुम्हीं देख लो, कहाँ हमारे पास समय है, यहाँ वहाँ फंसे हैं । तो ठीक है, कर लो स्वच्छंद प्रवृत्तियां, कभी इकट्ठा समय मिल जायगा, फिर चाहे दर्शन कर सको या न कर सको । तो सौधर्म इंद्र यह चिंतन कर रहा है कि मैं पहिले स्वर्गलोक में चैत्य वृक्षो में, मेरु आदिक वनों में जितने भी प्रतिबिंब हैं उनका पूजन वंदन करके फिर मैं स्वर्ग के ऐश्वर्य को ग्रहण करूँगा । जो महापुरुष होते हैं उनमें इतनी महानता होती ही है कि वे वैभव में इतना आसक्त नहीं होते कि धर्म के कार्य को छोड़कर वैभव की लिप्सा रखें । ऐसा विचार करके और उनका पूजन कर के फिर यह सौधर्म इंद्र जो देवों द्वारा वंदित है, स्वर्ग के देवों द्वारा पूजा महोत्सव आदि किया जाने पर वह राज्य को स्वीकार करता है । सबने हाथ जोड़कर निवेदन किया, महाराज आप हमारे अधिपति हैं, हम सब पर कृपा कीजिये, अपना आधिपत्य स्वीकार कीजिये और जो भी नियोग होता हो । जैसे यहाँ लोग सिर पर पगड़ी बाँध देते ऐसे ही वहाँ भी कुछ तो नियोग होता ही है, नियोग कर दिया कि बस इंद्र पद की घोषणा हो गई है, इंद्र है यह । देख लीजिये सब । यह वैभव मिलता है पुण्य के उदय से । पुण्य बनता है धर्मभाव से, अनुराग से । तो फिर यह बतलावो कि वैभव कमाने का उपाय मेहनत है या धर्म का पालन है । खूब युक्तिपूर्वक देख लीजिए । इस कारण तो धर्मपालन है, जिसके प्रसाद से यहाँ का भी वैभव मिलता है और ऐसा रास्ता मिलता कि सदा के लिए संसार के संकट दूर हो जाते हैं ।