वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2017
From जैनकोष
स्याद्वादपविनिघतिभिन्नान्यमतभूधरम् ।
ज्ञानामृतपय:पूरैः पवित्रितजगत्त्रयम् ।।2017।।
प्रभु की देन―प्रभु की दिव्यध्वनि से उत्पन्न उपदेश परंपरा से प्राप्त सबसे बड़ा भारी वैभव क्या हो सकता है? सबसे उत्कृष्ट देन मुझे प्रभु से क्या मिली है? वस्तुतत्व के निर्णय करने का उपाय मिल गया है । वह उपाय है स्याद्वाद । स्याद्वाद का जो सही तरीके से आदर रखेगा उसको किसी का विरोध नहीं जंच सकता । अहो जब बड़े-बड़े एकांत मतों का ब्रह्म ही अद्वैत है, ज्ञान ही एक अद्वैत मात्र तत्व है, केवल विज्ञप्ति मात्र है, जिसमें कुछ आकार नहीं आता, चित्रप्रतिभासस्वरूपमात्र एक अद्वैत है अर्थात् ज्ञान ही ज्ञान तो है दुनिया में, परंतु वह ज्ञान नाना आकारों को लिए हुए है, पदार्थ कुछ नहीं है आदिक अनेक मंतव्य भी जब स्याद्वाद के द्वारा उन्हें समझा सकते हैं, उनको सांतवना दे सकते हैं कि तुम्हारा कहना ठीक है, पर इस दृष्टि से ठीक है । बड़े-बड़े विरोधियों के मंतव्यों को कोई दृष्टि लगाकर उनको शांत कर सकते हैं, सांतवना दे सकते हैं तो फिर हम आप साधर्मी जनों के बीच कदाचित् कोई विचार भेद आये और उसकी समाई हम न कर सकें तो सिवाय दोष के और कौनसी बात कही जा सकती है? स्याद्वाद एक ऐसा उपाय है कि जिस उपाय के द्वारा एकांत मतों को ध्वस्त कर दिया जाता है । देखिये―ध्वस्त करने के दो उपाय हैं―एक एकांत मत का खंडन करते हुए, दूसरे- जो बात एकांतमत का मंडन किए हुए है उसकी दृष्टि लगाकर । इस दृष्टि से ऐसा है और इस दृष्टि से ऐसा है, उसका अगर मंतव्य इस अनेकांतरूप हो गया तो उनका एकांत ध्वस्त हो गया ना, दोनों प्रकार से उसको ध्वस्त समझ लीजिए । तो प्रभु की देन सबसे बड़ी है स्याद्वाद । स्याद्वादरूपी बज्र के द्वारा ऐसे एकांत पर्वतों को जिसने ध्वस्त कर दिया है ऐसे हैं ये प्रभु । उनका ध्यान ज्ञानी पुरुष करते हैं । देखिये किसी के प्रति अधिक रुचि जगती है तो क्यों जगती है? कोई हित की बात मिलती है उसके कारण जगती है । हमें प्रभु से हित की बात एक स्याद्वाद पद्धति मिली है, एक मूल बात मिली है । स्याद्वाद के द्वारा हम वस्तुतत्व का निर्णय करते हैं और वस्तु का विशुद्ध निर्णय करने के बाद उपाय क्या है, हेय क्या है? इसका हम विवेक करते हैं और विवेक के बाद उपादेय को ग्रहण करते हैं और हेय की उपेक्षा करते हैं तब हमें वास्तविक परमार्थ तत्व की प्राप्ति होती है । तो प्रभु की यह उत्कृष्ट देन है स्याद्वाद । ऐसे स्याद्वाद के अनुशासक प्रभु का यह ज्ञानी पुरुष ध्यान कर रहा है ।
पावन प्रभु का ध्यान―कैसे हैं ये प्रभु? जिन्होंने ज्ञानामृत के जलपूर से तीनों लोकों को पवित्र कर दिया है । मूल तो वे सर्वज्ञदेव हैं, जिनकी दिव्यध्वनि के वातावरण में गणेशों ने (गणधरों ने) अपने ज्ञान को निर्मल किया है और उनके फिर उस द्वादशांग ज्ञान से जो प्रवाह चला है, उपदेश परंपरा से अनेक आचार्यों ने अपना हृदय पवित्र किया है और उपदेश पाकर भव्य जीवों ने अपना हृदय पवित्र किया है । तो तीनों लोकों को पवित्र किए जाने के मूल ये सर्वज्ञदेव हैं, ज्ञानरूपी अमृतजल के प्रवाह से समस्त जगत पवित्र हो गया है । महावीराष्टक में कहते हैं―यदीया वाग्गंगा विविधनयकल्लोलविमला, वृहज्ज्ञानांभोभिर्जगति जनतां यः स्न्नपपसि । जिसकी वचनरूपी गंगा, जो नाना नयरूपी कल्लोलों से निर्मल है, जिसकी वाणी में जिसके उपदेश में सभी नयों की दृष्टि से जहाँ निर्णय किया गया है, बताया गया है ऐसी वह वचनरूपी गंगा बड़े ज्ञानरूपी जल के द्वारा इस जगत में जनता को स्नपन कराती है । ‘श्री जिनकी धुनि दीपशिखासम जो नहिं होत प्रकाशनहारी । तो किस भांति पदारथ पांति कहाँ लहते रहते अविचारी ।।’ यदि यह वचनगंगा न होती, प्रभु की यह उपदेशपरंपरा न मिलती तो कैसे पदार्थ का स्वरूप प्राप्त करते?
महादातार के महालाभ से महालाभ लेने का अनुरोध―लोग बहुत बड़े दातार के प्रति नम्रता का व्यवहार रखते हैं, तो इनसे बड़ा दातार कौन मिलेगा जो संसार के संकटों को सदा के लिए नष्ट कर देने की कुंजी दे रहे हैं, बता रहे हैं । जिनका आश्रय करने से जिनकी आज्ञा मानने से हम संसार के संकटों को समाप्त कर सकने में समर्थ हो सकते हैं । उनसे बढ़कर दातार और कौन होगा? जब भगवान ऋषभदेव सभी पुत्रों को, और-और को भी सब राज्य बांटकर उसके बाद विरक्त होकर ध्यान में लीन थे तो नमि बिनमि ये दो संबंधी जब प्रभु के सामने आये और उनको उलाहना देने लगे कि वाह आपने सबको सब कुछ दिया, पर हमें क्या दिया? बहुत-बहुत बातें कहने लगे तो एक देव आता है और कहता है कि चलो हम तुम्हें राज्य देते हैं, तो नमि विनमि कहते हैं कि हमें तुम से कुछ न चाहिए, ये प्रभु जो देंगे सो लेंगे । पर उनके कहने से होता क्या, प्रभु अब क्या दे दें, वे तो अपने दूसरे जन्म में आ गए, द्विज हो गए, वे क्या देंगे, लेकिन उसका उत्तर तो सुनिये―कितनी दृढ़ता का उत्तर था, हम को बहुत बड़े दातार मिले हैं प्रभु । यदि उनकी छत्रछाया में रहकर भ्रांति की दीनता न मिटा पाये तो जीवन बेकार है।
अलौकिक द्विजता का अलौकिक प्रभाव―साधु अवस्था प्राप्त होने पर इसे द्विज कहा करते हैं अर्थात् यह दूसरी बार जन्मा है । जैसे कोई मनुष्य मर जाय और दूसरे जन्म में पहुंचे तो दूसरे जन्म में पहुंचने के बाद इस पहिले जन्म की भी कोई रट लगाता है क्या? इस पहिले जन्म का भी कोई व्यवहार रखता है क्या? इसकी कोई सुध नहीं रखता, राग नहीं रखता । कभी ऐसी भी घटनायें सुनने में आयी हैं कि किसी बालक को जातिस्मरण हो गया और बालक बतला रहा कि यह मेरा घर था, यह मेरी मां थी, यह मेरा बाप था, वे मां बाप जान भी जाते हैं लेकिन जब शरीर बदल गया, जन्म बदल गया तो वह प्रीति जानने के बाद भी नहीं रहती, और फिर जहाँ कुछ जाना नहीं जा रहा, दूसरा जन्म हुआ तो पहिले जन्म का क्या संबंध, क्या राग? तो इसी प्रकार साधु होने से पहिले जो गृहस्थ का जीवन था वह एक जन्म था, अब साधु होने पर वह जन्म मिट गया । जैसे कि कोई मर जाता है तो उसका वह जन्म मिट गया, इसी प्रकार वह जीवन मिट चुका । अब दूसरा जन्म है । तो उस दूसरे जन्म में आया हुआ महापुरुष गृहस्थी की बातों का, रागों का कुछ ध्यान रखता है क्या? उनकी तो कुछ चिंता ही नहीं होती, उनका कुछ ख्याल ही नहीं होता, चाहे वह बड़े गद्दों पर सोने वाला व्यक्ति हो, पर साधु होने के बाद कंकरीली जमीन पर सोता है, फिर भी उसके ध्यान में यह नहीं पहुंचता कि मैं यों-यों था, क्योंकि उसका जन्म ही दूसरा हो गया । पहिले जन्म से अब उसका क्या संबंध रहा? तो ऐसे साधु संत और उनसे महान ये परमात्मा प्रभु ये बहुत बड़े दातार हैं । लोग कहते. हैं कि प्रभु की कृपा से सब सुख मिलेंगे, इसका अर्थ यह लगावो कि उनके किसी संबंध से, उनकी उपदेश परंपरा से जो हमें उपदेश प्राप्त हुआ है हम उनका बड़ा आभार मानते हैं, उनकी कृपा समझते हैं । भले ही उनमें अब दया का भाव उदय में नहीं है, पर गुणानुरागी पुरुष आभार को भूल नहीं सकता । तो ज्ञानरूपी अमृत के दयापूर द्वारा जिसने तीनों लोक को पवित्र किया है ऐसे प्रभु परमात्मा को यह ज्ञानी पुरुष अपने उपयोग में बसाये हुए है ।