वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2053
From जैनकोष
एष देव: स सर्वज्ञ: सोऽहं तद्रूपतां गत: ।
तस्मात्स एव नान्योऽहं विश्वदर्शीति मन्यते ।।2053।।
तद्भावभावना में स्वसंवेदन―जिस समय वह अपने को सर्वज्ञ स्वरूप में देखता है उस समय ऐसा मालूम होता है कि यही सर्वज्ञदेव है । ऐसे उस प्रभु के स्वरूप के निकट वहीं का वहीं तद्रूप को प्राप्त होता है । इस कारण वही सर्व का देखने वाला मैं हूँ अन्य नहीं हूँ, इस प्रकार अपने आप में इस उत्कर्षता को निरखता है । मानते तो सभी लोग हैं अपने को कुछ न कुछ । अपने को लटोरा घसीटा जैसा मानने में तो कुछ उत्कर्ष न मिलेगा अर्थात् मैं अमुक परिवार का हूँ, इतने बच्चों वाला हूँ, अमुक पोजीशन का हूँ, अमुक जाति कुल का हूँ, इत्यादिक रूप अपने को निरखने से अपना उत्कर्ष न मिलेगा । इससे ये मुनिराज अपने को सर्वज्ञ के गुणानुराग में इतना लीन कर रहे हैं, अपने आपको यों ही अनुभव कर रहे हैं कि यह वही सर्वज्ञ है, यह वही मैं हूँ, इस प्रकार अपने आप में विश्वदर्शी रूप से तत्त्व को निरख रहे हैं । रूपस्थध्यान में प्रभुभक्ति की बहुतसी बातें कहकर अब उस योगी की महिमा की बात कह रहे हैं । जो ध्यान करता है वह भी तो महान् है । उसकी महिमा कैसी होती है? प्रभु की महिमा बताने के बाद अब यह भक्त की महिमा बताई गई है ।