वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2052
From जैनकोष
यदाभ्यासवशात्तस्य तन्मयत्वं प्रजायते ।
तदात्मानमसौ ज्ञानी सर्वज्ञीभूतमीक्षते ।।2052।।
तद्भावभावनाभ्यास का माहात्म्य―जब अभ्यास के वश से उस सर्वज्ञ स्वरूप से तन्मयता हो जाती है उस समय मुनि अपने असर्वज्ञ आत्मा को सर्वज्ञ स्वरूप में देखता है । यह सब अपने को शुद्ध भावों से भावित करने का माहात्म्य है । जब कभी बच्चे लोग घोड़ा-घोड़ा का खेल खेल खेलते हैं, घुटनों के बल चलकर एक दूसरे बालक से सिर में सिर लड़ाते हैं, उस समय वे अपने को घोड़ा अनुभव करते हैं । बाद में होता क्या है कि उन बालकों में परस्पर में हाथापाई हो जाती है और रोते हुए अपने-अपने घर भाग जाते हैं । तो उस समय वे बालक अपने को घोड़ारूप अनुभव कर रहे थे, न कि बालकरूप । सुना है कि कोई अमरसिंह राठौर का नाटक हो रहा था । उसमें जो अमरसिंह का पार्ट कर रहा था उसने अपने को वास्तविक अमरसिंह अनुभव कर लिया, उसे यह ध्यान में न रहा कि मैं तो अमुक व्यक्ति हूँ, यहाँ नाटक कर रहा हूँ । उसके हाथ में थी सच की तलवार । सो उसने क्या किया कि अपने विरोधी का सिर उसी तलवार से उतार दिया । तो वहाँ भी क्या था? उसने अपने की उसी रूप में भावित किया था । तो तद्रूप भाविकता की बात कह रहे हैं, जैसा भावित बनाओ, परिणति तदनुरूप हो जाती है । वह भक्त यद्यपि उस समय सराग है तथापि उस वीतराग प्रभु के स्वरूप में एक चित्त होकर तन्मय हो जाने के कारण अपने को उस समय प्रभुस्वरूप रूप में निरखता है । सो वह किस प्रकार निरखता है, सो कहते हैं―