वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2110
From जैनकोष
संभवंत्यथ कल्पेषु तेष्वचिंत्यविभूतिदम् ।
प्राप्नुवंति परं सौख्यं सुरा: स्त्रीभोगलांछितम् ।।2110।।
धर्मध्यान के फल में कल्पवासियों में जन्म―धर्मध्यान से मनुष्य अपनी पर्याय को छोड़कर सोलह स्वर्गों में भी उत्पन्न होते हैं, तो वे देव भी अचिंत्य विभूति के देने वाले और स्त्रीभोगसहित उत्कृष्ट सुखों को प्राप्त होते हैं । जो यहाँ के समागमों में कल्पित सुख माना जा रहा है उन सुखों की यदि उपेक्षा कर दी जाय, उनमें लालसा न रखी जाय तो इस प्रकार के पुण्य का बंध होता है कि ऐसे दिव्य सुख स्वत: ही प्राप्त होते हैं । यहाँ के भी सुख चाहना है तो इसके लिए आवश्यक है कि विषयों की प्रीति छोड़ दी जाय । देखो जब विषयों से प्राप्त होने वाला आनंद भी विषयों का त्याग किए बिना नहीं मिलता तो संसार संकटों से सदा के लिए छुटकारा पाकर जो उत्तम आनंद प्राप्त होने को होता है वह कैसे प्राप्त हो सकता है?
विषयपरित्याग किए बिना विषयसेवन की आसक्ति―यहाँ सुख हैं 6 प्रकार के । स्पर्शनइंद्रिय का सुख―विषयभोग, रसनाइंद्रिय का सुख―रसीले पदार्थो का स्वाद, घ्राण इंद्रिय का सुख―सुगंधित पदार्थों का सेवन, चक्षुरिंद्रिय का सुख―सुंदर रूपों का अवलोकन, और कर्णइंद्रिय का सुख―सुंदर रागरागनी के शब्द सुनना, और मन इंद्रिय का सुख―कोई विशिष्ट ख्याति की बात चाहना आदिक हैं । स्पर्शन इंद्रियजंय सुख वही पुरुष भोगने लायक रहता है जो स्पर्शनइंद्रिय के सुख का त्याग करता है । जो बहुत अधिक स्पर्शन इंद्रियजंय सुखों में रत होता है, विषयसेवन करता है, ब्रह्मचर्य का घात करता है वह स्पर्शन इंद्रियजंय सुखों को भली भांति भोग नहीं सकता । इसी प्रकार रसनाइंद्रियजंय सुख में भी यही बात है । खाने का आनंद तब आता है जब पहिले कई घंटे से खाना छोड़ दिया गया हो । खूब पेट भरा हो फिर भी खाते रहें तो उस खाने में खाने का वह सुख नहीं मिलता । बहुत से लोग तो इसी बात पर हैरान हो जाते हैं कि पत्तल में तो बहुतसी मिठाइयाँ परोस दी गई हैं, पूड़ी साग भी परोस दिया है अब इनमें से पहिले क्या खायें कुछ लोग तो ऐसा सोच लेते होंगे कि लावो पहिले पूड़ी साग खा ले, बाद में मौज से इन पेठा बर्फियों का स्वाद लेते रहेंगे, और कुछ लोग यह सोच लेते होंगे कि लावो पहिले पेठा बर्फी आदि मिठाइयों पर हाथ मारें? पीछे पूड़ी साग खा लेंगे । देखो, भोग के समय भी कितना क्षोभ रहता है? रसनाइंद्रियजंय सुख भी तब मिलता है जब पहिले से कई घंटों से त्याग किया हो । एक निश्चित निर्णय यह है कि भोजन का परित्याग किए बिना? भोजन का आनंद नहीं मिल सकता' । खूब खावो, भली प्रकार खाते रहो तो एकदम 10-20 दिन को यह सारा खाना छूट जायगा, केवल मूँग की दाल पर ही वैद्य निर्भर करा देगा । तो रसनाइंद्रियजंय सुख भी रसनाइंद्रिय के विषयों का त्याग किए बिना नहीं लुटा जा सकता ।
गंधरूप शब्द विषय के भी परित्याग बिना उनके सेवन की अक्षमता―घ्राणइंद्रियजंय सुख भी बिना उसका कुछ त्याग किए लुटा नहीं जा सकता । कोई बहुत-बहुत गंध का उपयोग करता रहे, इत्र फुलेल आदि की बहुत-बहुत गंध कोई लेता रहे तो उसे उसका सुख नहीं मिल पाता है, उसकी गंध से थोड़ी ही देर में जी घबड़ा जायगा । तो घ्राणइंद्रियजंय सुख भी बिना कुछ उसका त्याग किए नहीं जुटा जा सकता है । इसी तरह चक्षुरिंद्रिय की बात है ।जो रूप बहुत सुहावना लग रहा है, उसी चाम को कोई बहुत-बहुत देखता रहे तो देखते-देखते मन थक जायगा, आंखें थक जायगी, और देखते रहने में वह सुख न मिल पायगा । उसका कुछ त्याग करे तो उस चक्षुरिंद्रियजंय सुख को लूटा जा सकता है । इसी प्रकार की बात कर्णेंद्रिय सुख की है । कोई बहुत बढ़िया रागरागनी के गाने हो रहे हों, रातभर होते रहें तो लोग कह भी बैठते हैं कि अब बंद करो । अरे जब बड़ी सुख वाली वह चीज है तो बंद क्यों करवाते हो? तो त्यागपूर्वक ये इंद्रिय के सुख भोगे जा सकते हैं । यही मन की परिस्थिति है । जो उस ही ध्यान में लगा रहता है फिर उसकी मौज नहीं रहती । तो जब संसार के सुख भी विषयों का कुछ परित्याग किए बिना प्राप्त नहीं हो सकते, भोगे नहीं जा सकते तो समझ लीजिए कि त्याग की कितनी महत्ता है?
निष्कलंक अंतस्तत्व के अवधारण का अनुरोध―भैया ! एक ही तान में अपने आपको अपने में समा दे, ऐसा भाव व ऐसा ही यत्न करें । यहाँ का समागम प्रकट भिन्न व असार है ।आज यदि हम मनुष्य न होते, कहीं कीड़े मकोड़े होते, तो मेरे लिए यह दुनिया क्या थी, जिनकी शकल को निरखकर ये इंद्रिय और मन के व्यवहार हो रहे हैं । अगर गर्भ में ही मर गया होता, या जन्मते ही मर गया होता या बचपन में ही मर गया होता तो मेरे लिए यह घर, ये दुनिया के लोग क्या थे, जिनको निरखकर ये इंद्रिय और मन बेकाबू हो रहे हैं । हे आत्मन् ! किसी भी समय जिस ढंग से भी बने―सोच लो, बाह्य से विरक्त और स्वरूप में अनुरक्त होना योग्य है । सीधा ढंग तो एक ही है अपने आपके शुद्ध कार्य परमात्मस्वरूप की दृष्टि रखना, इस व्यवसाय से सहज तत्त्वरमण बनता जाता है । चीज एक ही है उपादेय । एक रंगरेज था, उसके पास बहुत से लोग भिन्न-भिन्न प्रकार के रंगों में पगड़ी रंगाने के लिए आया करते थे । सो वह रखा तो लेता था सभी पगड़ियाँ और कह भी देता था कि हाँ रंग देंगे, पर उस रंगरेज को केवल एक ही रंग प्यारा था―आसमानी । कलाकार लोग तो अपने घर के राजा हुआ करते हैं, जो उन्हें पसंद होता है वह करते हैं । तो सारी पगड़ियाँ रखा लेने के बाद वह रंगरेज कह देता था कि देखो―पगड़ी चाहे किसी रंग में रंगावो, पर खिलेगा केवल आसमानी रंग । दूसरा कोई भी रंग न खिलेगा । तो यों ही सुख के उपायों में, धर्म के प्रसंग में कुछ भी तत्व बना लें, पर शुद्ध विकास की परमशांति की सुगम, कुंजी तो केवल एक ही है जिसके किए बिना किसी ने निर्वाण नहीं प्राप्त किया, और वह है बिना संपर्क के, बिना उपाधि के, बिना रागद्वेष के स्वयं अपने आप में बसा हुआ अपने ही स्वरूप के कारण जो परमपारिणामिक भाव शुद्ध स्वभाव ज्ञानज्योति है, उस सहज भाव का शरण ले, उसकी दृष्टि में चलें, उसको ही अपना सर्वस्व समर्पितकरना यह ही मात्र एक सुगम उपाय है । धर्मध्यानी पुरुष इस ही पर तो रहता है, उसे किसी भी चीज की वांछा नहीं है ।