वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2177
From जैनकोष
सिद्धात्मा सुप्रसिद्धात्मा निष्पन्नात्मा निरंजन: ।
निष्क्रियो निष्कल: शुद्धो निर्विकल्पोऽतिनिर्मल: ।।2177।।
प्रभु का सिद्धात्मत्व―ये प्रभु अब सिद्धात्मा हो गए । जिनका आत्मा सिद्ध हो गया, पक गया, विकसित हो गया, परिपूर्ण अवस्था को प्राप्त हो गया, अथवा समस्त दुर्गतियों से निकलकर उत्तम स्थान में पहुंच जाने को सिद्ध होना कहते हैं । ये प्रभु योगी जनो के उपयोग में सुपसिद्ध हैं, निष्पन्न आत्मा हैं, जो यथार्थतया होना चाहिए वह निष्पत्ति अब हुई है, जो था वैसा हो गया । मोहीजन ऐसा कह सकते हैं कि हे प्रभो ! तुम्हारी क्या बढ़ाई? तुम क्या हो, जो थे सो ही रह गए । तुम तो उतने ही हो ना, और देखो हम लोगों में कैसी शक्ति हैकि चौरासी लाख योनियों में घूमते फिरते हैं, एकेंद्रिय से लेकर पंचेंद्रिय तक के नाना शरीरों में रहते हैं, अनेक प्रकार की लीलाएँ करते हैं, पर भाई यह तो सारा दु:खजाल है, एक अपने आपके उस निरपेक्ष सहजस्वरूप को जाने बिना ये सारी विडंबनायें बन गईं । निष्पन्न आत्मा तो वह प्रभु है जिसके अब कुछ भी नहीं बनना है । जो उच्च से उच्च बात आत्मा की हो सकती है वह वहाँ प्रकट हुई है ।
प्रभु का निरंजनत्व―वे प्रभु निरंजन हैं, अंजनरहित हैं । अब न उनमें कोई कर्म है, न कोई रागद्वेषादिक भाव हैं, न शरीर है । सब अंजनों से रहित निरंजन हो गए । लोग अपना नाम रखते हैं तो प्राय: भगवान के नाम पर या आत्मविकास के नाम पर रखते हैं । लोक में उसका महत्व कूतते तो हैं पर अपने आप में अच्छा नाम कहलवा लेना यहाँ तक ही वे उस महत्व को समाप्त कर देते हैं । जिन नामों में इतनी रुचि हुई है उन नामों के अनुरूप जिनका विकास हुआ है उनका आदर्श समझना चाहिए, जिसके अनुसार हम अपना उत्कर्ष कर सके । ये प्रभु निष्क्रिय हैं । अब उनको कुछ करने को नहीं रहा, कृतार्थ हैं, वास्तविक सुख भी वास्तव में तभी है जब यह भाव बना हो कि मेरे करने को तो अब कुछ भी नहीं रहा । इच्छा हुई कि चलो मंदिर चले तो इस इच्छा के साथ ही है ना कुछ क्लेश? मंदिर जाना है, मंदिर जानें का काम पड़ा है ऐसा भाव बना है जिससे वहाँ क्लेश है । यह बात एक ऊँचे दृष्टांत के रूप में कही । बात यह है कि शांति अथवा सुख की प्राप्ति तभी होती है जब यह भाव बने कि मेरे करने को अब यह काम नहीं रहा । जिन लोगों को भी इन रात दिन के चौबीस घंटों के अंदर जो कुछ शांति व सुख की प्राप्ति हो रही है वह इसी भाव से कि अब मेरे करने को कुछ रहा नहीं, पर इस पर दृष्टि नहीं है किसी की, दृष्टि तो इस बात पर जाती है कि मुझे ये-ये चीजें प्राप्त हुईं, इससे सुख मिला । तो वे प्रभु कृतार्थ हैं, निष्क्रिय हैं ।
प्रभु की परम शुद्धता―प्रभु शरीररहित हैं, शुद्ध हैं, निर्विकल्प हैं और अत्यंत निर्मल हैं । जो बात जिस विधि से होती है वह उस ही विधि से प्राप्त की जा सकती है―चाहे तो किसी अभीष्ट पदार्थ को, पर उसमें अपना पुरुषार्थ न लगायें तो प्राप्ति नहीं होती । एक बालक बोला―माँ मुझे तैरना सिखा दो । ....अच्छा बेटा सिखा देंगी । ....माँ तैराना सिखा तो देना पर मुझे पानी में पैर न रखना पड़े और मुझे तैरना आ जाये। ...अरे भाई यह बात तो हो ही नहीं सकती । तैरना सीखने के लिए पानी में पैर धरने की तो बात क्या, पानी में एक दो बार डूबने जैसी भी स्थिति आयगी, तब तैरना सीख पायेगा । ऐसे ही लोग सोचते हैं कि काम तो हमारा अच्छा बन जाय, धर्म का पालन हो जाय, कर्म कट जायें, सद्गति मिले, मुक्ति हो जाय, पर उसकी जो विधि है, जो कार्य करने आवश्यक हैं इस परमपद की प्राप्ति के लिए उन कार्यों के करने के क्या समाचार हैं उन्हें भी तो जानें । बहुत अधिक न जानो तो एक बात पकड़ लीजिए कि मैं क्या हूं? जगह-जगह पूछ करके, चर्चा करके, विचार करके, ध्यान करके यह निर्णय बना लीजिए कि मैं क्या हूं?
स्वपरिचय बिना कल्पित दुःसह क्लेश का अनुभवन―उस मैं को ही तो भूल गए लौकिक प्राणी, इसलिए दु:खी हो रहे हैं, रो रहे हैं । एक कोई लड़का था उसका नाम था रुलिया । उसकी माँ ने एक दिन साग भाजी लेने के लिए बाजार जाने को कहा । वह लड़का बोला―माँ मुझे न भेजो बाजार, कहीं मैं रुल न जाऊँ । तो उस मां ने क्या किया कि उसके हाथ में एक धागा बाँध दिया और कहा―जावो बेटा, अब तुम न रुलोगे । आखिर हुआ क्या, कि वह धागा बाजार में भीड़भाड़ में टूट गया, वह रोने लगा । रोते-रोते घर लौट आया और कहने लगा―देखो माँ मैं कहता था ना, कि मुझे बाजार न भेजो साग भाजी लेने, कहीं मैं रुल न जाऊँ । तो वही हुआ ना । तो उस मां ने कहा―बेटा तू हैरान मत हो, कुछ देर के लिए सो जा, तेरा रुलना मिट जायगा । जब वह सो गया तो उसके हाथ में एक धागा बाँध दिया । जब वह सोकर जगा तो मां ने पूछा―देख बेटा अब तू मिल गया ना?.. .हाँ मिल गया । तो ऐसे ही समझो, ये सब खुद-खुद को भूले हैं, बस इसी से दुःख है । दुःख की यहाँ और कोई बात नहीं । अपना लक्षण पहिचानो―मैं क्या हूँ, यह निर्णय करो और इस पर ही डट जावो―कि मैं यह हूँ । उसको ही निरखते रहो चाव से, और कुछ भी नहीं देखना है । यहाँ किसे देखना, किसको क्या दिखाना, कौन क्या करेगा, यों धुन से आत्मदर्शन करें तो यह सब मोक्षपथ मिलेगा ।