वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2178
From जैनकोष
आविर्भूतयथाख्यातचरणोऽनंतवीर्यवान् ।
पराशुद्धिं परिप्राप्तो द्रष्टेर्बोधस्य चात्मन: ।।2178।।
आत्मा के यथार्थ परिज्ञान से उत्कर्षता की प्राप्ति―कर्मों का यथायोग्य क्षयोपशम पाकर ज्ञानी संतो के उपदेश से अपने चित्त को धर्म की ओर अग्रसर कर के विशुद्ध परिणामो के उत्तरोत्तर निर्मलता के बल से उच्च परिणामों के द्वारा जब मिथ्यात्व कर्म का विश्लेष कर दिया जाता है, सम्यक्त्व उत्पन्न होता है तब इस जीव को विदित होता है कि अहो, मैं तो यह स्वयं आनंद की निधि हूँ । यहाँ के तो सभी पदार्थ परिपूर्ण हैं, मेरे में भी कुछ अधूरापन नहीं है । मुझे क्या बनना है, जो हूँ सो सब बना हुआ हूँ । इस तत्वज्ञान के बल से जिसने सहज आनंद प्राप्त किया है, निज प्रभुता के दर्शन किए हैं ऐसा महाभाग महात्मा चारित्र के बल से परम निर्ग्रंथ आत्मस्वरूप का अनुभव कर के श्रेणियों में चढ़कर प्रथम शुक्लध्यान के अनुभव से मोहनीय कर्म का क्षयकरता है और द्वितीय शुक्लध्यान के बल से शेष अघातिया कर्मों का विनाश करता है और फिर योगों का निरोध कर के अयोगकेवली होकर एक साथ चार घातिया कर्मों का विनाश कर के सिद्ध होता हे ।
जीव की चिरंतन अवस्थायें―इस जीव की चिरकाल तक रहने वाली दो अवस्थायें हैं―एक तो निगोद की दशा और 1 सिद्ध अवस्था । इस जीव को निगोद अवस्था में अनंतकाल तक रहना पड़ा था । अब सिद्ध अवस्था पायेंगे तो वह अनंतकाल तक रहेंगे । वे अयोगकेवली प्रभु अब हिलते-डुलते नहीं, योगी नहीं । सिद्ध भगवान भी योगरहित होते हैं उन्हीं जैसी निष्कंपता पाई है देखिये―कैसा तो ज्ञानपुंज स्वरूप आत्मा, उसका क्या संबंध कि वह हिले डुले । ज्ञानपुंज अपने आपके अंदर ही रहकर जल बिंदुवों की तरह चक्कर लगाया करे इसका क्या अवकाश था, कैसा विकार हुआ, कैसा विभाव हुआ कि संसार अवस्था में इस आत्मा के, चाहे शरीर निश्चल भी बैठा हो तब भी भीतर ही भीतर प्रदेश परिस्पंद रूप हुआ करते हैं, किंतु अब आधार शरीर से विविक्तता हो रही, अतएव उनके प्रदेश परम निष्क्रिय हो गए । सिद्ध भगवान शरीररहित हैं । परमात्मा दो अकार के कहे गए हैं-एक सकलपरमात्मा, दूसरा निकलपरमात्मा । कल मायने शरीर । शरीरसहित परमात्मा को सकलपरमात्मा कहते हैं । यह अवस्था तेरहवें और 14वे गुणस्थान में है । शरीर है और वीतराग भगवान भी हैं । अब अयोगकेवली के अंत समय में शरीर का व अवशिष्ट कर्मो का एक साथ वियोग होता है । तो अब ये सिद्ध भगवान कायरहित हो गए । ये प्रभु शुद्ध हैं, सर्वथा शुद्ध हैं । न द्रव्यकर्म का संबंध है न भावकर्म का, न रागादिक विकारों का, न शरीर का । इन सबका अब त्रिकाल भी संबंध न होगा । ऐसे ये प्रभु निष्कल हैं ।
विकल्प हटते ही प्रभुता की स्वयंभुता―अंतरंग में निरखते जाइये-जो सिद्ध प्रभु में बात है वह सब अपने स्वरूप में बात है, उनका विकास है और यहाँ शक्तिरूप में है, अंतर यही हो गया कि उनके समस्त गुणों का विशुद्ध स्वाभाविक विकास है और यहाँ आवरण पड़ा हुआ है, यहाँ विषय कषायों के विकार चल रहे हैं और अविकसितता हैं, पर होता क्या है वहाँ, जो है यहाँ, वही केवल रह जाता है । केवल हटने ही हटने का काम है, जुड़ने का कोई काम नहीं । प्रभुता पाने के लिए केवल हटाने-हटाने की बात है, जो लगा हुआ रहेगा वह तो लगा ही है । कर्म विभाव विकार ये सब हटें तो जो तत्व है, जो परमार्थ है वह प्रकट हो जाता है । इसी के मायने हैं प्रभु हो गए, सिद्ध हो गए । वे प्रभु शुद्ध हैं, निर्विकल्प हैं, किसी भी प्रकार का विकल्प नहीं है । विकल्प तो बडे-बड़े योगीश्वरों की साधना को रोक देते हैं ।पाँचों पांडव जब तपश्चरण कर रहे थे और उनके दुश्मनों ने बहुत गर्म लोहे के आभूषण उनके शरीर के अंगों में पहिनये थे । उस भयानक उपद्रव को देखकर नकुल और सहदेव दो भाइयों को यह विकल्प हुआ कि देखो ये पवित्र निर्दोष धर्मात्मा तीन बंधु किस तरह से दुःसह उपसर्ग सह रहे हैं, लो इतने से विकल्प के कारण उन दोनों का मोक्ष रुक गया ।
प्रभुता की प्राप्ति में विकल्प की बाधकता―बाहुबलि स्वामी निराहार एक वर्ष तक एक आसन से तपश्चरण करते रहे, उनके बल की महिमा क्या बतायी जाय, पर उन्हें तब तक केवलज्ञान नहीं हुआ, तब तक प्रभुता नहीं मिली जब तक उनको यह विकल्प रहा कि अरे मेरे कारण मेरे भाई का अपमान हो गया । जब उनको. यह विकल्प था तब भरतेश्वर वहाँ गए और नमस्कार किया, उनकी सानुराग प्रसन्नता को देखकर उनका विकल्प हटा और केवलज्ञान प्राप्त हुआ । तो यह थोड़ासा भी विकल्प एक बहुत बुरी चीज है । यदि कोई तौलने की चीज होती विकल्प तो आप से जब हम यह पूछते कि कितने विकल्प हैं आपमें, तो शायद आप क्विन्टल से नीचे न कहते । पर वह विकल्प कोई तौलने की चीज नहीं । ऐसे विकल्पों में रहकर हम आप कैसे सुगति प्राप्त कर सकेंगे? अरे इतना तो सोच लें कि जब कुछ रहना ही नहीं है अपने पास, आखिर वियोग होगा ही, हम सब कुछ छोड़कर जायेंगे, चाहे यहाँ रहते हुए में छूट जायें, चाहे मरण होने पर छूट जाये, पर छूटना तो है ही । तो जो बात छूटनी है उसकी हम आसक्ति न रखें और जो कल्याण की बात है तत्वज्ञान, कुछ ध्यान का आश्रय चारित्र में अपने को बढ़ाना―इन सब बातों की ओर कुछ ध्यान दे तो भला भी हो जाय ।
अयोगकेवली भगवान की परम यथाख्यातरूपता―ये अयोगकेवली भगवान निर्विकल्प शांत निर्मल हैं, जन्ममरण दूर हो गए । जिनके यथाख्यात चारित्र प्रकट हुआ, हुआ था, अब वे ऐसे परम यथाख्यात हैं, ऐसा विशुद्ध स्वाभाविक उनका परिणमन है कि यथाख्यात चारित्र में उनकी उत्कृष्ट स्वाभाविक परिणति है जहाँ योग भी नहीं है । यद्यपि क्या बता सकें कि यथाख्यात चारित्र में विशेष अधिक शुद्धता क्या है, किंतु जहाँ चारित्र का व्यवहार है, जहाँ तक उसका कथन चलता है चरणानुयोग की ही चरण विधि से तो वह अतीत है । अब वे प्रभु असंयम, संयम, संयमासंयम―इन तीनों से रहित होने वाले हैं । शब्दों से यों लगावो कि जैसा आत्मा का स्वरूप है वैसा ही प्रसिद्ध हो गया, ख्यात हो गया, ऐसा चारित्र, ऐसा चरण, ऐसी स्थिति उन प्रभु की है । वे अनंत वीर्यवान हैं । प्रभु में क्या अनंत शक्ति है? प्रभु में जो अनंतगुण प्रकट हुए हैं वे अनंत गुण बराबर आत्मा में अनंतकाल तक बने रहें ऐसी बात उनमें चल रही है । वह उनकी उस अनंत शक्ति का ही प्रताप है । यों वे प्रभु अनंत शक्तिमान हैं ।