वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 232
From जैनकोष
नरत्वं यद्गुणोपेतं देशजात्यादिलक्षितम्।
प्राणिन: प्राप्नुवंत्यत्र तन्मन्ये कर्मलाघवान्।।232।।
देशजात्यादि गुणसंपन्न नरत्व की प्राप्ति की दुर्लभता―यह जीव नाना योनियों से निकलकर मनुष्य भी बना तो मनुष्य बनना कठिन है। आप देखते हैं कितने ही बालक कितने ही मनुष्य ऐसे नजर आते हैं जिनका दिमाग काम न करें, जो बोल नहीं सकते, गूंगे हैं, बेकार हैं, जिनके बारे में माता पिता को भी चिंता हो जाती है कि यह खायेगा कैसे, इसमें तो कुछ भी योग्यता नहीं। ऐसे मनुष्य हो गए तो ये अब क्या करेंगे, वहाँ हित की साधना कैसे बनेगी? तो मनुष्य भी बन गए और अत्यंत मूर्ख हुए, दिमाग शक्ति भी नहीं रही ऐसा मनुष्य हुआ तो भी इस जीव को क्या लाभ मिला? मनुष्य बने और उसमें भी गुणी बने तो यह बहुत दुर्लभ बात है। अपने बारे में सोच लो हम आप सब गुणसंपन्न है, बात समझते हैं, हृदय की बात अच्छी तरह बता सकते हैं, वस्तु के स्वरूप की चर्चा भी कर सकते हैं, यह सही है, यह गलत है, यह भी निर्णय कर सकते हैं। और क्या चाहिए? रही संसार की सुख की बात। प्रथम तो संसार में कहीं सुख है नहीं, जितने भी मनुष्य हैं चाहे किसी भी स्थिति में आ गए हों, यदि ज्ञान नहीं है, आत्मा स्वरूप की सुध नहीं है तो कुछ न कुछ अटपट कल्पनाएँ करके दु:खी हो जायेंगे। एक भी मनुष्य ऐसा बताओ जो आत्मस्वरूप के अनुभव से शून्य हो, और फिर सुखी नजर आता हो। बड़े से बड़े लोक में माने जाते हैं राज्याधिकारी या धनिक लोग या किसी कारण से यशवान हुए हों, किन्हीं को भी देख लो कोई सुखी और संतोषी नजर न आयगा।
सांसारिक सुखों की उपेक्षा में ही सुख―तो संसार के सुखों से तो विरक्त रहना और इन सुखों की उपेक्षा करना इसमें ही हित है। अब शांति जैसे मिले वैसा उद्यम करने आप चलें तो वह उद्यम अंतरंग का है, ज्ञान से संबंधित है। कल्पना करो कि बड़ी दयनीय स्थिति है, किसी की किंतु ज्ञान सजग है यह तो अकिंचन है, इसका कुछ भी तो नहीं है, देह तक भी न्यारा है, जब अपने को अकिंचन मान लें, गुजारा तो सबका होता ही है, कीड़ा मकौड़ा तक का भी गुजारा हो जाता है, येन केन प्रकारेण इस मनुष्य का भी गुजारा चलता है, अब तो यह अपने ज्ञान को सजग रखे, अपनी सुध लेता रहे, सबकी उपेक्षा करे तो इसे दु:ख कहा रहा? जो लोग जितना आंतरिक परिचित समागम बनाते हैं, लोगों में स्नेह बढ़ाते हैं जो अपना यश रखना चाहते हैं अपनी प्रशंसा सुनना चाहते हैं तो ऐसे जन कभी निराकुल हो ही नहीं सकते। निराकुल होने का पात्र वह है जिसमें इतनी हिम्मत है कि सारा जहान यदि मेरे प्रतिकूल रहे, अथवा मुझे कुछ जाने ही नहीं इतने पर भी मेरा कुछ बिगाड़ होता नहीं है। मेरा बिगाड़ मेरा ज्ञान बिगड़े तो होता है, दूसरों की चेष्टा से मेरा कुछ बिगाड़ नहीं होता है। किसी दूसरे की चेष्टा से मेरा कुछ सुधार भी नहीं है।
उत्तम कूल देशादि प्राप्ति की अति दुर्लभता―सब जिम्मेदारी अपनी आपकी है। अपने आपको संभाल लेवे अथवा अपने आपको बिगाड़ लेवे। तो मनुष्य हो और गुणसंपन्न रहे यह बहुत कठिन बात है। मनुष्य भी हो गया और कुछ सोचने समझने का गुण भी आ गया इतने पर भी यदि उत्तम देश में न उत्पन्न हुए तो भी बहुत सी कमी रह गयी। जैसे कोर्इ देश ऐसे हैं समुद्री किनारे पहाड़, गुफावों के कि जहाँ धर्म का कुछ वातावरण नहीं है। आध्यात्मिक कुछ बात सुन सके, रख सके, कुछ चर्चा में आये इतना भी कहीं वातावरण नहीं है, जहाँ केवल मद्य मांस का ही सेवन होता है, उससे जीवन चलता है ऐसे जघन्य देश में उत्पन्न हो गया, आखिर क्षयोपशम अच्छा मिला है पर उत्तम देश न मिले तो अशुद्ध वातावरण में रहकर मनुष्य अपना जीवन यों ही खो देगा। तो उत्तम देश मिलना यह भी दुर्लभ है, उत्तम देश भी मिल गया और नीच जाति में उत्पन्न हो गए जहाँ सदाचार की परंपरा ही नहीं, ऐसे जघन्य कुल में उत्पन्न हो गए जहाँ अभक्ष्य त्याग की परंपरा ही नहीं तो वहाँ भी अपना क्या उद्धार कर सकेंगे? तो मनुष्य बनकर गुणी बनना, उत्तम देश में उत्पन्न होना, उत्तम जाति कुल में उत्पन्न होना, यह उत्तरोत्तर दुर्लभ है।
पर की ममता उत्कर्ष में बाधक―जब इस प्राणी का कर्म लघु होता है, शुभ कर्म का उदय होता है, पाप कर्म का अभाव होता है तो ये बातें प्राप्त होती हैं। इन बातों को सुनकर हम यदि बाहर ही बाहर दृष्टि रखें, यह लोक है, ऐसा है आदि तो बाहरी दृष्टि रखने से अपने आपको कुछ प्रेरणा न मिलेगी। अपने आपमें घटित करके निरखना है। हम भी कभी निगोद में थे और ऐसे-ऐसे निकले और निकलकर आज कितनी अच्छी स्थिति में आये। अब तक जो दुर्लभ बातें कही है उनको पार करके यह स्थिति मिली है कि हम मनुष्य हैं, गुण संपन्न हैं, तो कुछ दिमाग भी सही है, उत्तम देश में उत्पन्न हुए, उत्तम जाति में उत्तम कुल में उत्पन्न हुए। इतनी दुर्लभ स्थिति हम आपने प्राप्त कर ली, अब क्या करना है सो बताओ? केवल एक मोही जीवों की तरह मोही जीवों को बताने के लिए मोही जीवों में ही रहकर एक मोह भरी बात ही करते रहें और उसको ही अपने आपमें घटाते रहें तो इस जीवन से कोई उद्धार नहीं है।
संज्ञा की अपेक्षा नर पशु से भी अधिक―इसी को ही पशुजीवन कहते हैं। ये सब काम तो पशु भी करते आये। पशु भी आहार लेते हैं, मनुष्य भी आहार लेते हैं। बल्कि पशु का पेट भर जाय तो बढ़िया घास रखी हो तो उस ओर निगाह भी नहीं करते, किंतु मनुष्य का पेट भरा हो, गले तले भी न उतरे तो भी कम से कम स्वाद मिल जाय इसलिए कुछ न कुछ खा लेते हैं। तो आहार में भी यह मनुष्य धैर्य नहीं रख रहा है। बल्कि पशुओं का धैर्य है? पशु भी नींद लेते हैं। मनुष्य भी नींद लेते हैं पता नहीं पशुओं को भी मनुष्य जैसा स्वप्न आता है या नहीं नींद में, पर यह तो स्पष्ट है कि पशुओं की नींद बहुत जल्दी खुल जाती है, और सोते हुए पशुओं को आपने देखा भी कम होगा। जरा सी आहट पाकर वे जग जाते हैं। श्वान निद्रा तो बहुत प्रसिद्ध है, किंतु मनुष्य की नींद देख लो, इसके जगने के लिए बहुत तेज आवाज देने वाली अलार्म घड़ी रखनी पड़ती है। इतने पर भी नखरा रखते हैं और कहते हैं कि 10 बज गए और पता नहीं पडा और कितने ही लोग तो ऐसा जबरदस्त सोने वाले होते हैं कि उन्हें जगाने के लिए बहुत-बहुत झकोरना पड़ता है। निद्रा में भी मनुष्य पशुओं से गये बीते हैं। डर की बात देखो तो पशु तभी डरेंगे जब उनके ऊपर कोई डंडा लेकर आये और मनुष्य कड़े कोमल गद्दा कुर्सियों पर बैठा है, पास में रेडियो पंखा भी लगे हैं मगर भय बड़ा तेज बना हुआ है। न जाने देश की क्या हालत होगी, न जाने कैसे-कैसे कानून बनेंगे, बड़ा विकट भय बना रहता है। तो भय भी पशुओं की अपेक्षा मनुष्यों में ज्यादा है। काम सेवन की बात देखो, प्राय: सभी लोग कहते हैं कि मनुष्य बारहों महीना काम सेवन में रहते हैं जबकि पशुओं के ऋतुवों पर होता है और वह भी बहुत कम। तो मनुष्य इस काम की बात में भी पशुओं से अधिक बढ़ा चढ़ा है।
मनुष्य को पशु कोटि से उद्धार करने में समर्थ―ऐसी कौनसी बात मनुष्यों की पशुओं से श्रेष्ठ कही जाय? वह है केवल धर्म की बात। तो धर्म की दिशा में कुछ पशु धर्मात्मा भी होते हैं। अनेक मनुष्यों से तो पशु भी धर्म में कुछ अच्छे होते हैं। जैसे सम्यग्दृष्टि हो जायें, देश संयम धारण करने लगें, तो अज्ञान मूढ़ पुरुषों से धर्म में भी पशु बढ़कर हो गए। हाँ, यह बात हे कि धर्म की सबसे बढ़कर बात मनुष्य में ही हो सकती है। यह मुनि हो सकें, आत्मध्यान विशेष कर सकें, शुक्लध्यान बना सकें, अरहंत अवस्था प्राप्त कर सकें, मुक्ति प्राप्त कर सकें ये बातें मनुष्य में हैं। तो जिन बातों के कारण यह मनुष्य पशुओं से श्रेष्ठ है वे बातें इसमें न हों तो मनुष्य होना न होना किस काम का है। तो बोधिदुर्लभ भावना में हमें यह दृष्टि रखनी है कि हमने बहुत उन्नति करके आज यह मनुष्य की स्थिति पायी है। अब हम इस उन्नति को नष्ट कर दें, फिर अवनति में पहुँच जायें। यह तो कोई विवेक का काम नहीं है। कभी बहुत मेहनत करके ऊपर तक तो चढ़ गए और गिरने में तो कहीं विलंब नहीं लगता, झट गिर जाय तो यह स्थिति हम आपकी न बन जाय, इस ओर हम आपको विवेक रखना चाहिए। इस आत्मदेव के प्रताप से आज हम आप बहुत गुणी और उत्तम देश जाति वाले मनुष्य हुए हैं। हम आपको कुछ कलायें भी प्राप्त हुई हैं, किंतु उन कलावों का प्रयोग यदि विषयकषायों के लिए ही हम करें कुछ समझदार हुए ना, इसलिए जरा-जरासी बातों में हठ करने लगें, जरा-जरासी बातों में क्रोध करने लगें, मायाचार चुगली करके हम कुछ अपनी चतुराई समझने लगें, तृष्णा करने लगें, ऐसे ही कर्म करके यदि हम अपने इस आत्मप्रभु पर हमला करते हैं तो इसका फल यह होगा कि हम जिस भूमि से उठकर जिस निम्नदशा से निकलकर आज मनुष्य हुए हैं फिर से हम उसी निगोद दशा में पहुँच जायेंगे। कल्पना तो करो आज मनुष्य है और मरकर बन गए पेड़ पौधे तो क्या हालत गुजरेगी? और, यह बात क्या हो नहीं सकती? यदि अपने आप न चेते तो ये सब बातें सब संभव हैं तो यहाँ तो जरासी हीनता हो गयी तो खेद मचाते हैं, और जब मरकर पेड़ पौधे हो गए तब फिर खेद का कुछ अनुमान रहा क्या? तो लोक का ऐसा स्वरूप जानकर और दुर्लभ से दुर्लभ चीज हमने पायी हे ऐसा समझकर विषय कषायों से विराम लें और अपने आत्मा के उद्धार का यत्न करें।