वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 233
From जैनकोष
आयु: सर्वाक्षसामग्री बुद्धि: साध्वी प्रशांतता।
यत्स्यात्तत्काकतालीयं मनुष्यत्वेऽपि देहिनाम्।।233।।
दीर्घायु पंचेंद्रियत्व विवेकादि प्राप्ति की काकतालीयता―यह जीव निगोद से विकलत्रयों से निकलकर संज्ञी पंचेंद्रिय में पर्याप्त मनुष्य हो गया। इतने पर भी देश, जाति, कुल उत्तम न मिले तो भी बेकार सा है। देश, कुल, जाति भी अच्छे मिल गए तो अब ऐसी कौनसी स्थिति है जो इससे भी दुर्लभ है? दीर्घ आयु का होना, मनुष्य होना, गुणसंपन्न होना, उत्तम देश जाति में होना। और अल्प आयु है, बचपन में ही गुजर गए तो उसने हित की साधना तो न कर पायी, इस कारण दीर्घ आयु का मिलना दुर्लभ है। जैसे बतलाया करते हैं लोग कि जो अच्छे बालक हैं, होनहार हैं वे बचपन में ही गुजर जाते हैं, तो दीर्घ आयु का मिलना दुर्लभ है। आयु भी बहुत लंबी मिले पर आजीविका न रहे, इंद्रियों की पूर्ण सामग्री न रहे तो वह भी आगे नहीं बढ़ सकता। गुण संपन्न भी है, लंबी आयु भी है मगर दरिद्रता है जिससे निरंतर चिंता बनी रहती है तो उसमें भी कुछ बात न बन सकी। तो इंद्रियों की पूर्ण सामग्री होना यह दुर्लभ है। विशेष वैभव की जरूरत तो नहीं है किंतु इतने साधन हों कि जिससे यह शरीर टिक सके, तब फिर वह धर्म के मार्ग में आगे भी बढ़ सकता है। सामग्री भी मिल गई किंतु उत्तम बुद्धि न हो तो भी बेकार है, बुद्धि का क्षयोपशम तो मिला था, लेकिन बुद्धि खोटी ओर चलने लगी, व्यसनों में, पापों की चेष्टाओं में अथवा कुछ संहारक चीजों के निर्माण में तो उसका हितमय जीवन नहीं बना।
कषाय मंदता उत्तम बुद्धि की प्राप्ति से भी दुर्लभ―उत्तम बुद्धि मिले यह भी दुर्लभ वस्तु है। उत्तम बुद्धि भी मिली पर कषायें मंद न हुई तो क्या लाभ? कोई लोग बुद्धिमान भी होते हैं पर कषायें तीव्र होने से अनाप सनाप प्रवृत्ति कर डालते हैं। तो मंदकषायों का होना यह सबसे अधिक दुर्लभ है और यों समझना चाहिए कि इतनी बात होने पर मंद कषायों का भी मिल जाना ऐसा दुर्लभ है जैसे काकतालीय न्याय में कहा है। जैसे किसी ताड़ वृक्ष के नीचे से कौवा उड़कर जा रहा हो और उसी समय उस ताड़ से फल टूटे और कौवा चोंच में ग्रहण कर ले तो यह कितनी कठिन बात है। ऐसी ही कठिन बात समझना चाहिए, मनुष्य हो जाना और उत्तम देश, जाति, कुल, उत्तम बुद्धि ये भी मिलें और फिर मंद कषायें हों तो यह उत्तरोत्तर दुर्लभ चीज है।
मंद कषाय से मनुष्य की उत्तमता―मंद कषायों से मनुष्य की शोभा है, धर्म में प्रवृत्ति होती है, और लोगों का आकर्षण भी होता है, लोक का उपकार भी होता है, किंतु तीव्र कषाय से न दूसरों का भला न खुद का ही भला होता है। आत्मा का अहित करने वाली ये कषायें ही तो हैं। जो आत्मा को कसें, दु:ख दें, संसार में रुलायें उन्हें कषायें कहते हैं। तो मंद कषायों का होना यह बहुत ही ऊँची चीज है। हम सबका ऐसा ही यत्न हो कि कषायें छूटने का कोई निमित्त मिले, वातावरण मिले, तो यों समझो कि ये सब लोग हमारी परीक्षा करने के लिए ही मानो कुछ प्रतिकूल चल रहे हैं। उस वातावरण में भी अपने को मंदकषायी रख सकें, ऐसा यत्न होना चाहिए।