वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 240
From जैनकोष
सुप्रापं न पुन: पुंसां बोधिरत्नं भवार्णवे।
हस्ताद्भ्रष्टं यथा रत्नं महामूल्यं महार्णवे।।240।।
बोधिरत्न को भ्रष्ट न होने देने का अनुरोध―संसार रूपी समुद्र में बोधिरत्न को अब तक नहीं पाया। बोधि का अर्थ है सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रय। रत्न क्योंकि समुद्र में उत्पन्न होते हैं इसलिए जहाँ हम रह रहे हैं उसे रत्नसमुद्र कहा है। निज समुद्ररत्न में से रत्न निकाल ले तो विवेक की बात है। इस संसार में रत्न भी मिल सकते हैं और मिलते ही यहाँ हैं, उस रत्नत्रय पर चलना भी यही हैं, जो भी चल सके, मगर इसका प्राप्त करना अति कठिन है। कितना गहरा समुद्र और जहाँ अनेक भयंकर जलचर, ग्राह, मच्छ, मगर मौजूद हैं, जहाँ भयंकर लहरें, उठा करती हैं ऐसे समुद्र के बीच से रत्नों का निकालना कितना कठिन है? इसी तरह इस संसारसागर में जहाँ अनेक व्याधि रोग दु:ख आदिक लहरें भवरें उठ रही हैं, जहाँ अनेक प्रकार के रागद्वेष मोह में जलचर, मच्छ, ग्राह, मगर खाने के लिए उद्यत हैं, जो काल की अपेक्षा, भाव की अपेक्षा बहुत विशाल हैं ऐसे संसार में बसकर कोई सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन रत्नों को प्राप्त कर सके, उन्हें ले सके यह बात कितनी कठिन हो सकती है, बहुत कठिन बात है, अत्यंत दुर्लभ है, लेकिन कोई जीव ऐसे दुर्लभ भी रत्न को पा ले और फिर खो दे, नष्ट कर दे अपनी कमजोरी से अथवा भ्रष्टों की संगति से अथवा पाखंडियों के उपदेश से उस रत्न को खो दे तो यों समझिये जैसे हाथ में रखे हुए रत्न को कोई समुद्र में डाल दे तो फिर मिलना अत्यंत कठिन है। इसी प्रकार इस बोधि को पाकर इस बोधि को विषय कषायों में खो दे तो इसका पाना अत्यंत दुर्लभ है। हम आप वर्तमान में बहुत अच्छी स्थिति पर हैं। नरक निगोद जैसी विचित्र गतियों से निकल आये, आज सब कुछ अच्छे साधन पाये हैं, लेकिन प्रमाद किया, उस आत्मतत्त्व की प्रीति न रखी, यों ही समय गुजर गया तो फिर ऐसा मौका मिलना बहुत कठिन है। ऐसा समझकर हमें इस आत्मधर्म में प्रीतिपूर्वक बढ़ना चाहिए। इसका यथार्थ ज्ञान करें और ज्ञानदृष्टि बनाकर अपने आपमें तृप्त रहने का यत्न करना चाहिए।