वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 423
From जैनकोष
यदमी परिवर्तंते पदार्था विश्वर्तिन: ।नव जीर्णादिरूपेण तत्कालस्यैव चेष्टितम् ॥423॥
कालद्रव्य का उपकार ― लोक में रहने वाले समस्त पदार्थ जो नवीन और पुराने रूप से परिवर्तन करते हैं वह सब काल की ही चेष्टा समझिये । व्यवहारकाल जैसे-जैसे व्यतीत होता है वैसे ही वैसे इसमें परिवर्तन भी चलता रहता है । जैसे किसी को यहाँ से सहारनपुर जाना है, रेल से ही सही तो सहारनपुर पहुँचने में भी काल का उपकार माना गया है । यदि तीन घंटे का समय व्यतीत न होता तो आप कैसे सहारनपुर पहुँच सकते थे ? सो इसमें कालद्रव्य का भी उपकार मानते हैं । कोई बालक अभी छोटा है और वह कभी बड़ा बनेगा, धनी बनेगा, या नेता बनेगा या रक्षाधिकारी बने तो उसमें काल का भी उपकार कहा सकते हैं । 8 वर्ष के बच्चे को कौन राजा बना देता है ? जब एक पक्व अवस्था हो जाती है तब जाकर कुछ बात बनती है । तो विश्व के समस्त पदार्थ परिवर्तित होते हैं इसमें कालद्रव्य का उपकार है । जीव पुद्गल की गति में निमित्त है धर्मद्रव्य, स्थिति में निमित्त है अधर्म द्रव्य और वस्तुवों के परिणमन में निमित्त है कालद्रव्य । ये तीन बातें बहुत कठिनता से समझ में आती हैं । धर्मद्रव्य के संबंध में स्पष्ट क्या कहा जा सकता है ? आकाश भी अमूर्त है लेकिन आकाश के संबंध में ऐसा लगता है कि जिसे हम दूसरों को स्पष्ट बता सकें यह तो है आकाश जो पोल है । यद्यपि पिंडरूप नहीं है, न उसे पकड़ सकते हैं मगर बताने में बड़ा आसान लग रहा है, आकाश के संबंध में संकेत करने में बड़ा आसान लग रहा है, और धर्म अधर्मकाल भी अमूर्त हैं किंतु इनका संकेत नहीं बनता । किसे अंगुलि उठाकर, कहाँ चित्त लगाकर समझायें कि यह है धर्मद्रव्य तो ये तीन द्रव्य जरा दुर्गम हैं समझने में । दुर्गमता आकाश में भी होना चाहिए लेकिन पोल आदिक के ख्याल से वह लोगों को सुगम बन रहा है, जीव और पुद्गल अति सुगम हैं । पुद्गल तो सभी को सुगम हो रहे हैं, पिंड, वैभव, मकान, शरीर ये सब प्रत्यक्ष से नजर आ रहे हैं और जीव का समझ लेना इस कारण सुगम है कि यह खुद जीव है और जो बीतती है वह खुद पर बीतती है, खुद की बात खुद की समझ में झट आती है झगड़ा भी जीव और पुद्गल का है । धर्मादिक द्रव्य भी समझ लेने चाहियें, उसी में कालद्रव्य का यह वर्णन है, इसका भी अर्ंतबाह्य स्वरूप समझ लेना चाहिए ।भेदविज्ञान के लिये स्वरूपपरिचय का महत्व ― जब जानकारी करना है तो सभी प्रासंगिक जानकारी होना चाहिए, किंतु भेदविज्ञान में तो जीव और पुद्गल पर ही विशेष किया गया है । और, जब रागादिक से न्यारा हूँ, विकल्पों से जुदा हूँ ऐसा अपने को न्यारा तका तो पुद्गल के निमित्त से होने वाले प्रभावों से भी अपने को न्यारा तका । जो यह नैमित्तिक भाव प्रभाव है वह भी मेरा स्वरूप नहीं है । प्रभाव में बर्तकर भी उस प्रभाव से अपने को न्यारा प्रतीति में रखे ऐसा सम्यक्त्व का अतुल प्रताप है, स्वाद आता है उसकी जिस ओर दृष्टि हो । गृहस्थावस्था में रहकर भी निष्कलंक शुद्ध चित्स्वभाव पर दृष्टि जाय तो वहाँ जो विशुद्धि और आनंद जगता है उसमें यह गृहस्थी की परिस्थिति बाधा नहीं देती है, लेकिन वह बात चिरकाल तक टिक सके इसमें बाधा देती है । और, उसका कारण यह है कि इन बाह्यपरिस्थितियों में ऐसे संस्कार लगाया है कि किसी समय थोड़े क्षण को उपयोग का साथ तो दें कि हम उस शुद्ध मायारहित चित् ब्रह्म को समझें, किंतु झलक पाते ही अथवा पूर्णरूप से झलक भी नहीं पाते हैं, कुछ उसमें प्रवेश होता है कि उतने में वे सब संस्कार जो जरूरी माने रखे हैं और कदाचित् किसी स्थिति में जरूरी कहलाते हैं उन सबकी स्मृतिय झलक में बाधा डाल देती हैं । तो भेदविज्ञान प्राप्त करने के लिए पर को जानने की सही रूप में आवश्यकता है । जिनमें हम अनादिकाल से लगे पगे आ रहे हैं उनका यथार्थस्वरूप समझें तो हमारी कैसे निर्वत्ति हो सकती है, इस ध्येय को लेकर ध्यान के इस ग्रंथ में ध्यान के अंगभूत सम्यक्त्व के प्रकरण में पदार्थों का स्वरूप बताया जा रहा है ।