वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 424
From जैनकोष
भाविनो वर्तमानत्वं वर्तमानात्वतीतताम् ।पदार्था प्रतिपद्यंते कालकेलिकदर्थिता: ॥424॥
कालकेलिकदर्शित होकर पदार्थों की भावी वर्तमानरूपता ― पदार्थकाल की लीला से एक अवस्था से अन्य अवस्था को प्राप्त होते हैं । जो अवस्था वर्तमान में है अगले क्षण वह अवस्था न रहेगी, नवीन अवस्था बनेगी और वर्तमान अवस्था अतीत हो जायगी । इस प्रकार समय समयपर अवस्था पलटती रहती है । अब कुछ अवस्थायें इसकी जल्दी समझ में आती हैं, कुछ परिवर्तन बहुत काल के बाद समझ में आते हैं । जैसे एक बालक बढ़ता है तो वह रोज-रोज बढ़ रहा है पर रोज-रोज का बढ़ना हमारी समझ में नहीं आता । सालभर बाद समझ में आया कि यह तो बड़ा हो गया । और जो घर के लोग हैं वे तो साल भर बाद समझा नहीं पाते कि यह तो बड़ा हो गया । देखते यद्यपि रोज-रोज हैं । जो कोई 6-7 माह बाद देखे तो उसकी दृष्टि में आयगा कि यह बड़ा हो गया । समझ में कभी आये लेकिन पदार्थ प्रतिसमय परिणमता है । चाहे उंतति में आये, चाहे अवनति में आये, कैसी ही अवस्था हो जाय, पर प्रति समय परिणमन होता है । यह बात प्रत्येक पदार्थ के स्वरूप में पड़ी हुई है । इस मर्म को न मानकर आखिर सिद्ध तो करना ही पड़ेगा ना कि पदार्थ का संहार होता है, पदार्थ की रचना होती है और ये दोनो बातें पदार्थ कायम रहे बिना होती नहीं, तब तीन देवता के रूप में अनेक लोगों ने माना किंतु पदार्थ सब त्रिदेवनामय हैं, अणु-अणु उत्पाद व्यय ध्रौव्य से युक्त हैं, ये ही अलंकार में ब्रह्मा, विष्णु महेश हैं । पदार्थ का परिणमन, स्वभाव, परिचय में आने से एक वस्तुस्वातंत्र्य का ज्ञान होता है ।परिणामपारिणामिक भाव और निमित्तनैमित्तिक भाव की रुचि का प्रभाव ― देखिये रुचि की बात कि पदार्थ ये नानापरिणमन परउपाधि का निमित्त पाकर होते हैं, इसमें कोई झूठ बात नहीं है, जितने भी विभावपरिणमन होते हैं, चाहे आत्मा में हो रहे हों अथवा पुद्गल में हो रहे हों, किसी अन्य पदार्थ के निमित्त से होते हैं । परिणमन होता है उपादान में ही, उपादान परिणति से ही, पर विभावपरिणमन किसी अन्य पदार्थ का निमित्त पाकर होता है । यह बात सही है । और, यह बात भी सही है कि कितने ही निमित्त पाकर हों परिणमन, पर किसी भी निमित्त से वे परिणमन होते नहीं हैं, वे अपनी ही शक्ति से उदित होते हैं, दोनों बातें यथार्थ हैं, फिर भी किेसी की रुचि निमित्त पोषण के लिए लगे और किसी की रुचि वस्तुस्वातंत्र्य के उपयोग में रहे, इस भेद से भी फलभेद हो जाता है इसे आप अंदाज कर लीजिए । निमित्त की रुचि होने पर, निमित्त पोषण का ही विकल्प और मंतव्य रहने पर निराकुलता का अभ्युदय नहीं हो पाता, जब कि निमित्तप्रसंग के बीच रहकर भी हम जब वस्तुस्वातंत्र्य का उपयोग रखते हैं, प्रत्येक वस्तु अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव में परिपूर्ण है और जो कुछ भी होता है प्रत्येक पदार्थ का उसमें ही परिणमन होता है । इस प्रकार की जब हम स्वातंत्र्य दृष्टि रखते हैं तो कितने ही विकल्प शांत होते हैं और शांति का अभ्युदय होता है ।व्यवहारनय का विरोध न करके निश्चयनय के अवलंबन का महत्व ― इस प्रसंग में एक बात यह भी शिक्षारूप में मिलती है कि निमित्त निमित्त के प्रसंग में ही अब तक हमारा अनादि से भ्रमण होता चला आया, हम उसे जान लें कि यों हुआ है, पर हम अपनी रुचि अपने उपयोग की प्रगति में कोशिश यह करें कि हम वस्तु के स्वतंत्रस्वरूप को ही लायें । एक निषेध करके निश्चय की ओर जायें तो वह कुनय है, पर व्यवहार का विरोध न रखकर निश्चयनय का आलंबन लेने से शुद्ध तत्त्व की उपलब्धि होती है । आचार्य संतों ने उपदेश भी किया है और इन शब्दों में बताया है कि जो पुरुष व्यवहारनय का विरोध न रखकर मध्यस्थ रहकर और निश्चयनय का आलंबन न कर मोह को दूर करते हैं, वे पुरुष श्रेयोमार्ग में बढ़ते हैं और श्रेय प्राप्त करते हैं । तो यह समस्त वस्तुस्वरूप का जो परिज्ञान है यह सब आत्महित के लिए उपकारी है, अतएव सम्यक्त्व के प्रकरण में वस्तुस्वरूप का वर्णन किया जा रहा है ।