वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 477
From जैनकोष
संरंभादित्रिकं योगै: कषायैर्व्याहतं क्रमात् ।शतमष्टाधिकं ज्ञेयं हिंसाभेदैस्तु पिंडितम् ॥477॥
हिंसा के मूल भेद 108 ― मन, वचन, काय से और क्रोध, मान, माया, लोभ इन चार कषायों से संरंभ, समारंभ और आरंभ किए जायें, कराये जायें और अनुमोदित किए जायें, इस प्रकार से जो पाप होते हैं वे 108 प्रकार के पाप जानना चाहिए । संरंभ, समारंभ और आरंभ इन तीनों में सबसे पहिले होता है संरंभ । इसके बाद बनता है समारंभ और इसके बाद बनता है आरंभ। हिंसा में उद्यम करने के परिणाम बनने का नाम है संरंभ। हिंसा का विचार करना, कार्यक्रम सोचना यह है संरंभ और हिंसा के साधन जुटाना यह है समारंभ और हिंसा में प्रवृत्ति करना यह है आरंभ । जो मनुष्य पापकार्य करता है तो उसके इस प्रकार ये तीन क्रम बनते हैं, पहिले मन में सोचता है, फिर उसका प्रोग्राम बनाता है, साधन जुटाता है और फिर प्रगति करता है । ये तीन प्रकार के पाप कार्य मन से, वचन से और काय से होते हैं तो ये 9 भेद हो गए । मन से संरंभ, वचन से संरंभ, काय से संरंभ, मन से समारंभ, वचन से समारंभ, काय से समारंभ, मन से आरंभ, वचन से आरंभ, काय से आरंभ । इस प्रकार के पापकार्य करे जायें, कराये जायें, अनुमोदे जायें तो इसके 27 भेद हो गए । ये 27 प्रकार के पाप कोई तो क्रोध के आधीन होकर, कोई मान के, कोई माया के और कोई लोभ के आधीन होकर करता है तो इसके 27×4 = 108 भेद हो गए । इस प्रकार हिंसा के मूल भेद 108 हुए । इसीलिए माला में 108 दानों की प्रथा है । मेरे 108 प्रकार के पाप दूर हों इसके अर्थ में 108 बार प्रभु का नाम लिखा, यह एक साधन है, यह तो कुछ तीर्थ प्रवृत्ति रहना चाहिए, कोई रूढ़ि रहना चाहिए इसके लिए 108 बार जाप की प्रथा है । ऐसी सब हिंसावों का त्याग जहाँ है उसे अहिंसा महाव्रत कहते हैं ।
श्री 108 मुनिराजों के नामों के पहिले लिखने का भाव ― श्री 108 लिखने का यही प्रयोजन है कि वे मुनिराज 108 प्रकार के पापों के त्यागी हैं । अतएव श्री-श्री बार-बार न कहकर 1 श्री लिखकर 108 लिख देते हैं ।भ भ क्षुल्लक की पदवीं में श्री 105 लिखा जाता है उसका भी कुछ ऐसा ही प्रयोजन है । चूँकि मुनि से क्षुल्लक का पद तो कुछ छोटा है ही, क्षुल्लक पद में कुछ थोड़ा सा परिग्रह रहता है इससे 108 न लिखकर 105 लिखने की प्रथा है । अथवा यह एक विनय की रूढ़ि है । गुरुवों को 6 श्री लिखी जाती है, मित्र को 5 श्री, शत्रु को 3 श्री लिखी जाती है, इस तरह एक रूढ़ि है, पर 108 श्री लिखने का तत्त्व तो बिल्कुल स्पष्ट है ।