वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 478
From जैनकोष
अत: प्रमादमुत्सृज्य भावशुद्धयांगिसंततिम् ।यमप्रशमसिद्धयर्थं बंधुबुद्धया विलोकय ॥478॥
उपयोग में विशुद्ध प्रकाश बनाये रहने की शिक्षा ― इस कारण प्रमाद को छोड़कर भावों की विशुद्धि बना कर जीव समूह को बंधु की बुद्धि से देखो । किसी भी जीव के प्रति उनके सताने, अन्याय करने का परिणाम मत उत्पन्न करें । यदि यावत जीव यत संयम की सिद्धि चाहते हो, कषायों का प्रशम चाहते हो तो सब जीवों को परिवारजनों की तरह की बुद्धि से अवलोकन करना चाहिए । है भी क्या ? दस बीस वर्ष के जीवन का किसी का समागम है। समय तो अनंत है। इस अनंत समय के सामने जीवन का यह थोड़ा सा समय क्या गिनती रखता है ? 100-50 वर्ष तो क्या करोड़ सागर भी कुछ गिनती नहीं रखते । फिर इस थोड़े से समय के लिए चित्त में ऐसा विश्वास बना लेना कि ये तो मेरे हैं और ये सब गैर हैं, यह कितनी अविवेक की बात है । व्यवस्था की बात अलग है और एक मोह लगाव वैसा श्रद्धान रखे वह मूढ़ता की बात है । सब जीव एक समान स्वरूप वाले हैं, सबमें चैतन्य है, और इस संसार चक्र में भ्रमण करने वाले इन जीवों में आज जो शत्रु के रूप में देखे जा रहे वे अनेक बार बंधु बन चुके, जिन्हें आज बंधु माना जा रहा वे अनेक बार शत्रु बन चुके कल्पना में । वस्तुत: कोई जीव न बंधु है, न शत्रु है । जिस किसी से भी प्रीति है, राग है तो प्रथम तो यह आपत्ति है कि राग और मौज की धुन में बेसुध हो रहे हैं, अपने आत्मा की सुध नहीं कर पाते हैं । राग में सबसे बड़ा प्रहार तो यह है और फिर उस राग निभाने के लिए जीवन में अनेक संकट, चिंता, शल्य करनी पड़ती है । विशुद्ध प्रकाश की बात उपयोग में रहना चाहिए । मिथ्या धारणा में अपना उपयोग न फँसाना चाहिए ।
संकटों से मुक्ति का उपाय-समताभाव ― समस्त जीव समूह के हे हितैषी आत्मन् ! बंधु की बुद्धि से देख अर्थात् प्राणीमात्र से शत्रुभाव न रखकर मित्रता का भाव रख और सबकी रक्षा करने में मन, वचन, काय के सारे प्रयत्नों से मुक्ति कर । जीव पर संकट क्या है ? मूर्छा का भार । विकल्प ही तो संकट है । संकट सता रहे हों तो ऐसी सुमति जगावो कि सब विकल्प हटो, मैं तो एक शुद्ध चैतन्यमात्र हूँ, बाह्यपदार्थों में कुछ परिणति हो उससे मेरा कुछ प्रयोजन नहीं है । मेरा मेरे आत्मा से प्रयोजन है, ऐसी सद्बुद्धि जगाकर पर से उपेक्षा भाव तो कीजिए, सारे विकल्प भार संकट सब समाप्त हो जाते हैं ।