वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 49
From जैनकोष
भृशं दु:खज्वालानिचयनिचितं जन्म गहनम्।
यदक्षाधीनं स्यात्सुखमिह तदंतेतिविरसम्।
अनित्या कामार्था: क्षणरुचिचलं जीवितमिदम्।
विमृश्योच्चै: स्वार्थे क इह सुकुति मुहयति जन:।।49।।
जन्मवन―यह संसार अर्थात् जन्म परंपरा दु:ख की ज्वाला के समूह से व्याप्त गहनवन की तरह है। जैसे भयंकर वन हो और उसमें लगी हो चारों तरफ से आग, तो उसमें फँसे हुए मनुष्यों का क्या हाल होगा? इसी तरह यह जन्म परंपरा का जंगल यह संसार वन जिसमें सर्व और दु:खों की ज्वालायें भरी हुई हैं ऐसा यह संसार वन कितना गहन वन है, भयंकर वन है? किस और आप जायें कि जहाँविश्राम मिल सके। संसार है कोर्इ क्या ऐसा स्थान, कौनसा समागम यहाँऐसा है जिस समागम को पाकर हम सुखी और संतुष्ट रह सकें। सुख के साधन रहते हैं तो यह चित्त और उद्दंड होता है और किस-किस का विकल्प सोचते हैं, कैसी-कैसी आपत्तियों को सिर मोल लेते हैं। भयंकर स्थिति है।
संसार में विश्रामधाम का अभाव― संसार में कोई भी परिस्थिति ऐसी नहीं है जहाँ कि इस जीव को विश्राम मिल सके। यही एक मनुष्य जीवन का उदाहरण ले लो। जब बहुत छोटे थे तो और तरह की तृष्णा थी, खेल खेलने को न मिले तो रोने लगे, मन चाहा कुछ न मिले तो रोने लगे। प्रयोजन कुछ नहीं है, पर चवन्नी दुवन्नी न मिले तो रोने लगे, लावो पैसा। अच्छा तो तुम पैसा ही ले लो, खावो मत, करो अपनी दुकान। छोटे-छोटे बच्चों के भी पैसों की तृष्णा होती है। छोटे बच्चे जिन्हें बोलना भी नहीं आता वे पहिचानते हैं कि यह अठन्नी है और यह चवन्नी है और यह दुवन्नी है। उन बच्चों को छोटे पैसे दिखावो तो वे फेंक देते हैं। लो इस तरह की तृष्णा हुई, जरा और बड़े हुए तो और तरह के विकल्प, पैसा कमाने का दु:ख। फिर विवाह चाहा तो विवाह भी हो गया। विवाह होने के कुछ ही महीने बाद बड़े आपसी झगड़ेखड़े हो जाते हैं और वे झगड़े भी बड़े विचित्र, वे झगड़ेछोड़े भी नहीं जाते, प्रेम से रहा भी नहीं जाता। बच्चे हो गये तो और प्रकार के दु:ख। कोई बड़ा ही समझदार है, ज्ञानी है तो समूह में बैठकर और प्रकार के विकल्प करता है। इन विकल्प ज्वालावों की कहाँतक कहानी कही जाय। साधु भी हो जाय और वहाँभी ये विकल्प संभव रह जाते हैं, मैं साधु हूँ, मुझे यों रहना चाहिये, लोगों से मुझे यों व्यवहार करना चाहिये, इस तरह के विकल्पों ने साधुवों का अंत: क्षेत्र भी मलिन कर दिया। कहाँतक विकल्पों की कहानी कही जाय? कौनसी परिस्थिति ऐसी है जहाँ यह संसारी जीव सुखी रह सके? तो यह जन्मवन बड़ा गहन है, दु:ख की ज्वालावों से भरा हुआ है।
इंद्रिय सुख की नीरसता― यह इंद्रियज सुख एक तो अत्यंत विरस है, दूसरे दु:ख का ही कारण है। खूब चाट चटपटी मिठाई खा लेवे तो 2-3 घंटे बाद बुरी डकारें आयें उसका दु:ख भोगें। कोई सा भी भोग हो प्रत्येक अंत में नीरस हो ही जाता है, कोर्इ सा भी भोग ले लो। कर्णेंद्रिय का भोग ले लो, संगीत सुन रहे हैं, खूब गायन हुआ, दो तीन बज गये, अंत में वह विरस लगने लगता है।बहुत बढ़िया भी संगीत हो, खूब सुने, मन भर, लेकिन अंत में जब विरस लगने लगता तो फिर उठना पड़ता है। यह तो बहाने की बात है कि बहुत देर हो गई इसलिये अब बंद करें। अरे देर तो कितनी ही हो जाये, यदि आनंद आता है तो वह बैठा रहेगा, वह भी विरस है। कोई रमणीक वस्तु हो उसे खूब देखते रहो टकटकी लगाये तो अंत में वहाँभी थकान हो जायेगी। वह भी विरस लगने लगेगी। इत्र सूँघने से सुख मिलता है तो रूई को खूब गीली भिगोकर नाक में ठूंसे रहो, पर वहाँभी मन ऊब जायेगा। भोजन में भी यही हालत है, स्पर्श में भी यही हाल है। तो यह इंद्रियसुख अंत में नीरस हो जाता है।
इंद्रिय सुख में क्षोभव्याप्तता―खैर कल्पना से जितने समय तक तुम उसमें रस मानते हो उतने समय भी तो बिना क्षोभ के शांति से भोगा तो नहीं जाता। एक पक्का नियम है―इंद्रिय द्वारा जो भी भोगा जायेगा वह शांति से भोगा ही नहीं जाता। क्षोभ होगा, धैर्य से न भोगेगा, धैर्य का भंग करके ही तो भोग भोगना होता है तो ये इंद्रियसुख दु:ख के कारण हैं, और जब तक भी इन्हें भोग रहे हैं तब तक दु:ख से मिले हुये हैं। जहाँ बच्चों का सुख माना जा रहा है वहाँ उससे अधिक कई प्रकार के दु:ख भी भोगे जा रहे हैं उन बच्चों के प्रसंग में। जहाँ वैभव से सुख माना जा रहा है वहाँउससे कई गुना उस वैभव के प्रसंग में दु:ख भी भोगे जा रहे हैं। ये संसार के सुख दु:खों से व्याप्त हैं।
वैभव की चंचलता― ये भोग, ये धन बिजली की तरह चंचल हैं। जैसे बिजली क्षण भर को चमकी कि समाप्त हुई ऐसे ही यह जीवन है। जैसे पहाड़ से गिरने वाली नदी का वेग फिर से पहाड़ के ऊपर नहीं जा सकता, जो पानी पहाड़ के नीचे से बह गया वह पानी पहाड़ पर उल्टा चल दे, ऐसा तो नहीं होता। गुजरा वह तो गुजरा ही गुजरा। इसी प्रकार जो जीवन गुजरा वह जीवन गुजरा ही गुजरा यह जीवन भी बिजली के समान चंचल है। इन सब बातों का विचार करने वाले जो सत्पुरुष होते हैं वे मोह को प्राप्त नहीं होते। समस्त वैभवों को दु:खरूप, साररहित जानकर बुद्धिमानी से अपने हित की साधना करनी चाहिये। हित का साधन है सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र। यह पद्धति बनी रहे इस प्रकार के ध्यान का अभ्यास रहना चाहिये।