वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 542
From जैनकोष
या मुहुर्मोहयत्येव रुविश्रांता कर्णयोर्जनम् ।विषमं विषमृत्सृज्य साऽवश्यं पन्नगी नगी: ॥542॥
ज्ञान और वैराग्य की कारणभूत वाणी में उपादेयता ― वह वाणी जो लोगों के कानों में प्रवेश करने के बाद या प्रवेश करती हुई बहुत विषम विष को छोड़कर जीवों को मुग्ध कर देती है वह वाणी नहीं है किंतु सर्पिणी है । जो वचन जीव का अहित करें ऐसे वचनों से जीव का पतन होता है । वचन वे हों जो दूसरे जीवों का हित करते हों । अपना जीवन यदि मंद कषाय में चल रहा है तो वचन भी ऐसे मधुर बन सकेंगे, विवेकपूर्ण निकलेंगे कि दूसरे जीव भी अपना हित कर सकेंगे । पर के हित में उद्यम करना भी अपने हित के लिए है और मात्र अपने हित में उद्यम करना भी अपने हित के लिए है । वाणी वह सुनना चाहिए जो ज्ञान और वैराग्य को प्रकट करने में कारण हो, और वह वाणी सुनने योग्य नहीं है जो मन को और मुग्ध कर दे । जैसे आजकल वैसे ही लोग नवयुवक जन कषाय, काम, लोभ इन वेदनाओं में पड़े हुए हैं और फिर जिससे कषाय बढ़े, काम वेदना बढ़े ऐसे थियेटर, सनीमा, वचन आदिक का प्रचार भी बन जाय तो उसमें जीव का कितना अहित है । आप देखेंगे कि सनीमा जैसे खेल के घरों में, दिलबहलावा के घरों में छोटे लोगों की संख्या अधिक होती है जिनकी इतनी कमाई नहीं है कि वे अपना गुजारा भली प्रकार कर सकें लेकिन विषयाशक्ति इतनी बढ़ी हुई है कि खाने में कमी कर लेंगे मगर सनीमा आदिक जरूर देखेंगे । तो समझ लीजिए कि जहाँ बड़े पुरुषों का झुकाव नहीं है, विवेकियों में, पढ़ें लिखों में जिस ओर झुकाव नहीं है वह चीज तो कोई अहित के ही कारणभूत होगी ।
विषमयी सर्पणी के समान अहितकारी वाणी ― जो वचन जीवों के मनुष्यों के कर्ण में आकर उनके आत्मा को दुष्कृत कर दें, स्वरूप से चिगा दें वह वाणी नहीं है किंतु विषमयी सर्पिणी है । ऐसे वचनों के प्रयोग में जो रहता है उस पुरुष को आत्मा की क्या सुध है, और वह आत्मा का क्या ध्यान करेगा ॽ जिसमें आत्मा का ध्यान न बने वह अज्ञान अंधेरे में यत्र तत्र दौड़-दौड़कर अपने आपको दु:खी बनाये रहता है । ऐसी वाणी से दूर रहें और दूसरों के प्रति विशुद्ध वचनालाप का व्यवहार चले तो वह मनुष्य आत्महित का निर्वाणमार्ग का पात्र होता है ।