वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 551
From जैनकोष
नृजन्मन्यपि य: सत्यप्रतिज्ञाप्रच्युतोऽधम: ।स केन कर्मणा पश्चाज्जन्मपंकात्तरिष्यति ॥551॥
मनुष्य जीवन की दुर्लभता ― जो अधम पुरुष मनुष्यजन्म पाकर भी साधु की प्रतिज्ञा से च्युत हो जाते हैं वे पापी पुरुष बतलावो संसारकर्दम से फिर किस प्रकार पार हो ॽ तिरने का अवसर भी मनुष्य जन्म है और तिरने का उपाय भी सत्य आत्ममर्म की दृष्टि करना है जो कि सत्य व्यवहार करने वाले को प्राप्त हो सकता है । यदि इस सत्य से च्युत हो गया तो फिर संसार कीचड़ से किस प्रकार पार होगा ॽ धर्मरूप आचरण विवेक की उत्कृष्टता इस मनुष्यभव में ही बनती है । और, कोई इस मनुष्यभव को विषय कषायों में ही गँवा दे तो फिर तिरने का अवसर मिलना अतीत कठिन हो जायेगा । बड़ी दुर्लभता से किसी को मणि हाथ लगा हो और वह बैठे हुए कौवों को उड़ाने के लिए मणि को समुद्र में फेंक दे तो उसने अत्यंत अतीत दुर्लभ चीज जो लोकव्यवहार में मानी जाती है उसे यों ही गँवा देता है । जैसे किसी को बर्तन माँजने के लिए राख की जरूरत हुई तो चंदन के वृक्ष को काटे, उसे जलाकर उसकी राख बनाये फिर बर्तन माँजे तो यह कोई बुद्धिमानी की बात है क्या ॽ इतनी उत्कृष्ट चीज को राख बनाने में नष्ट कर दे तो यह लोकव्यवहार में कोई भी ज्ञान की बात नहीं कह सकेगा । ऐसे ही यह मनुष्यजन्म जो इतना दुर्लभ है कि स्थावर विकलत्रय अन्य असंज्ञी पंचेंद्रिय अन्य गतियों से निकलकर मनुष्यभव मिला है, इस मनुष्यभव को कोई विषय कषाय के काम में ही गँवा दे, आत्मज्ञान की, हित की बात में प्रवेश न करे तो उसने यों ही मनुष्यभव को गँवा दिया ।
ज्ञान का सिलसिला बनाने में प्रसन्नता ― सब ज्ञान की बात है । सिलसिला भर लग जाय, आत्मदृष्टि के ढंग की बात बन जाय तो इस ओर दृढ़ता बनती जाती है और यदि रागद्वेष मोह विषय की ओर इसका कुछ सिलसिला बन जाय तो यह विषयों में ही पतित होता चला जाता है । इस कारण बड़ी सावधानी की आवश्यकता है कि मेरा सिलसिला, मेरी परंपरा अच्छे कार्यों की बने, जिससे हम अपने को निर्मल रख सकें, प्रसन्न रख सकें और संसार के संकटों से छूटने का उपाय पा सकें । इस मनुष्य जन्म को सत्य अहिंसा शील आदिक धार्मिक कर्तव्यों में लगाना चाहिए ।
विषयकषायों का फल कटुक ― आखिर जीवन तो बीतेगा ही, किसी तरह बिता लें, पर विषयकषायों के रूप से इस मनुष्यजन्म को बिताने का फल कटुक होगा । ये भोग विषय, ये इंद्रियों के साधन उपभोग पुण्य का उदय है ना इस कारण बहुत सस्ते हो रहे हैं । जब चाहे तब इंद्रिय का उपभोग कर लें, बड़े सस्ते मालूम हो रहे हैं, सुगम मालूम हो रहे हैं, किंतु कुछ ही काल बाद इन सबका परिणाम कितना महंगा और दुर्गम होगा । महापुरुष तो वह है कि ऐसी लुभावनी स्थिति में जब कि सर्व प्रकार के इंद्रियविषयों के समागम प्राप्त हो रहे हैं, अपने मन को वश करें और विशुद्ध ज्ञानपथ की ओर मन को ले जायें, यह है आंतरिक तपश्चरण । ऐसे अपने आत्महित की शुद्ध प्रतिज्ञा की दृष्टि जिनकी बनी रहे उनका तो जन्म सफल है और जहाँ अधम पुरुष विषय कषायों के प्रेमी आत्महित के कार्य से चलित हो जाते हैं समझिये कि इस संसाररूपी कर्दम से उनके निकलने का फिर कोई अवसर नहीं रहता । इससे हम शास्त्रस्वाध्याय में और यथाशक्ति संयम में अपना जीवन बितायें तो इसका फल अपने को अच्छा ही प्राप्त होता है ।