वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 58
From जैनकोष
भवाब्धिप्रभवा: सर्वे संबंधा विपदास्पदम्।
संभवंति मनुष्याणां तथांते सुष्टु नीरसा:।।58।।
संबंधों की विपदास्पदता― इस संसार सागर में उत्पन्न हुये ये समस्त विभाव, ये समस्त संबंधी विपत्ति के साधन हैं। सोच लीजिये आज जो भी मनुष्य कुछ विपदा समझ रहे हैं उसका कारण क्या है? किसी पर का लगाव संबंध। तो ये समस्त संबंध विपत्तियों के साधन हैं, कुछ ही दिनों बाद ये नीरस लगने लगते हैं। खूब अनुभव कर लो―जो भी संबंध हुआ वह संबंध कुछ समय तो सुहावना लगता है। नया संबंध है, नयी उमंग है किंतु कुछ काल के बाद वही का वही संबंध नीरस लगने लगता है। भले लड़के हैं, स्त्री आज्ञाकारिणी है। सर्व परिजन भले हैं पर उन्हीं परिजनों में रात दिन रह कर वे उतने प्रिय नहीं रह पाते जितने कि प्रारंभ में वे प्रिय लगते थे, नीरस हो जाते हैं। अन्य इंद्रियों के विषय भी देखो― स्पर्शन इंद्रिय का विषय, पुरुष को स्त्री, स्त्री को पुरुष, ये थोड़े समय को तो सुहाते हैं पर थोड़े ही दिन बाद नीरस लगने लगते हैं। भोग भोगने के पश्चात् तुरंत ही पछतावा आने लगता है। भोजन खा लिया, पेट में पहुँच गया, अब वह नीरस लगने लगा, कुछ रस आता है क्या? पेट में पहुँचे हुए भोजन से कोई स्वाद आ रहा है क्या? वह तो नीरस लगता है। प्रत्येक इंद्रिय के विषय अत्यंत नीरस जंचने लगते हैं। तो ये संबंध हितकारी नहीं है, ऐसी अपने आपमें प्रतीति रखियेगा।
निर्लेपता की पूज्यता― हम प्रभु को पूजते हैं, प्रभु का स्वरूप निर्लेप है तभी उनका पूजन किया जा रहा है। यदि वे हम आप जैसे गृहस्थी में रहते तो उन्हें कौन पूजता? तीर्थंकर भी जब तक घर में रहे, महामंडलेश्वर राजा बने रहे, वैभववान् रहे तब तक वे पूज्य नहीं कहलाये थे, जब विरक्त होकर समाधिभाव के द्वारा समग्र कलंकों को नष्ट कर दिया, निर्लेप हो गये तब वे पूज्य कहलाये। तो क्या यह श्रद्धा नहीं है कि भगवान जैसी अवस्था हो वही परमहित की अवस्था है। है कि नहीं श्रद्धा? श्रद्धा तब समझें जब भगवान जैसी अवस्था पाने की रुचि जग जाय, अर्थात् सर्व पदार्थों से मुक्त होकर केवल ज्ञानानंदस्वरूप अपने आपकी संभाल में अपने आपको लगा दिया जाये तो समझो कि भगवान की भक्ति है हृदय में, और यदि भक्ति तो करते जायें और अपने आपको मोह रागद्वेष परिग्रह नाना आरंभों में व्यासक्त रहें, ऐसी परिस्थिति अपनी बना डाली तो भगवान् की भक्ति नहीं हुई।
यथार्थ उपासना का ध्यान― भैया ! करते न बने चारित्र संयम तो न कीजिये, लेकिन श्रद्धा में तो यह होना चाहिये कि मेरा कल्याण तो सर्व बाह्यपदार्थों से, देह से न्यारा रहने में है। इस सत्य बात से मुख न मोड़िये और जब कभी भी इन विषयप्रसंगों में कोई विपदा आये, उपद्रव आ जाये तो आखिर इस ही मूल निजतत्त्व के ज्ञान से वास्तविक संतोष मिलेगा। संतोष का अन्य कोई दूसरा सही उपाय नहीं है। इन बाह्य पदार्थों को पा पाकर, रख रखकर हम चाहें कि संतुष्ट हो जायें तो हो नहीं सकते हैं। अपने आपको जब आकिंचन केवल ज्ञानस्वरूप निरख सके तो हम संतुष्ट हो सकेंगे। अब जान लीजिये। भगवद्भक्ति का यथार्थ लाभ लीजिये। प्रभु के स्वरूप के चिंतन में कोई संकट नहीं रहता। प्रभुभक्ति के प्रसाद से समस्त संकट दूर हो जाते हैं। क्यों दूर हो जाते हैं कि प्रभुभक्ति में नित्य तत्त्व का उपयोग रहता है, अविनाशी, चैतन्यस्वरूप का, निर्मल ज्ञानानंदस्वभाव का उपयोग रहता है। जब तक हम नित्य पदार्थ का आश्रय रखेंगे तब तक हमें विडंबनाएँ नहीं हो सकती हैं।
अनित्य को अनित्य मानने से खेद का अभाव―जब हम अनित्य पदार्थ को नित्य मानते हैं तो विह्वलता होती है क्योंकि जो अनित्य है वह तो मिटेगा, और यह चाहें कि न मिटे तो यही द्वंद्व हो गया। परपदार्थ मिटते तो नियम से जा रहे हैं और यहाँ हम चाहते हैं कि न मिटें इसी से तो क्लेश है। जैसे बच्चे लोग बरसात के दिनों में रेत में भदूना घर बनाने का खेल किया करते हैं। पैरों पर मिट्टी डाल दिया, हाथों से खूब थोप दिया फिर धीरे से पैर निकाल लिया, वह एक घर सा बन जाता है। पर वही बच्चा या और कोई इसको मिटा दे तो वह क्लेश तो नहीं मानता क्योंकि वह समझ रहा है कि यह तो मिटाने के लिए है, यह तो मिटने ही वाला है, इसे तो हम मिटाने के लिये ही बना रहे हैं। इन मिटते हुए समागमों को हम मिटता हुआ ही मानता रहें तो वहाँ भी क्लेश नहीं है।
अनित्य को अनित्य मानने से खेद के अभाव पर दृष्टांत― भैया ! और भी देखो, विवाहादि में जो लोग आतिशबाजी घालते हैं तो आतिशबाजी में मानो 100) खर्च हो गये तो ये 100) पंद्रह मिनट में खर्च हो गये, इन 100) के खत्म हो जाने का कोई खेद लोग नहीं मानते और कोई छोटी सी चीज एक दो रुपयों की घंटी अथवा गिलास खो जाय, नष्ट हो जाय तो उसका क्लेश मानते हैं, क्योंकि बारूद के बारे में उनका यह ख्याल था कि यह तो मिटाने के लिये ही खरीदा गया और उस 2) के गिलास में यह बुद्धि थी कि यह तो बीसों वर्ष रहेगा, बस इस बुद्धि के अंतर से 100) के खर्च में तो दु:ख नहीं हो रहा है, लेकिन इस 2) के गिलास के गुम जाने से दु:ख हो रहा है। अनित्य को नित्य माना इसलिये उस बड़े खर्च में दु:ख नहीं हुआ और इस गिलास को नित्य मान रहा था, यह सदा रहेगा तो उस प्रसंग में दु:ख होता है। तो दु:खी होना, सुखी होना यह सब कल्पनावों पर निर्भर है।
द्रव्यधर्म व पर्यायधर्म― साधारणरूप से यह बताया जाता है कि जगत के सभी पदार्थ विनश्वर हैं, नष्ट हो जाने वाले हैं, लेकिन वहाँ यह समझना कि पदार्थ नष्ट नहीं होता किंतु पदार्थ का परिणमन नष्ट होता है। ये पौद्गलिक ठाटबाट आज जिस शकल में हैं वह शकल मिट जायेगी, पर पदार्थ मूल से न मिट जायेगा। जगत् में जितने भी अणु हैं, जितने भी जीव हैं, जितने भी अन्य द्रव्य हैं उन सबमें न कोई एक कम हो सकेगा, न कोई एक ज्यादा हो सकेगा। उन पदार्थ में अनित्यता नहीं है, किंतु पदार्थ के परिणमन में अनित्यता है। पदार्थ से कौन प्रेम करता है? जो भी प्रेम करता है वह पदार्थ के परिणमन से प्रेम करता है।
परमार्थ में राग का अभाव― इन दृश्यमान् अचेतनों में वास्तविक पदार्थ है परमाणु। एक-एक परमाणु से कौन प्रेम करता है? यह परमाणु बड़ा अच्छा है, यह मुझे मिल गया, अरे परमाणु के तो विकल्प भी नहीं होता। तो परमार्थ तो परमाणु है, उससे कोई प्रेम नहीं करता। उन परमाणुवों का मिलकर जो यह ठाट बना है, यह मायाजाल है, मिट जाने वाला है। इसी तरह जीव के बारे में सोच लो। जीव में परमार्थ जीव तो जीवत्व तो एक शुद्ध चित्प्रकाश है। शुद्ध चैतन्यस्वभाव से कौन प्रेम करता है? यह चैतन्य बिगड़कर कर्मों का संबंध पाकर जो विकृत बन गया है उसमें लोगों का प्रेम होता है। यह मेरा भाई है, यह मेरा अमुक है, यह मेरा मित्र है, इस पिंडपर्याय में, इस विजातीय द्रव्यपर्याय में, इस भव में लोगों का प्रेम व्यवहार चलता है, तो जीव में तो परमार्थ है शुद्ध चैतन्य प्रकाश, उससे तो कोई मोह नहीं रखता, और इन जीव स्कंधों में परमार्थ पदार्थ है परमाणु। उस परमाणु से भी कोई प्रेम नहीं करता। कोई प्रेम करता है इंद्रजाल से अथवा मायाजाल से। इंद्रजाल तो जीव के विकार है। मायाजाल ये पुद्गल के विकार हैं। विकारों से ही लोगों को मोह हो रहा है, परमार्थ से जीव को मोह नहीं होता।
अविनाशी तत्त्व की भावना― अपने आपके बारे में यह ध्यान लाइये कि प्राणीरूप यह मैं भी विनाशीक हूँ। जो व्यवहार कर रहा है और जिन वस्तुवों से व्यवहार किया जा रहा है वह पदार्थ भी विनाशीक है। मैं अविनाशी हूँ, ज्ञानस्वरूप हूँ, शुद्धचैतन्यस्वरूप हूँ, ऐसी हम बार-बार अपने आपकी भावना बनाएँ, इससे ही हमें संतोष प्राप्त होता है। जगत् में जो कुछ होता वह सब भाग्य के अनुकूल होता। बड़े-बड़े बलवान् बड़े-बड़े अधिकारी अभिमान में चूर अपनी बुद्धि और बल का कौशल भी दिखायें, लेकिन भाग्य प्रतिकूल है तो वहाँ सिद्धि नहीं मिलती। अरे जो सरल हैं, दंदफंद नहीं मचाते हैं, शांति से रहते हैं, भाग्य उनके अनुकूल है तो उनका कोई बिगाड़ नहीं कर सकता। यह है बाहरी बात, सांसारिक बात। अत: इतना हम अधिक विकल्प न करके पाये हुए इस मनुष्यभव को एक शुद्ध ज्ञानमात्र अनुभव कर करके सफल बना लें तो यही क्लेश से हटकर आनंद में लाने का पुरुषार्थ है। अपने आपमें परमविश्राम पा सकें, एकदर्थ समस्त वैभव को अनित्य समझें और अपने स्वरूप को अविनाशी समझें।