वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 778
From जैनकोष
अंध एव वराकोऽसौ न सतां यस्य भारती।
श्रुतिरंध्रं समासाद्यं प्रस्फुरत्यधिकं हृदि।।
सत्संगमें सद्वाणीश्रवण से हृदयनेत्र के नैर्मल्य का अवसर- वे पुरुष अंध हैं जिनके कानों में संत पुरुषों की पवित्र वाणी प्राप्त नहीं होती और हृदय में एक ज्ञानप्रकाश प्रकट नहीं होता। रागभरी बातें सुनने को बहुत मिलें और उनमें रुचि करें, बड़े धीरे से बोली हुई बात भी खूब ध्यान से सुन लें तब वे वास्तव में श्रोता सही नहीं हैं। जो पुरुष भगवत्वाणी ज्ञानमयी चर्चा जो आत्मा को आत्मा के निकट ले जाने में प्रेरक हो वह चर्चा न सुनें, उसमें रुचि न जगे तो वे पुरुष बहरे ही हैं। और, ऐसे बहरे पुरुष लाखों भी साथ रहें तो रहे आयें, भले ही लोकव्यवहार की बात धनिक सुन लेवें, किंतु जो हित की बात है उसके सुनने में तो अभी बहरे हैं और दूसरे के अंत: की सही बात को कोई सुनने वाले नहीं हैं। दूसरे के स्वरूप की बात कानों से नहीं सुनी जाती, वह भी ज्ञानकर्ण से सुनी जाती हैं। एक विवेक से, भेदविज्ञान से दूसरे के स्वरूप की चर्चा समझ में आती है, तो वही पुरुष वास्तव में सुनने वाले हैं जो सत्पुरुषों की वाणी और वस्तु के स्वरूप की चर्चा सुनने में रुचि रखते हैं और वे ही पुरुष वास्तव में सूझता है जिनमें अपने आपके ज्ञानस्वरूप का शुद्ध प्रकाश जगा हुआ है, ये सब बातें प्रकट होती हैं वृद्ध पुरुषों की सेवा से। सत्पुरुषों की वाणी मनुष्य के हृदयनेत्र को खोल देती है। अन्य पुरुषों की वाणी जैसे घर में पुत्र, स्त्री वगैरह की, दूकान में ग्राहकों की वाणी अथवा अन्य व्यापारियों की वाणी आपके हृदयनेत्र को खोलती है या पर्यायबुद्धि पोजीशन आदिक खोटी भावनाओं को प्रकट करती है? अनुभव कर लीजिए। जिन पुरुषों ने सत्संग में अपनी रुचि बढ़ाया है, संत पुरुषों के गुणों पर दृष्टि दी है वे पुरुष उन्हीं गुणों की वृद्धि को प्राप्त होते हैं। वृद्धों की सेवा में स्वयं भी वृद्ध हो जाते हैं। वृद्ध के मायने बूढ़ा नहीं किंतु वर्द्धमान। जो अपने गुणों में बढने वाले हैं उनकी संगति से संगति करने वाले पुरुष भी वर्द्धमान बन जाते हैं अर्थात् अपने गुणों में बढ़े चढ़े हो जाते हैं। तो सूझते तब कहला सकते जब हम अपने आपके स्वरूप का प्रकाश भी पाते रहें।
मोहांधता मिटाकर सत्यद्रष्टा होने में कल्याण- देखिये- सूझते में होता क्या है? अहित से बचना और हित में लगना। नेत्रों से जो कुछ हम देखते हैं उस देखने का प्रयोजन क्या है? हित में लगें अहित से बचें। जैसे कोई पुरुष आँखों से देखते हुए भी कुवें में गिर पड़े तो उसे लोग यह कहते हैं कि तू क्या अंध हो गया था? क्या अंध हो रहा है? अर्थात् जो अहित में लगे उसे लोग अंध कहा करते हैं। तो सूझने वाले पुरुष वही हैं जो अहित से दूर होते हैं और हित में लगते हैं। यह बात संभव है अपने आत्मा में स्वरूप का शुद्ध प्रकाश पाने से। अब तक यह जीव मोह में अंध रहकर अपने स्वरूप का विचार न करके अनेक विषयों में लगा रहा, परंतु सुख रंच भी नहीं प्राप्त कर सका। तृष्णा ही बढ़ाया, कहाँ सुख मिला? जब यह दृष्टि बने कि मैं स्वयं सुखस्वरूप हूँ और मुझे सुख पाने के लिए अन्यत्र कहीं कुछ काम नहीं करना है, लो यहाँ बैठे हुए ही यह स्वयं ही सुखमय है। आत्मा में दु:ख का स्वभाव ही कहाँ है? आत्मा स्वयं ज्ञानानंदस्वरूप है, यह बात जब प्रतीति में जगे और इस प्रतीति के कारण बाह्यपदार्थों में कुछ करने की बुद्धि न बने, दुर्बुद्धि न बने, तो इसे सुख प्राप्त हो सकता है, लेकिन मोहवश मृगमारीच की तरह विषयों में सुख की कल्पना किए हुए है। ये जगत में जो प्राणी दिखते हैं इन प्राणियों को देखकर यह भी सही है अपने आपको देखकर मैं भी सही हूँ ऐसी जब मिथ्या प्रतीति करता है तो जन्म मरण के चक्र में रहने वाला, विपदा में पड़ा हुआ, लोक में यह अपनी पोजीशन बनाने की चाह रखता है, ये लोग मुझे कुछ समझ जायें। अरे ये लोग भी मायारूप हैं और जिसे कहता है कि मुझे समझ जायें वह भी मायारूप है। परमार्थ का परमार्थ से कोई नाता संबंध नहीं लगाया जा रहा है, किंतु माया की माया से ही पहिचान हो रही है। मेरे पहिचानने वाला दूसरा है कौन? यह सभी की बात कह रहे हैं। अपने आपको ऐसा विचार करें कि मेरे पहिचानने वाला इस जगत में दूसरा है कौन? यदि कोई मुझे पहिचान जाय तो उसकी भली बुरी दृष्टि ही नहीं हो सकती। उसके लिए फिर मैं व्यक्ति ही नहीं रहा, उसके लिए तो मैं एक ब्रह्म हो गया। ज्ञानब्रह्म से व्यवहार क्या? और, जो मेरे साथ व्यवहार करता, रागद्वेष करता, वचनालाप करता, परिणति करता ऐसी स्थिति में पड़ा हुआ पुरुष मुझे पहिचान नहीं रहा है तो मेरा जब यहाँ पहिचानहार भी नहीं है तो फिर उसका नाता कहाँ है? यहाँ तो माया की माया से पहिचान हो रही है। जिस समागम को जिस वैभव को देख-देखकर हम रीझ जाते है, जिस देह को देख-देखकर हम आसक्त हुआ करते हैं यह क्या चीज है? इसका कुछ अस्तित्व भी है क्या? यह कितनी देर के लिए है, यह कोई सारभूत भी है क्या? यह तो पानी के बबूले की तरह है। ये सारे जगत के समागम अत्यंत असार हैं। जब तक जीवन है, जब तक मोह की दृष्टि लगी है, जब तक मोह की नींद आ रही है तब तक ये मोह के स्वप्ने सब सही मालूम हो रहे है। पर सही है कुछ नहीं। सब असार है। सार तो तब माना जाय जब वहाँ संतोष हो और आनंद की झलक हो। लौकिक वैभव की प्राप्ति से किसी को संतोष हो सकता है क्या?
परिग्रह का परिमाण अथवा त्याग किये बिना संतोष का अलाभ- यहाँ संतोष हो सकता है सच्चे श्रावक को। जिसने परिग्रह का अंतरंग से परिमाण कर लिया है। परिग्रह परिमाण से उसका हृदय विभूति के प्रति कभी मलिन नहीं होता और किसी की बड़ी विभूति को निरखकर उसके आश्चर्य नहीं होता। उस सच्चे श्रावक के पास जो भी वैभव है उसी को आवश्यकता से अधिक समझकर संतोष कर लेता है। जिस मनुष्य ने परिग्रह का परिमाण नहीं किया, उसके तो वैभव के प्रति ऐसी तृष्णा लग जाती है कि वह उस वैभव के पीछे विह्वल रहता है, सुख से वह नहीं रह सकता। जिस अज्ञानी मनुष्य के तृष्णा घर कर गई है वह निरंतर बेचैन बना रहा करता है। अगर वैभव कुछ पास में है तो चोर, डाकू, बदमाश, रिश्तेदार, सरकार सभी सताते हैं। जिसके पास पर्याप्त मात्रा में वैभव है फिर भी उस वैभव के प्रति तृष्णा जगी है तो वह वैभव तो उसके लिए दु:ख का कारण है, क्योंकि उस वैभव के कारण और भी वैभव पाने की आशा लगी है। अरे भाई जैनशासन में यह बताया है कि आत्मा का धन तो ज्ञान और आनंद है। उसकी वृद्धि का प्रयत्न करें। यहाँ के ये लौकिक वैभव तो आज हैं कहो कल न रहें और जब तक हैं तब तक भी अत्यंत जुदे हैं, उनसे न कुछ सुख की किरण आती है, न ज्ञान की किरण आती है। यह आत्मा खुद परपदार्थों को विषय बनाकर अपने आपमें कल्पनाएँ गढ़ता है और कल्पनाओं से अपने को सुखी मानता है। अरे ज्ञानानंद स्वरूप को निरखें और इसकी दृष्टि का ही अधिकाधिक यत्न करें, यह जैनशासन का सुगम सीधा उपदेश है। रही गुजारे की बात। धर्म दो प्रकार के होते है गृहस्थधर्म और साधुधर्म। साधुधर्म में तो चूँकि साधु अनासक्त है, अतएव भिक्षावृत्ति का उपदेश किया है ताकि वे निश्चिंत होकर आत्मध्यान के पात्र रह सकें। और गृहस्थों को उपदेश दिया है कि तुम पुरुषार्थ करो आजीविका चलाने का, किंतु साधारणरूप से पुरुषार्थ करो। भाग्यवश जो कुछ भी प्राप्त हो जाय उसमें ही गुजारा कर सकने का साहस बनायें। आजीविका, धर्मपालन, दान, परोपकार आदिक के विभाग बनाकर उसी में गुजारा चलायें। अपना दृढ़ संकल्प रखें धर्मपालन का।
दृष्टि की समीचीनता में ही वास्तविक अमीरी- देखिये कोई मनुष्य गृहस्थ ही हो और धन से उसकी कोई अच्छी स्थिति न हो और ज्ञान ध्यान में चित्त अधिक लगता हो, सत्पुरुषों ने क्या-क्या उपदेश दिया है उन सब उपदेशों में, उन सबके ज्ञान में जिनकी अधिक रुचि बढ़ी हुई हो, जो अपने को वृद्ध करके संतुष्ट रहा करते है उनका जीवन कहाँ दु:खी है? उनका जीवन तो प्रसन्न है। न हो कुछ भी धन वैभव तो न सही लेकिन ऋषि संतों द्वारा अपने जीवन भर के उग्र साधना द्वारा किए गये अनुभव जो लिखे गए हैं उनका जिन्होंने परिज्ञान किया हो वे तो स्वयं संतुष्ट हैं, अमीर हैं। सच पूछो तो जिनकी दृष्टि सम्यक् बन गयी है, इस आत्मतत्त्व की ओर जिनकी रुचि जगी है वे ही पुरुष अमीर हैं और जिनकी दृष्टि बाह्यपदार्थों की ओर लगी हो वे पुरुष गरीब हैं। एक कथानक है कि किसी फकीर को एक पैसा कहीं पड़ा हुआ मिल गया। सोचा कि इसे ऐसे व्यक्ति को दूँगा जो दुनिया में सबसे गरीब हो। उसने सबसे गरीब व्यक्ति ढूँढ़ा पर कोई न मिला। देखा कि एक राजा हाथी पर बैठा हुआ किसी राजा पर चढाई करने जा रहा है, सोचा कि यह है सबसे गरीब, सो उसके ऊपर वह पैसा फेंक दिया। राजा कहता है कि तुमने यह पैसा मुझे क्यों दिया? फकीर बोला- राजन् यह पैसा मुझे पड़ा हुआ मिला था, मैंने सोचा था कि यह पैसा मैं ऐसे व्यक्ति को दूँगा जो दुनिया में सबसे गरीब हो। सो दुनिया में सबसे गरीब मुझे आप ही दिखे। राजा बोला- मैं गरीब कैसे? तो फकीर ने कहा- अगर आप गरीब न होते तो दूसरे का धन हड़पने के लिए क्यों जाते। राजा को बोध हुआ और वही से लौट गया। तो जो इच्छा रहित मनुष्य है वही सुखी है। दुनिया चाहे मुझे कुछ भी कहे पर मेरा भवतव्य दुनिया के अधीन तो नहीं है। मेरा भवतव्य तो मेरे ही ज्ञान के अधीन है। सो अपने आपके ज्ञान में रहकर प्रसन्न रहा करें इससे ही इस दुर्लभ मानवजीवन की सफलता है।