वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 802
From जैनकोष
मनोऽभिमतनि: शेषफलसंपादनक्षमं।
कल्पवृक्षमिवोदारं साहचर्यं महात्मनाम्।।
महात्माओं के साहचर्य से अभिमतसिद्धि- महापुरुषों का संग कल्पवृक्ष के समान सर्व प्रकार के मनोवांछित फल को देने वाला है। सच्चे मनुष्यों की सेवा से मनुष्यों में ऐसी उत्कृष्टता प्रकट होती है कि वहाँ अनेक पुण्यकर्म का बंध हो जाता है और उन पुण्यकर्मों के उदय में इस जीव को अनेक सुख साधन प्राप्त होते हैं। यहाँ जिन्हें जो कुछ समागम मिला है जरा विचार तो करो, जो कुछ जिसे वैभव प्राप्त हुआ है उसकी प्राप्ति क्या हाथ पैरों ने की है या दिमाग ने की है? यह सब पुण्य के उदय का फल है। एक कथानक है कि एक साधु कहीं जा रहा था, रास्ते में उसे ब्रह्माजी मिले, उस समय ब्रह्माजी किसी लड़के का भाग्य बना रहे थे। साधु ने पूछा- क्या कर रहे हो ब्रह्माजी? तो ब्रह्मा बोले कि एक लड़के का भाग्य बना रहे हैं।...कैसा भाग्य इसका आप लिख रहे हो?...5 रुपये और एक काला घोड़ा।...इसे पैदा कहा करोगे?...एक लखपति के घर में।...अरे आप यह क्या कर रहे हो? यदि लखपति के यहाँ पैदा करना है तो लखपति जैसा भाग्य बनावो, नहीं तो किसी गरीब के यहाँ पैदा कर दो। चुप रहो, तुम्हें इससे क्या मतलब? हमारी जो इच्छा होगी सो करेंगे। तो साधु को क्रोध आया, बोला तुम्हें जो इसके भाग्य में लिखना है सो लिखो, मैं उसे मेटकर रहूँगा। अब वह लड़का एक करोड़पति के घर पैदा हो गया। जब वह 10-12 वर्ष का हुआ तब तक सारी संपदा खतम हो गयी, वैभव समाप्त हो गया, मकान भी बिक गया, एक झोपड़ी बनाकर रहने लगा। उसके पास रह गया एक काला घोड़ा और 5 रुपये। बारह वर्ष के बाद वही साधु महाराज उस नगर में से निकलें तो ख्याल आ गया कि यही तो वह लड़का है जिसके भाग्य में एक काला घोड़ा और 5 रु. लिखे गये थे और हमने यह संकल्प किया था कि उसके उस भाग्य को हम मेटकर रहेंगे। सो पता लगाकर उस झोपड़ी के पास साधु पहुँचा। साधु ने कहा- बेटा जो हम कहेंगे सो तुम करोगे?...हाँ हाँ महाराज जो आप कहोगे सो करेंगे। अच्छा तुम्हारे पास क्या है?...एक काला घोड़ा और 5 रुपये।...अच्छा घोड़े को बाजार में बेच आवो। वह बेच आया, तब 105 रु. हो गए। साधु बोला कि इन 105 रुपयों का घी, आटा, शक्कर वगैरह लावो और पूडियाँ बनाकर गाँव के सभी लोगों को खिला दो। उसने वैसा ही किया। जब रुपये और घोड़ा उसके पास कुछ भी न रहा तो ब्रह्म दूसरे दिन फिर 5 रुपये और एक काला घोड़ा भेजते हैं। साधु ने दूसरे दिन भी वही काम करने को कहा। इस तरह करीब 15 दिन तक ब्रह्माजी काला घोड़ा और 5 रु. भेजते रहे, पर उसके बाद विचार किया कि रुपये तो चाहे जहाँ से टपका देंगे पर एक घोड़ा रोज-रोज कहाँ से लायें? सो ऊबकर ब्रह्माजी उस साधु के पास आकर हाथ जोड़कर कहते हैं महाराज माफ करो, अब तुम जैसा चाहो वैसा इसका भाग्य बनावेंगे। सो साधु बोला- इसका वैसा ही भाग्य बनावो जैसा कि करोड़पति इसका बाप था। आखिर वैसा भाग्य बनाना पड़ा। तो इस कथानक से तात्पर्य वह निकालना कि सच्चा काम करने से भाग्य भी पलटा जा सकता है। जब परिणाम से ही भाग्य बना और भाग्य से जब यह समृद्धियाँ प्राप्त हुई तो खोटे परिणाम से यदि पाप का बंध किया जा सकता तो अच्छा परिणाम करने से पाप को रोका जा सकता है। पुण्यबंध होगा और उदय में सर्वसमृद्धियाँ प्राप्त होंगी तो अच्छा परिणाम सत्पुरुषों के समागम से बनता है।
सच्चरित्रों के चरित्रस्मरण में सत्संगरूपता- जब कभी लोग तीर्थयात्रा करते हैं तो जानते क्या हैं? उन महापुरुषों की जीवनी? इन्होंने तप किया, मोक्ष पाया और इतने बड़े-बड़े चारित्र पाले, यों उनके जीवन-चरित्र का स्मरण कराते हैं, तो वह संतों का चारित्र ही तो स्मरण किया गया, उससे विशेष पुण्यबंध करते हैं। कहीं सत्पुरुषों के संग में भक्तिपूर्वक आप बैठें तो जितने भी अवगुण हैं मोहादिक उन सबकी शिथिलता हो जाती है। तब वहाँ विशेष पुण्य का बँध होता और सर्वप्रकार के मनोवांछित कार्य सिद्ध हो जाते हैं, चिंतन से, शोक से, चिंता से अभीष्ट कार्य सिद्ध नहीं होते। किसी चीज की परवाह न करें, जो भी स्थिति आये उसमें प्रसन्न रहे, ज्ञाताद्रष्टा रहे, अपने आपका अधिक चिंतन रखे, पर चिंतन न रखे तो ऐसे उत्कृष्ट की प्राप्ति होती है और उस पुण्य के कारण सर्वमनोरथ कार्य सिद्ध होते हैं। वहाँ यह आत्मा स्वयं धर्म है, कल्पवृक्ष है, इसकी छाया में रहकर जो आप चाहें सो मिल जायेगा। अगर कोई खोटी-खोटी की कल्पनाएँ करे, इन जड़ वैभवों की चाह करे तो बस उसको एक यह तुच्छ वैभव मिल जाता है और जो कार्य आत्मा का, शांति का, मोक्ष का है वह इसका हट जाता है। चाहिये यह कि हम चाहें तो सर्वोत्कृष्ट वैभव चाहें। सर्वोत्कृष्ट वैभव है मोह हटे और अपने आपको ज्ञानमात्र निहारा करें। दुनिया जाने या न जाने। सर्वप्रकार के विकल्पजालों को तोड़कर मैं केवल अपने ज्ञानमात्र अंतस्तत्त्व में मग्न हो जाऊँ, ऐसा ही प्रयत्न रखना चाहिए।
सत्संग की कल्पवृक्षसम उदारता- एक जगह एक कथानक लिखा था कि एक मनुष्य गर्मी के दिनों में तेज धूप में कहीं जा रहा था। गर्मी से दु:खी होकर उसने चाहा कि कोई पेड़ मिल जाय तो मैं उसके नीचे बैठकर कुछ देर आराम कर लूँ। चलते-चलते रास्ते में उसे एक पेड़ मिल गया। वह पेड़ था कल्पवृक्ष। उसके नीचे बैठकर जो चाहे सो मिल जाय। बैठ गया। अब वह चाहता है कि छाया तो मिल गयी, मगर थोड़ी हवा चल जाय तो और अच्छा है, हवा भी चलने लगी। बाद में सोचता है कि प्यास लगी है, यदि थोड़ा पानी मिल जाता तो और अच्छा था। एक लौटा पानी भी आ गया। अब सोचता है कि फल मिलते तो अच्छा था। लो फलों से सजा सजाया थाल भी आ गया। अब सोचता है कि यहाँ कोई है भी नहीं, दे कौन जाता है? यहाँ कोई भूत तो नहीं रहता? लो भूत भी आ गया। फिर सोचा कि यह मुझे खा न जाय, तो उसे खा भी गया। तो कल्पवृक्ष ऐसी चीज है कि जो चाहो सो मिल जाय। ऐसी ही कल्पवृक्ष जैसी निधि हम आपके पास है, अपना जो परमात्मतत्त्व है वही अपनी अमूल्य निधि है, वह अमूल्य निधि इस जीव को प्राप्त नहीं होती और बाह्यपदार्थों में ही उलझे रहते हैं और अंत में मरण करके इस संसार में भटकते रहते हैं। तो ये सब सुबुद्धि सत्पुरुषों की संगति से प्राप्त होती हैं। उनके गुणों का चिंतन करें, अपने अवगुणों को दूर करें तो ये सब संग कल्पवृक्ष के समान हमें उत्तम आनंद को प्रदान करेंगे।