वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 801
From जैनकोष
कुर्वन्नपि तपस्तीव्रं विदन्नपि श्रुतार्णवम्।
नासादयति कल्याणं चेद्वृद्धानवमन्यते।।
वृद्ध पुरुषों के अवगमन से कल्याणलाभ की असंभवता- यदि कोई मनुष्य सत्पुरुषों का अपमान करता है, संतों की आज्ञा में नहीं रहता है तो वह मनुष्य चाहे बहुत तप भी करे, चाहे बड़े-बड़े शास्त्रों का ज्ञान भी कर ले परंतु कल्याण प्राप्त नहीं कर सकता। लोक में परमपद 5 हैं। उन पदों में जो स्थित होते हैं उन्हें परमेष्ठी कहते हैं। संसार के प्राणी विषय कषायों के ध्यान में चल रहे हैं, नाना शरीर धारण करके दु:ख भोग रहे हैं। ऐसे ये प्राणी क्या कर्तव्य करें कि इनका दु:ख दूर हो जाय? वह कर्तव्य जिन्होंने किया है उनको ही परमेष्ठी कहते हैं। लोक में नमस्कार करने योग्य कौन है? इस पर विचार करें तो मन यह कह बैठेगा कि जिसमें दोष तो एक भी न हो और गुण पूरे हो वे नमस्कार करने के योग्य हैं। क्या जिनके ऐब हैं वे भी नमस्कार किए जाने चाहिए? मन तो यही कहेगा कि ऐब वाला पुरुष नमस्कार के योग्य नहीं है। जिसमें अवगुण न हों, पूर्ण गुण प्रकट हो गए हों, वही तो नमस्कार करने के योग्य है। तो नमस्कार के योग्य वह आत्मा है जिसके दोष एक न हो और गुण पूरे विकसित हो। यह नमस्कार किए जाने वाले पुरुषों की परिभाषा है। यहाँ भी लोक में हम उसका आदर करते हैं जिसमें ऐब कम हों और गुण ज्यादा हों। यहाँ ऐसा मनुष्य कोई न मिलेगा जिसमें अवगुण रंच भी न हों और पूरे गुण हों। जिसमें पूर्ण गुण प्रकट हो जाते हैं और दोष एक भी नहीं रहते हैं उस ही का नाम परमात्मा है। परमात्म में दो शब्द हैं- परम और आत्मा। परम का अर्थ है उत्कृष्ट और आत्मा मायने जीव। जो उत्कृष्ट जीव है, जिसमें गुण पूर्ण प्रकट हो गए हैं, अवगुण एक भी नहीं रहे ऐसे आत्मा को परमात्मा कहते हैं। तो नमस्कार करने के योग्य सर्वोत्कृष्ट है परमात्मा। अब यहाँ देखिये कि आत्मा में गुण क्या हुआ करते हैं, और अवगुण क्या हुआ करते हैं, जो गुणों में पूर्ण बन जाय और अवगुण एक न रहे सो परमात्मा कहा जाय। तो आत्मा के गुण हैं ज्ञान, श्रद्धान, चारित्र, आनंद और आत्मा के अवगुण हैं मोह, काम, क्रोध, मान, माया, लोभ, विषयों का अनुराग और इनका ही विस्तार बढ़ाते जाइये। किसी से ईर्ष्या करना, किसी से छल करना, मायाचार करना, परिग्रह का लालच रखना, असद्व्यवहार करना, असत्यसंभाषण करना ये सारे अवगुण कहलाते हैं। तो जिसमें अवगुण तक न हों और गुण समस्त हों उसे कहते हैं परमात्मा। सर्वोत्कृष्ट नमस्कार के योग्य है परमात्मा।
सत्संग किये जाने योग्य संतों का विवरण- यहाँ संतों की परिभाषा की जा रही है। सबसे उत्कृष्ट संत हैं भगवान, पर भगवान शब्द विशेष है अतएव उनमें संत का व्यवहार नहीं करते संत का सही अर्थ है अच्छा, उत्तम। परमात्मा की पूर्ण अवस्था और एक परमात्म अवस्था ऐसी दो अवस्थायें होती हैं। कोई भी गृहस्थ यहाँ हम आपमें से जो आजकल तो उत्कृष्ट अध्यात्मसाधना नहीं है, पूर्वकाल में थी, कुछ विवेक पाकर ज्ञानरूप से आद्र होकर जब एक आत्मसाधना के लिए ही उत्सुक हो जाता है तो उसे बाहरी चीजों की सुध नहीं रहती। घर बार छोड़कर और समस्त श्रृंगार, आभूषण, वस्त्र आदि त्यागकर केवल शरीर मात्र रहकर एक अपने अंत:विराजमान आत्मा का ध्यान किया करता है, इस साधना का नाम है साधुता। जो ऐसा एकचित्त होकर पर से विरक्त होकर अपने आपके ज्ञानस्वरूप की साधना करता है उसका नाम है साधु। साधुजन सुख दु:ख, सम्मान अपमान इनमें समताभाव धारण करते हैं। साधुवों की दृष्टि में न कोई शत्रु है, न कोई मित्र है, सब जीवों के प्रति एक समान दृष्टि रहती है। ऐसे साधु जहाँ अनेक हो जाते हैं तो उन साधुवों में व्यवस्थापक एक बनाना पड़ता है जिसे आचार्य कहते हैं। जो सब साधुवों की साधना देखे, और उनसे कोई अपराध बने तो उनका प्रायश्चित्त दे, दंड दे, उनको शुद्ध करे, ऐसी जिनमें महिमा होती है उन्हें कहते हैं आचार्य। और, उन सब साधुवों में जो विशेष विद्वान होते, जिन्हें आचार्य पढ़ाने का काम सौंपते हैं उन्हें कहते हैं उपाध्याय। यों मुनियों में ये तीन प्रकार के उत्कृष्ट पद है- साधु उपाध्याय और आचार्य। ये सब साधु जिन्हें किन्हीं बाह्यवस्तुवों से कुछ प्रयोजन नहीं रहा, केवल एक आत्मसाधना में ही रत रहा करते हैं उनमें से जिस साधु ने परमसमाधि धारण कर ली, अपने आत्मरस में गुप्त हो गया, और विलक्षण आत्मीय आनंद का अनुभव किया वह मनुष्य चारघातिया कर्मों का नाश करके परमात्मा बन जाता है। इन सब परमेष्ठियों की उपासना सत्संग है।
अपराधक के कारणभूत कर्मों का विवरण- देखिये प्रत्येक जीव के साथ 8 प्रकार के कर्म लगे हैं, जिनमें ज्ञानावरण नाम के कर्म के कारण ज्ञान ढका हुआ है। देखिये जीवों में नाना तरह के ज्ञान पाये जाते हैं, किसी में कम हैं, किसी में विशेष हैं। तो ये जो थोड़े बहुत ज्ञानभेद मालूम होते हैं यह एक कर्म की उपाधि का प्रभाव है, नहीं तो हम आप सब आत्मा ज्ञानस्वरूप ही तो हैं। ज्ञान ही तो इनके पड़ा है, ज्ञान के सिवाय इसका और रूपक क्या है? जो ज्ञान नहीं है वह पूर्ण ज्ञानी नहीं रहा, इसमें कोई कारण तो होगा, वह कारण है कर्म का उदय। एक दर्शनावरण नाम का कर्म हैं, इस कर्म के कारण यह आत्मा अपने आत्मा का दर्शन नहीं कर सकता। जैसे हम बाहरी चीजों को समझ पाते हैं। इस प्रकार हम अपने आत्मा की समझ नहीं कर पाते। एक वेदनीय कर्म है जिसके कारण जीव सुख दु:ख बनाया करता है। जब साता का उदय होता है तो जीव को सुख के साधन मिलते हैं और उसमें जीव सुख मानता है, और जब असाता का उदय होता है तो जीव दु:ख मानता है, मोहनीय कर्म के उदय से यह जीव पर में मोहित होता है। देखिये- पर बिल्कुल न्यारी चीज है, अलग जगह हैं, स्त्री हो, पुत्र हो, मित्र हो, धन वैभव हो, ये सब बिल्कुल न्यारी चीजें हैं, अपने आत्मा से वैभव का क्या संबंध? कोई वैभव को चिपकाकर लाया है क्या? घर की जगह घर पड़ा है, कुटुंब की जगह कुटुंब है, आप तो अपने शरीर में अकेले हैं, कोई संबंध भी है क्या? शरीर तक से तो संबंध नहीं है, अन्य वैभव से तो संबंध क्या होगा, लेकिन अत्यंत न्यारे ये परपदार्थ है, उनमें इस जीव को मोह पैदा होता है, उनमें राग करता है, द्वेष करता है जीव। यह सब मोहनीय कर्म का प्रभाव है। जीव के साथ आयु कर्म लगा है, जितनी जिसकी आयु है उतने समय तक यह जीव इस देह में बना रहता है। जब आयु का अंत होता है तो यह जीव इस देह को छोड़कर चला जाता है। जीव के साथ नामकर्म लगा है जिसके कारण अन्य-अन्य चित्र विचित्र शरीर प्राप्त हो जाते हैं। एक गोत्र कर्म है जिससे लोक व्यवहार में कोई उच्च कुल का, कोई नीच कुल का कहलाता है। ऊँच नीच कुल में जन्म होता है। अंतराय कर्म के उदय से विघ्न आया करते हैं। कोई चीज प्राप्त हो रही हो, अंतराय आ जाय, दान देने का भाव न हो सके, भोग उपभोग करने की शक्ति न आ सके, अपने आपकी शक्ति बिगड़ती जाय, यह सब अंतराय के उदय से होता है। तो ऐसे कर्मों से आवृत्त यह जीव है।
कर्मावृत जीव के अकल्याण व कल्याण की विधि- कर्मावृत इस जीव को कल्याण मिले उसका उपाय क्या है, उसका उपाय सर्वप्रथम तो यह है कि संत मनुष्यों की आज्ञा में रहें। लोग मोहवश जितनी आज्ञा स्त्री की मानते हैं उतनी आज्ञा क्या किसी साधु की कोई मानता है? खूब सोच लो। कितना श्रृंगार करना, गहने बनाना, तिस पर भी चाहिए ऊपर से अपने पोजीशन की वजह से स्त्री के हाथ नहीं जोड़ते, मगर अंदर से इतना नम्र रहते हैं कि मानो हाथ जोड़े ही बने रहते हैं। तो जितने मोही जीव हैं वे स्त्री की आज्ञा में अधिक रहते हैं, उसे वे अप्रसन्न नहीं देख सकते, उनके दु:खी हो जाने पर आप खुद दु:खी हो जाते हैं, पर यह बतलावो कि इन परिजनों की आज्ञा में बने रहने से इसको लाभ क्या हुआ अब तक? न परिणामों में बल मिला, न आत्मा में कोई प्रभाव की बात जगी, न शांति का उदय हुआ। जितना दु:खी 10-20 वर्ष पहिले थे उससे भी और ज्यादा दु:खी आज मालूम पड़ते हैं, यह मोही जीवों की आज्ञा शिरोधार्य करने का ही तो फल है। सर्वप्रथम जिन्हें कल्याण चाहिये हो उन्हें आवश्यक है कि वे सत्पुरुषों की अवज्ञा न करें और उनकी आज्ञा में रहें। जो मनुष्य सत्पुरुषों की आज्ञा में नहीं रहता उसका कभी भी कल्याण नहीं हो पाता। पूर्णरूप से आज्ञा साधु पाल सकते हैं। आचार्य महाराज यदि किसी साधु को यह हुक्म दे दें कि तुमको आज दिनभर इस गर्मी में पहाड़ पर तप करना पड़ेगा तो वह तप करने लगता है। जो प्रायश्चित्त दे, जो आज्ञा दे उसका वह पालन करता है क्योंकि उसे विदित है कि हमारी आत्मा के रक्षक ये आचार्यजन हैं, ये संतजन हैं, तो जो मनुष्य सत्पुरुषों की सेवा नहीं करते, बूढ़ों का सम्मान नहीं रखते वे अधिक तप भी करें और बड़े-बड़े शास्त्ररूपी समुद्र का अवगाहन भी करें, फिर भी वे कल्याण को, शांति को प्राप्त नहीं हो सकते।