वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 88
From जैनकोष
गलत्येवायुरव्यग्रं हस्तन्यस्ताग्बुवत् क्षणे।
नलिनीदलसंक्रांतं प्रालेयमिव यौवनम्।।88।।
आयु का गलन― जीवों की आयु तो अंजुली में रक्खे हुए जल की तरह क्षण-क्षण में निरंतर झरती है और जवानी कमलिनी के पत्र पर पड़े हुए जलकण की तरह तत्काल ढलक जाती है, फिर भी वह स्थिर रहे ऐसी इच्छा करता है। इस श्लोक में आयु और जवानी की अनित्यता पर विचार किया है। अंजुली अंगुलियों की गोल कटोरी को कहते हैं। जैसे उसमें रखा हुआ पानी झरता जाता है ऐसे ही इस देह में बसे हुए जड़, साथ लगे हुए ये आयुकर्म, इनके निषेक प्रतिक्षण झरते जाते हैं और जैसे कोई घटे तो अंजुली का पानी एकदम भी झर जाता है ऐसे ही आयुकर्म की उदीर्णा चले तो आयुकर्म सबका सब अंतर्मुख में ही झड़ जाता है। ऐसा तो है आयु का चरित्र। जिस आयु की जीव वांछा करते हैं, प्रत्येक जीव जीना चाहते हैं, एक नरकगतिक ही जीव ऐसे हैं जो जीना नहीं चाहते हैं, पर शेष सभी संसारी जीव अपना जीवन चाहते हैं। मरण का भय रहता है, आयु के विनाश को नहीं चाहते। लेकिन यह आयु किसी के रोके नहीं रुकती है। कैसी भी कोई कलायें बनाये, पर किसी की आयु स्थिर नहीं रह सकती है। लेकिन यह मोही प्राणी उस आयु को स्थिर करना चाहता है।
यौवन की अस्थिरता― यौवन भी क्षणविनश्वर है। यौवन क्षण मात्र में ढलक जाता है। जवानी के 10 वर्ष जिनमें युवावस्था का जोर रहता है कैसे निकल जाते हैं? कुछ पता नहीं पड़ता। जैसे कमलिनी के पत्र पर पड़ी हुई बूँदे ढलकती रहती हैं, वे स्थिर नहीं रह पातीं, इस ही प्रकार यह यौवन किसी के स्थिर नहीं रह पाता, किंतु मोही प्राणी इस यौवन को सदा स्थिर रखना चाहते हैं। जो जीव का किया हुआ हो सकता है उसे तो जीव करना नहीं चाहता और जिस पर इस जीव का अधिकार नहीं है, निमित्तनैमित्तिक योग से हो रहा है, ऐसी अनहोनी बात का जो इसके अधिकार में नहीं है उसकी यह इच्छा कर रहा है।
जीव के वश की बात― जीव का वश है अपने आपके सहज स्वरूप की भावना और सहजस्वरूप में मग्न होने पर इसमें किसी भी परवस्तु की आधीनता नहीं है। पैसा हो तो हम अपने इस आत्मधर्म को कर सकें ऐसी होड़ नहीं है। बल्कि पैसों पर दृष्टि हो तो यह जीव आत्मधर्म को कर भी नहीं सकता है। इतना सुगम और स्वाधीन निज सहज काम तो इस जीव को कठिन लग रहा है और जिस पर अपना अधिकार नहीं वैभव जब आए, जितना आए, जैसा आये जब जाय, जैसा जाय, जाय। जिस पर जीव का अधिकार नहीं उसको यह स्थिर करना चाहता है। यह भी सबसे बड़ी कठिन समस्या है। यह विपदा जीव पर है। हे आत्मन् ! यदि आत्म-शांति चाहते हो तो अब निज सहजस्वभाव के ग्रहण रूप स्वाधीन सुगम में लगो।