वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 924
From जैनकोष
अयं समुत्थित: क्रोधो धर्मसारं सुरक्षितम्।
निर्दहत्येव नि:शंक शुष्कारण्यमिवानल:।।924।।
क्रोध द्वारा सुरक्षित धर्मसार का निर्दहन― व्यक्त हुआ यह क्रोध सूखे वन को जैसे अग्नि शीघ्र ही दग्ध कर देती है इसी प्रकार स्वजन धर्मरूपी सार जल को अथवा धर्म को नि:संदेह दग्ध कर देता है। जैसे अग्नि को बुझाने वाला जल होता है, पर कभी ऐसा मौका होता है कि अग्नि जल को भी भस्म कर देती है, उड़ा देती है, गर्म करके भाप बनाकर उसे उड़ा देती है। तो जैसे अग्नि में यह सामर्थ्य है कि अपने आपको भस्म कर देने वाले जल को भी भस्म कर देती है ऐसे ही क्रोध में भी ऐसी सामर्थ्य है कि क्रोध को शांत कर देने वाला, बुझा देने वाला धर्मरूपी जल है उसको कभी-कभी यह क्रोध जलाकर खतम कर देता है। अर्थात् बहुत कठिनाई से प्राप्त किए हुए इस धर्म को यह क्रोध तत्क्षण ही नष्ट कर देता है। तो क्रोध कषाय से कुछ सम्हाला हुआ मोक्ष मार्ग भी नष्ट हो जाता है और लोकव्यवहार में क्रोधी पुरुष को बहुत-बहुत आपत्तियों का सामना करना पड़ता है।