वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 923
From जैनकोष
तप:श्रुतयमाधारं वृत्तविज्ञानवृद्धितम्।
भस्मीभवति रोषेण पुंसां धर्मात्मकं वपु:।।923।।
रोष द्वारा आत्मा के धर्मात्मक शरीर का भस्मीकरण― चारित्र से और विशिष्टज्ञान से बढ़ाये हुए तप स्वाध्याय और संयम का आधारभूत जो पुरुषों का धर्मरूपी शरीर है अर्थात् धर्ममूर्ति है उस धर्मरूप शरीर को क्रोध अग्नि भस्म कर देती है। लोग उसे बड़ा बेवकूफ कहते हैं। कोई ज्ञानी पुरुष हो, विद्वान हो, साधु हो और क्रोध करे तीव्र, तो विवेकीजन उसे मूढ़ कहते हैं, और, कितना अंतर आ जाता है जब कोई साधु और गृहस्थ का प्रसंग आये कि साधु तो अटपटी बात रखकर बहुत क्रोध कर रहा है और वह गृहस्थ नम्र वचनों से साधु को शांत व संतुष्ट रखने का यत्न करता है तो उस समय बतलाओ संत कौन है और गृहस्थ कौन है? उस समय तो वह गृहस्थ संत है। एक कथा बहुत प्रसिद्ध है कि एक मुनिराज एक जंगल में नदी के किनारे ध्यान करते थे। वहाँ एक बड़ी सुंदर पत्थर की चट्टान पर वह मुनि ध्यान करता था। एक बार जब आहार करके वह मुनि उस चट पर ध्यान करने आया तो देखा कि एक धोबी उस पर कपड़े धो रहा है। मुनि ने उस धोबी को उस पर कपड़े धोने के लिए मना किया। धोबी बोला― महाराज ध्यान तो नीचे भी किया जा सकता है, पर कपड़े तो इसी पर धोना ठीक है। आखिर वह मुनि उस धोबी से झगड़ने लगा। बड़ा विवाद छिड़ गया, झड़प भी हो गयी। धोबी तहमद लगाये था सो वह भी छूट गया। अब दोनों ही नग्न दिगंबर रूप हो गये। जब मुनि बड़ा हैरान हो गया तो कहता है― अरे यह कैसा निषिद्ध काल है। मुनिराज पर ऐसा उपसर्ग आया है कोई देव इस उपसर्ग को दूर करने भी नहीं आते। तो कोई देव बोला कि हम लोग मुनि का उपसर्ग दूर करने के लिए पहिले से तैयार हैं पर हम लोग इस भ्रम में हैं कि इनमें से कौन तो मुनि है और कौन धोबी है? मुनिराज भी बहुत-बहुत नाराज हो रहे हैं बड़ा क्रोध कर रहा है तो इन दोनों में कोई अंतर नहीं मालूम हो रहा इससे देव लोग मुनि का उपसर्ग दूर करने में असमर्थ हैं। तो यह क्रोध बड़ी निकृष्ट चीज है। बहुत-बहुत यत्नों से बढ़ाया गया चारित्र भी इस क्रोध रूपी अग्नि से शीघ्र ही भस्म हो जाता है।