वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 931
From जैनकोष
क्रोधवहने: क्षमैंकेयं प्रशांतौ जलबाहिनी।
उद्दामसंयमारामवृत्तिर्वात्यंतनिर्भरा।।931।।
क्षमा की ही क्रोधाग्निशमन में क्षमता― क्रोधरूपी अग्नि को शांत करने के लिए क्षमा ही एक अद्वितीय नदी है। जैसे नदी का प्रवाह जहाँ से चला जाय वहाँ फिर अग्नि का क्या काम है, अग्नि बुझ जायगी इसी प्रकार यह क्षमा एक ऐसी अद्वितीय नदी है कि जहाँ क्षमा परिणति बनी वहाँ क्रोधरूपी अग्नि नहीं रह सकती। क्षमा से ही क्रोध की अग्नि बुझती है और क्षमा ही उत्कृष्ट संयमरूपी उपवन की रक्षा करने के लिए एक अद्वितीय दृढ़ बाढ़ है। जैसे बाग में चारों तरफ खूब ऊँची भींत की बाढ़ लगी हो तो वहाँ सूकर आदिक जानवर फसल नष्ट करने वाले नहीं प्रवेश कर सकते। ऐसे ही जहाँ क्षमारूपी बाढ़ चारों ओर लगी है वहाँ संयम का विघात नहीं हो सकता। जहाँ क्षमा है वहाँ क्रोध नहीं, जहाँ क्षमा है वहाँ संयम में बाधा नहीं। व्रत नियम बहुत करे लेकिन तीव्र क्रोध यदि जग गया तो वे सारे नियम व्रत भंग हो जाते हैं। क्रोध अग्नि के कारण बहुत-बहुत कमाये हुए भी गुण हों तो भी नष्ट हो जाते हैं। जिसे मुक्ति चाहिए उसको आत्मध्यान आवश्यक है और आत्मध्यान वही कर सकता है जिसे सम्यक्त्व हो, ध्यान सच्चा हो और संयम में चले। और इस रत्नत्रय में, तपश्चरण में वही पुरुष चल सकता है जो कषायों पर विजय प्राप्त कर ले। जिसके क्षमाभाव है वह तो एक ऐसी ढाल है कि बंधने वाले कर्म बंधनों से आने वाली विपदा को यह क्षमा ढाल दूर कर देता है। क्षमावान पुरुष का कौन बिगाड़कर पाता है? हो सही रूप में क्षमावान। तत्त्वज्ञानी ही क्षमावान होता है। कोई कुछ चेष्टा करता है तो वह उसकी परिणति है, उसका परिणाम है, मेरा उसने कुछ नहीं किया। मैं ही दूसरे की प्रतिकूल परिणति देखकर अपने आपमें क्षुब्ध हो जाऊँ तो यह मेरा अपराध दूसरे के दु:खी करने से मैं दु:खी नहीं होता, खुद का ही ज्ञान इस रूप बना लेते कि दु:खी हो जाते। जो विशेष तत्त्वज्ञानी पुरुष हैं वे अपने आपमें नि:शंक रहते हैं। सब ज्ञान की ही तो महिमा है। जैसे अदालतों में वकील लोग या और बड़े ऊँचे-ऊँचे जानकार पुरुष नेता लोग नि:शंक होकर चले जाते हैं और जो काम करना होता है उसे करके आते हैं और कोई देहाती जो अल्पज्ञ है, जो नासमझ है उसके होशहवास अदालत में जाते ही उड जाते हैं। वह किसी भी जगह आने-जाने में कांपता है। तो उसके डरने का कारण क्या है? उसे कायदे कानून कुछ मालूम नहीं है, नासमझ है, उसके ज्ञान में कमी है इस कारण वह वहाँ भयभीत होता है। कहीं जज ने उस पर कोई अपना प्रभाव डाल दिया हो ऐसी बात नहीं है। ऐसे ही समझ लो कोई मनुष्य हमें गाली दे, हमारे मन के प्रतिकूल चले तो उसको देखकर, सुनकर हम अपने में अपना अर्थ लगाते हैं और उससे हम विह्वल हो जाते हैं। जैसे किसी बच्चे ने कोई चीज चुरा लिया और उसका पता लगाना है तो ऐसा बानक बनाते हैं कि सभी लड़कों को बैठाल लिया, कुछ झूठ-मूठ का मंत्र पढ़ने लगे और उनसे कह दिया कि देखो हम मंत्र पढ़ते हैं, तुम लोग बैठे रहना, जिसने उस चीज को चुराया होगा उसकी चोटी खड़ी हो जायगी। आखिर होता क्या है कि जिस बालक ने उस चीज को चुराया है वह अपने मन में कुछ कल्पनाएँ गढ़ता है और अपनी चोटी पकड़कर देखने लगता है कि खड़ी तो नहीं हुई। ऐसी ही बात हम आप सबकी है। कोई किसी को दु:खी नहीं करता खुद ही कल्पनाएँ बनाकर अपने को दु:खी कर डालते हैं। जो लोग धर्म का आदर करते हैं जिनके प्रभु भक्ति भी समाई हुई है वे ऐसे सुंदर विचारों के वातावरण में रहकर सदा प्रसन्न रहते हैं। तो जितने भी क्लेश हैं वे सब अपने विचारों से चलते हैं। जो पुरुष क्रोध करता है वह अपने आपमें दु:खी होता ही है। उस क्रोध को शांत करने के लिए एक क्षमारूपी नदी ही समर्थ है। जैसे जहाँ नदी का प्रवाह है वहाँ अग्नि का क्या काम ऐसे ही जहाँ क्षमा का बर्ताव है वहाँ क्रोध का क्या काम। इस क्रोध पर विजय होने से संयम की रक्षा होती है। जहाँ कषाय के दूर होने से मान, माया और लोभ आदि कषायें भी शिथिल हो जाती हैं। कोई लोग कहते हैं कि मान, माया और लोभ आदि कषायें तो मेरे जगती है, पर क्रोध मुझे नहीं आता, सो ऐसा नहीं होता। हाँ भले ही कुछ फर्क हो जाय पर कुछ न कुछ क्रोध तो बना ही रहता है। कोई एक कषाय न रहे और बाकी तीन कषायें रहें ऐसी विषमता इनमें नहीं बनती। ये कषायें जब उत्पन्न होती हैं तो संयमरूपी उपवन बरबाद हो जाता है।