वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 942
From जैनकोष
उद्दीपयंतो रोषाग्निं वहु विक्रम्य विद्विष:।
मन्ये विलोपयिष्यंति क्वचिन्मत्त: शमश्रियम्।।942।।
क्रोध से शमश्री के अपहरणरूप हानि का कथन― ज्ञानी संत मुनिजन विचारते हैं कि पूर्वकृत कर्म मेरे बैरी हैं सो मैं ऐसा मानता हूँ कि ये सब कर्म पूर्वकाल में बंधे हुए अपने उदयरूप पराक्रम से क्रोधादिक को उत्पन्न करने वाले निमित्त को मिलाते हैं और मेरी क्रोध अग्नि को जलाकर शांतिरूपी लक्ष्मी को लौटाते हैं। उदय आया असाता का जिसमें क्लेश उत्पन्न करने का निमित्त मिला। अब होता क्या है वहाँ कि क्रोध अग्नि तो भड़क उठती है और शांति लक्ष्मी लुट जाती है। जिस प्रकार हठी पुरुष घर में आग लगाकर संपदा को नष्ट करता है इसी प्रकार ये कर्म बैरी मेरे में क्रोध अग्नि जलाकर मेरी समतारूप, शांतरूप संपदा को लूट रहे हैं ऐसा वे विचार करते हैं। जब क्रोध जगता है चित्त में तब विवेक काम नहीं करता। यों तो सभी कषायें बुरी हैं। जब मान जगता है चित्त में तो विवेक काम नहीं करता। मायाचार छल कपट से अपना हित समझता है कोई तो उसके विवेक नहीं रहता। ऐसे ही लोभ कषाय की बात है। जब किसी पर में वैभव में धन में लोभ कषाय जगती है तो फिर उसके विवेक नहीं जगता। मान लो पिता पुत्र हैं, उनमें परस्पर क्रोध जग जाय तो पिता पुत्र को सुखी नहीं देखना चाहता, पुत्र पिता को सुखी नहीं देखना चाहता। और, धन वैभव यह सब एक दूसरे से छुड़ाना चाहते हैं। हालांकि पिता और करेगा क्या? छोड़कर ही तो जायगा। क्रोध कषाय के वश पुत्र भी पिता को सुखी नहीं देखना चाहता। जब क्रोध अग्नि जगती है तो विवेक नष्ट हो जाता है। सो विवेक नष्ट हुआ कि समझो शांतरूपी संपदा का लोप हो गया। अतएव मैं सावधान रहूँ, कहीं कुछ भी होता रहे। कोर्इ ऐसा ही अपवाद करे, अपमान करे यह तो सब उसकी चेष्टा है, उससे मेरे को क्या है? मेरे का तो सब कुछ मैं ही कर पाता हूँ, तो विपत्ति के समय ज्ञानी पुरुष ऐसा विचारते हैं कि यह तो मेरी परीक्षा के लिए ऐसा समय आया है जैसे कोई पुरुष किसी को गाली देवे और वह दूसरा चिढ़ने लगे तो गाली देने वाला यदि यह कह दे कि मैं तो तुम्हारी परीक्षा ले रहा था कि तुम्हें क्रोध आता है कि नहीं आता है। ऐसे दो चार मौके पड़ जायें तो फिर जब भी वह गाली देगा तो यह समझेगा कि यह तो मेरी परीक्षा के लिए गाली दे रहा है तब उस गाली का असर नहीं होता क्योंकि उसका भाव बदल गया। मुझे यह गाली दे रहा है ऐसा वह नहीं सोच रहा, किंतु यह मेरी परीक्षा कर रहा है ऐसा सोचता है। तो ऐसा सोचने से उसके क्रोध में फर्क आ जाता है। तो ऐसा ही ज्ञानी विचारता है कि यह कर्म बली मेरे में क्रोध अग्नि जलाकर संपदा को लूटता है अथवा मेरी परीक्षा करता है। ऐसा जानकर यह ज्ञानी पुरुष क्रोध की ओर नहीं जाता।