वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 960
From जैनकोष
कृतैर्वान्यै: स्वयं जातैरुपसर्गै: कलंकितम्।
येषां चेत: कदाचितैर्न प्राप्ता: स्वेष्टसंपद:।।960।।
उपसर्गों के द्वारा कलंकित हुए चित्त को स्वेष्टसंपदा का अलाभ― जिनका चित्त अन्य के लिए किए गए उपसर्ग से अथवा अचेतन पदार्थों से, परिषह से दूषित हुआ वे अपने इष्ट संपदा की प्राप्ति नहीं कर सकते। अनेक चरित्र देख लीजिए। उपसर्ग आने पर वे मुनिराज अपने मोक्षमार्ग से च्युत हो गए तो उनके कोई भी सिद्धि नहीं हुई है, आगे सम्हलेंगे तो उनकी सिद्धि होगी। युग के आदि में ऋषभदेव महाराज जब संसार से विरक्त हुए, मुनिव्रत धारण किया तो उस समय चार हजार राजाओं ने भी दिगंबर दीक्षा ली। उन्होंने यह समझकर कि जब इतने बड़े महाराजा दिगंबर दीक्षा ले रहे हैं तो तप सुख का मार्ग होगा, ऐसा विश्वास करके उन सबने साधु व्रत ले लिया था। तो ऋषभदेव तो मौन हो गए, उनका तपश्चरण चलता रहा। 6 माह तक का तो अनशन का व्रत लिया ही था। उस ही बीच दो चार दिन के बाद ही हजारों राजा जो मुनि हो गए थे वे अनशनव्रत न साध सकने से तिलमिला उठे, भूख प्यास की बाधा से विचलित होने लगे। उनमें से कोई किसी प्रकार वनफल खाने लगे, कोई किसी प्रकार तालाबों में पानी पीने लगे। उस समय आवाज आयी देवताओं की ओर से कि अरे भ्रष्ट मत बनो यदि मुनिधर्म नहीं निभता तो इसे छोड़ दो, पर मुनिधर्म में रहकर ऐसे भ्रष्ट कार्य करना उचित नहीं है। तो जो परिषह उपसर्ग आने पर अपने व्रत नियम को छोड़ देते हैं, उनको इष्टसिद्धि नहीं होती। द्वीपायनमुनि का तो बड़ा प्रसिद्ध चरित्र है। उपसर्ग आने पर इतना क्रोध उनके आया कि उनके क्रोध के कारण उत्पन्न हुए तैजस शरीर से द्वारकापुरी भस्म हो गयी और खुद भी भस्म हो गए। करीब-करीब जितने भी लोग तीव्र रागी द्वेषी आज देवता के रूप में प्रसिद्ध हैं प्राय: उनका जीवन पहिले साधु-संन्यास व्रत का रहा और उस व्रत में सफल नहीं हो सके, तो वे आखिर दुर्गति में ही गए। तो जिनका चित्त दूषित है वे इष्ट संपदा की प्राप्ति नहीं कर पाते।