वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 961
From जैनकोष
प्राक्कृताय न रुषयंति कर्मणो निर्विवेकिन:।
तस्मिन्नपि च क्रुध्यंति यस्तदेव चिकित्यति।।961।।
ज्ञानी जनों का प्राक्कृत कर्म पर रोष व पीड़कों के प्रति कृतज्ञत्व― जो विवेकी पुरुष हैं वे पूर्व जन्म में किए हुए कर्मों के लिए नहीं रोष करते हैं, और, जो पुरुष क्रोध के निमित्त मिलाकर उन पाप कर्मों की निर्जरा कराता है उस पर क्रोध करना तो युक्त है ही नहीं। जैसे किसी बालक के कान में पीड़ा हो, दाँत में पीड़ा हो या अन्य कोई फोड़ा फुंसी हो, डाक्टर आये, इलाज करे तो वह बालक उसे दुश्मन सा समझने लगता है। डाक्टर की शकल देखते ही वह लड़का छिपने लगता है। जैसे स्कूलों में चेचक आदि का टीका लगाने के लिए डाक्टर जाता है तो वह यद्यपि उन बच्चों के उपकार के लिए, बच्चों की भलाई के लिए टीका लगाने जाता है, पर बहुत से बच्चे उस पर क्रोध करते हैं। यह क्रोध करना उन बच्चों की नादानी है, इसी तरह कोई पुरुष क्रोध का निमित्त मिलाकर मुझे सता रहा है, मान लो, तो वह वास्तव में मुझे सता नहीं रहा है, वह तो मेरे पूर्वबद्ध पापकर्मों की निर्जरा कर रहा है। तत्त्वज्ञान जगने पर यह बात स्पष्ट समझ में आने लगती है। जो पुरुष मेरे ऊपर क्रोध कर रहा है, मुझे दुर्वचन बोल रहा है, गाली दे रहा है तो वह वास्तव में मेरे पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा का कारण बन रहा है, उस पर रोष करना व्यर्थ है। जैसे कोई लोभी पुरुष जिसकी अपनी बड़ी आमदनी हो रही हो तो वह दुर्वचन बोलकर, दूसरों का अपकार करके जैसे भी बने उसके पीछे अपनी धुन बनाये रहता है ऐसे ही आत्मा की शुद्ध समृद्धि का लोभी अर्थात् ज्ञानी संतपुरुष जिसने केवल अपने आत्मा के ज्ञान की समृद्धि चाही वह पुरुष बाहर में कोई दुर्वचन भी बोलता हो तो उसे भी सहन करता जाता है क्योंकि उसके अंतरंग में पहिले से आत्मीय कार्य की धुन लगी है और सफलता भी नजर आ रही है, वह अपने अंतर की ही धुन को नहीं छोड़ता। बाहर में कोई उपसर्ग करे तो करे। जैसे एक सुकुमाल का दृष्टांत है जो अपने घर में बड़े लाड़ प्यार से पला था, सूर्य की अथवा अग्नि की रोशनी देख लेता था तो उसकी आँखों में सहन न होता था, रत्नों की ज्योति में जो बना रहता था, जिसका चावल का भोजन था और उस चावल का भोजन जो कमल के फूल में एक-एक कण बसे रहा करते थे, ऐसा था उनका भोजन, जिसको गद्दे बिनोले भी गड़ते थे ऐसे सुकुमाल जब विरक्त हुए, जब दिगंबर दीक्षा ले ली तो जंगल में स्यालिनी ने अपने बच्चों सहित पैरों से कमर तक उनके मांस का भक्षण किया, लेकिन सुकुमाल को अपने आत्मा में एक ज्ञान ज्योति जग रही थी और उसमें बड़ी प्रसन्नता मालूम होती थी। शरीर से विरक्त अपने ज्ञानस्वरूप की ही भावना में लगे हुए थे, इतना बड़ा उच्च पद उन्हें मिल रहा था, उत्कृष्ट आनंद मिल रहा था तो उस आनंद की धुन में वे बाहर के उपसर्ग को भी कुछ न समझते थे। जिस ज्ञानी पुरुष को अपने आत्मा में कोर्इ बड़ी समृद्धि मिल रही हो, जो सहज है, स्वाधीन है, किसी पर पदार्थ के कारण नहीं मिला करती ऐसे उस सहज समता की धुन में वह बड़े-बड़े परीषह और उपसर्ग भी सहन कर जाता है। वह पुरुष उन उपद्रवी पुरुषों को वैद्य की तरह देखता है। जैसे कोई वैद्य नस्तर लगावे, फोड़ा फुंसी फोड़े तो वह चिकित्सा कर रहा है, हित कर रहा है ऐसे ही ज्ञानी जानता है कि दुर्वचन बोलने वाला, उपसर्ग करने वाला मेरा हित ही कर रहा है। यों ज्ञानी संत पुरुष किसी भी उपद्रवी पर क्रोध भाव नहीं लाते।