वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 967
From जैनकोष
अहो कैशचत्कर्भानुदयगतमानीय रभसा―
दशेषं निर्द्धूतं प्रबलतपसा जन्मचकिते:,स्वयं यद्यायांतंतदिह मुदमालंब्य मनसा।
न किं सह्यं धीरैरतुलसुखसिद्धे व्यवसितै:।।967।।
उपसर्ग के समय धीर मुनिजनों के द्वारा इष्टसिद्धि जानकर समताग्रहण―लोक में यह प्रसिद्धि है कि जो कर्म किए जाते हैं उनका फल अवश्य भोगना पड़ता है। यह बात प्राय: ठीक है, क्योंकि जो कर्म बाँधे गए हैं अर्थात् शुभ अशुभ परिणाम का निमित्त पाकर पौद्गलिक कार्माण वर्गणाओं में जो कर्मत्व आया है और इस जीव के साथ निमित्त नैमित्तिक भाव के नाते से रह रहे हैं, उनका जब उदयकाल आता है तब वे खिरते हैं। तो खिरने की बात तो उस ही तरह है। कोई कारण पाये तो उदीरणा हो जाय, यों खिर जाय तो उदीरणा होने पर जीव को उसका फल भोगना पड़ता है किंतु यदि खासियत और होती है कि जीव का अति विशुद्ध परिणाम हो, ज्ञानस्वभाव में रमण हो, अथवा प्रबल समता हो तो या तो वह कर्म बहुत ही पहिले क्षीण अनुभाग होकर खिर जाते हैं। अथवा उनके पहिले से ही एक अविपाक निर्जरा के रूप में होने के लिये बदलते हुए जाते हैं तो यों कर्म कुछ भी फल नहीं दे पाते। यहाँ यह बतला रहे हैं कि मुनिगणों ने संसार से भयभीत होकर अर्थात् सांसारिक इन सब तत्त्वों से उपेक्षा करके बड़े तीव्र तपश्चरण द्वारा उन कर्मों को उदय में ला दिया। यद्यपि जीव कर्म की दशा नहीं करते। पर निमित्त नैमित्तिक भाव ऐसा है परस्पर कि जीव के परिणाम का निमित्त पाकर जीव में भावदशा बनती। तो जब आत्मा ने एक प्रबल ज्ञानसाधना की, अंतरंग तपश्चरण किया तो कर्म जो बहुत काल बाद उदय में आते और उसे उतना बंधन में रहना पड़ता वह पहिले ही उदय में आता है। तो लो इसका अर्थ यह ही तो हुआ कि उन्होंने कर्मों को शीघ्र ही नष्ट कर दिया। वे कर्म यदि उपसर्ग आदिक के कारण से अपनी स्थिति समाप्त कर स्वयं उदय में आये हैं तो धीर वीर पुरुष तो उसमें अपनी मनोवांछित सिद्धि समझ रहा है।
ज्ञानदृष्टिबल से कषायविजय की सुगमता― देखिये सब ज्ञानदृष्टि की बात है। अनेक दु:खों से अभी मुक्त हो सकते हैं। यह सोचें, ज्ञान में बात लायें, जैसी दृष्टि लगायें उसके अनुसार यहाँ बात बीतती है। जब हम आत्मा ज्ञानस्वरूप हैं, भावमात्र के करने वाले हैं तो क्यों न हमें ऐसा सावधान होना चाहिए कि हम खोटे भावों से बचें और उत्तम भावों में आयें? इसके लिए चाहिए तत्त्वज्ञान, सत्संग, स्वाध्याय की निरंतरता। इस उपाय से यदि हम अपने आपको इस ज्ञानकिले में बैठाल सकें और अपने को सुरक्षित कर सकें तो समझिये कि वह हमारा विवेक है और अपने से हट हटकर पदार्थों में फँसते रहें तो वह हमारा अविवेक है। यहाँ कल्याणार्थी भव्य जीव ऐसा ध्यान करता है कि यदि मुझ पर किसी के द्वारा कुछ उपद्रव हुआ, लाठी से निंदाओं से जिस किसी भी तरह से मुझ पर अगर कुछ उपसर्ग हो रहा है तो हमें बड़ी रुचिपूर्वक अभिलाषा सहित उन उपसर्गों को शांति से सहन कर लेना चाहिए। वह हमारे वैभव वाली बात बनेगी। यों जानकर साधुसंत किसी के द्वारा किए गए उपसर्गों को धीरता से, वीरता से, प्रसन्नता से, समता से सह लिया करते हैं। यह क्रोधकषाय के परिच्छेद में अंतिम छंद है। इसमें उपसंहार करते हुए एक प्रेरणा दी गई है कि हम एक ही अपना प्रोग्राम रखें कि हमें शांतिसमता से ज्ञानदृष्टि से रहकर अपना जीवन बिताना है। इस लक्ष्य में रहकर हम किसी भी प्रसंग में क्रोध पर विजय प्राप्त कर सकते हैं।