वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 968
From जैनकोष
कुलजातीश्वरत्वादिमदविध्वस्तबुद्धिभि:।
सद्य: संचीयते कर्म नीचैर्गतिनिबंधनम्।।968।।
मद से नीचगति के कारणभूत कर्मों का बंध― अब यहाँ मानकषाय का वर्णन कर रहे हैं। कुछ जीवों से अपने आपको बड़ा समझना और अपने से अन्य जीवों को छोटा नीचा समझना इस प्रकार की बुद्धि होने का नाम है मान। जिन पुरुषों की बुद्धि नष्ट हो गई है अर्थात् विपरीत हो गई है, मदों के द्वारा ऐसे पुरुष ऐसे विकट कर्मों का बंधन करते हैं जो नीच गति के कारण बनते हैं। दूसरों से अपने को ऊँचा और दूसरों को अपने से नीचा, तुच्छ घृणास्पद मानने का फल क्या है कि खुद को नीचा बनना पड़ेगा। कुछ तो यहाँही देखा जाता है कि जो मान के शिखर पर चढ़ता है, जो लोगों के बीच रहकर अपनी शेखी बगारता है, मान प्रकट करता है वह यहाँही लोगों की दृष्टि में नीच समझा जाता है। तुच्छ है, घमंडी है। उसकी प्रतिष्ठा नहीं रहती। तो मान करने का फल यह जीव इसी भव में पा लेता है और फिर मान कषाय करके जो कर्मबंध हुए हैं उनकी तो स्थिति पड़ी है ना? जितनी अधिक स्थिति पड़ी है अवाधा उसके अनुरूप होती है। तो आगे समय में उन कर्मों के उदय में इसे और फल भोगना होगा। सारांश यह हे कि लोगों से अपना बड़प्पन अधिक समझना और अन्य जीवों को नीचा समझना यह नीच गति का कारण बनता है।
मानकषाय से बचने के लिये स्वभावदृष्टि के आलंबन की प्रमुखता―थोड़ा यहाँयह सोचा जा सकता है कि ऊँच और नीच के व्यवहार से यहाँबचा जाय किस तरह? जब यहाँही बहुत बातें देखी जा रही हैं, कोई मनुष्य खोटा कर्म करता है, कोई अच्छे कर्म करता है। कोई मोह में एकदम लीन है, और जो कुछ धर्म कर रहा हो, कुछ पूजा आदिक करता हो, ऐसी स्थिति में इतनी बात तो जानने में आ ही जाती है कि ये लोग तुच्छ हैं, हम जो कर रहे हैं वह अच्छा काम कर रहे हैं। तो कैसे बचाया जाय कि हम अन्य जीवों से अपने को बड़ा न समझें? इसके समाधान में यह समझिये कि हम मूल के जीवों के स्वरूप और स्वभाव पर दृष्टि दें, यहाँ तो यह पर्यायकृत अंतर है। पर्यायकृत अंतर को पर्यायदृष्टि से समझें तो भीतर में मान कषाय का बीज न बनेगा। हम सब जीवों का स्वरूप और स्वभाव दृष्टि से निरखें तो कौन जीव मुझसे छोटा और कौन जीव मुझसे बड़ा? सब जीव एक समान अविकार शुद्ध चैतन्य स्वभाव वाले हैं। पर्यायदृष्टि से इतना बड़ा अंतर होकर भी स्वभावदृष्टि से निरखा जाय तो सर्व की समानता है और केवल इन ही जीवों के साथ क्या सिद्ध प्रभु हो, समस्त संसारी हो, सबका स्वरूप समान है। इस दृष्टि से अपने को प्रबल बनाना ताकि किसी को तुच्छ निरखने की मेरे हृदय में आदत न बन सके। रही पर्यायकृत बात, तो पर्याय में इतना अंतर है मगर उस अंतर से पर्यायमात्र का अंतर निरखिये जिससे भीतर में चित्त को मानना घर न बना सकें। जितने मानी लोग हैं उनकी दृष्टि पर्याय पर रहती है और पर्याय को ही स्व मानने की रहती है। इसलिए मान की प्रबलता बन जाती है।
मदविवरण व मदविजय प्रेरणा― यह मान कषाय 8 मदों से प्रकट होता है―1. कुलमद, 2. जातिमद, 3. ऐश्वर्यमद, 4. रूपमद, 5.तपोमद, 6.बलमद, 7. विद्यामद, 8. धनमद। इन 8 मदों के कारण जिनकी बुद्धि बिगड़ गई है याने जो मान कषाय में आ गए हैं वे उस ही समय नीचगति के कारण भूत कर्म का बंध करते हैं और वे उसी समय लोगों की दृष्टि में भी नीच सिद्ध हो जाते हैं। मानी पुरुष तो अपने मन में ऐसा सोचता है कि मैं ऐसा मान करूँगा, ऐसी बात कहूँगा, ऐसा बड़प्पन दिखाऊँगा तो लोग मुझे ऊँचा कहेंगे। लेकिन समझदार तो केवल वही जीव तो नहीं है। सब जीव समझदार हैं। सबकी बात समझ सकते हैं। तो मानकषाय करने वाले की जो प्रवृत्ति होती है वह तो स्पष्ट ऐसी परिणति होती है कि जिससे मंसा साफ जाहिर हो जाता हे तो उसके सुनने देखने वाले लोग उस मानी को तुच्छ समझने लगते हैं। तो मान कषाय करने वाला पुरुष उस ही भव में लोगों की दृष्टि में नीच सिद्ध होता है और वह ऐसा कर्मबंध करता है कि उसे परलोक में नीचगति प्राप्त होती है। कुछ तो यहाँही देख लिया जाता कि मान करने वाले पुरुष इस भव में भी तुच्छ, दरिद्र, नीच, निंद्य बन गए और आज मनुष्य हैं और मनुष्यभव से च्युत होकर यदि कीड़ामकौड़ा हो गए, नारकी हो गए, एकेंद्रिय हो गए तो अब अपना मान कहाँरखोगे? तो ऐसा संसार का स्वरूप जानकर चित्त में यह बात आनी चाहिए कि मेरे किसी भी प्रकार से मान कषाय न प्रकट हो। तो ज्ञानी जीव ज्ञानबल से मानकषाय पर विजय करता है।