वर्णीजी-प्रवचन:द्रव्य संग्रह - गाथा 17
From जैनकोष
गइपरिणयाण धम्मो पुग्गलजीवाण गमणसहयारी ।
तोयं जह मच्छाणं अच्छंता णेव सो णेई ।।17।।
अन्वय―गइपरिणयाण पुग्गलजीवाण गमण सहयारी धम्मो । जह मच्छाणं तोयं । सो अच्छंता णेव णेई ।
अर्थ―गमन में परिणत पुद्गल और जीवों के जो गमन में सहकारी निमित्त है उसे धर्मद्रव्य कहते हैं । जैसे जल मछली के गमन में सहकारी है । धर्मद्रव्य ठहरने वाले जीव या पुद्गलों को कभी नहीं ले जाता है ।
प्रश्न 1―गमन से यहाँ क्या तात्पर्य है?
उत्तर―एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में चले जाना, यही गमन का तात्पर्य है । थोड़ा हिलना,गोल चलना, यथा कथंचित् मुड़ना आदि सब क्रियायें गमन में अंतर्गत हैं ।
प्रश्न2―गमन क्रिया कितने द्रव्यों में होती है?
उत्तर―गतिक्रिया केवल जीव और पुद᳭गल इन दो जाति के द्रव्यों में होती ।
प्रश्न 3―धर्म, अधर्म, आकाश व काल में गतिक्रिया क्यों नहीं होती है?
उत्तर―जीव पुद्गल में ही क्रियावती शक्ति है । धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य और कालद्रव्य―इन चार द्रव्यों में क्रियावती शक्ति नहीं है, अत: इनमें गतिक्रिया नहीं हो सकती ।
प्रश्न 4―धर्मद्रव्य स्वयं निष्क्रिय है वह दूसरों की गति में कैसे कारण होगा?
उत्तर-―जैसे जल स्वयं न चलता हुआ भी मछली के गमन में सहकारी कारण है, वैसे धर्मद्रव्य भी स्वयं निष्क्रिय होकर जीव पुद्गल के गमन में सहकारी कारण है ।
प्रश्न 5―धर्मद्रव्य अमूर्त है उसका तो किसी से संयोग भी नहीं हो सकता, फिर यह दूसरों की गति में कैसे कारण हो सकता है?
उत्तर―जैसे सिद्धभगवान अमूर्त हैं तो भी वे “मैं सिद्ध समान अनंत गुण स्वरूप हूँ” इत्यादि भावनारूप सिद्धभक्ति करने वाले भव्य जीवों के सिद्धगति में सहकारी कारण हैं, वैसे धर्मद्रव्य अमूर्त है तथापि अपने उपादान कारण से चलने वाले जीव व पुद᳭गलों के गमन में सहकारी कारण है ।
प्रश्न 6―धर्मद्रव्य गति में सहकारी कारण है इसका मर्म क्या है?
उत्तर―कोई भी द्रव्य किसी भी अन्य द्रव्य की परिणति का कर्ता या प्रेरक नहीं होता । जो द्रव्य जिस योग्यता वाला है वह विशिष्ट निमित्त को पाकर स्वयं अपने परिणमन से परिणामता है । इसी न्याय से गमन किया में परिणत जीव, पुद्गल धर्मद्रव्य को निमित्तमात्र पाकर स्वयं अपने उपादान कारण से गतिक्रियारूप परिणम जाते हैं । धर्मद्रव्य किसी को प्रेरणा करके चलाता नहीं है । यही सहकारी कारण का भाव है ।
प्रश्न 7―धर्मद्रव्य कितने हैं?
उत्तर―धर्मद्रव्य एक ही है और उसका परिमाण समस्त लोकप्रमाण है ।
प्रश्न 8―धर्मद्रव्य में कितने गुण हैं?
उत्तर―धर्मद्रव्य में अस्तित्व, वस्तुत्व आदि अनेक सामान्य गुण हैं और अमूर्तत्व निष्क्रियत्व आदि अनेक साधारण गुण हैं । धर्मद्रव्य में असाधारण गुण गतिहेतुत्व है ।
प्रश्न 9―सामान्य गुण न मानने पर क्या हानि है?
उत्तर―सामान्य गुण न मानने पर वस्तु की सत्त्व मात्र ही सिद्ध नहीं होता ।
प्रश्न 10―असाधारणगुण न मानने पर क्या हानि है?
उत्तर―असाधारणगुण न मानने पर वस्तु की अर्थक्रिया ही नहीं हो सकती अर्थात् असाधारण गुण बिना वस्तु ही क्या रहेगी?
प्रश्न 11―क्या सब द्रव्यों में असाधारण गुण होते हैं?
उत्तर―सभी द्रव्यों में एक असाधारण स्वभाव (गुण) होता है ।
प्रश्न 12―जीवद्रव्य का असाधारण गुण कौन है?
उत्तर―जीवद्रव्य का असाधारण गुण चैतन्य है । यह चैतन्य ज्ञान, दर्शन और आनंद स्वरूप है ।
प्रश्न 13―पुद्गल द्रव्य का असाधारण गुण क्या है?
उत्तर―पुद᳭गलद्रव्य का असाधारण गुण मूर्तत्व है । यह मूर्तत्व, रूप, रस, गंध, स्पर्शमय है ।
प्रश्न 14―धर्मद्रव्य का असाधारण गुण क्या है?
उत्तर―धर्मद्रव्य का असाधारण गुण गतिहेतुत्व है ।
प्रश्न 15-―अधर्मद्रव्य का असाधारण गुण क्या है?
उत्तर―अधर्मद्रव्य का असाधारण गुण स्थितिहेतुत्व है ।
प्रश्न 16-―कालद्रव्य का असाधारण गुण क्या है?
उत्तर―कालद्रव्य का असाधारण गुण परिणमनहेतुत्व है ।
प्रश्न 17―आकाशद्रव्य का असाधारण गुण क्या है?
उत्तर―आकाशद्रव्य का असाधारण गुण अवगाहनहेतुत्व है ।
प्रश्न 18―धर्मद्रव्य परिणमनशील है या नहीं?
उत्तर―धर्मद्रव्य परिणमनशील है, क्योंकि यह एक सत् है । प्रत्येक सत् परिणमनशील होते हैं, किंतु धर्मद्रव्य का परिणमन केवल ज्ञानगम्य है । जैसे शुद्ध जीव (परमात्मा) का परिणमन केवल ज्ञानमय है । परिणमनशील होकर भी प्रत्येक द्रव्य नित्य ध्रुव होते हैं । यह धर्मद्रव्य भी नित्य ध्रुव है ।
प्रश्न 19―धर्मद्रव्य एक होकर सबके गमन में सहकारी कारण कैसे हो सकता है?
उत्तर―आकाश के एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश पर पहुंचने का नाम गति है । यह गति एक स्वरूप है, अत: एकस्वरूप गति कार्य में एक धर्मद्रव्य कारण होता है ।
प्रश्न 20―जिस स्थान का जीव पुद्गल चलता है क्या उस स्थान पर रहने वाले धर्मद्रव्य के प्रदेश गतिहेतु हैं या पूर्ण धर्मद्रव्य?
उत्तर―पूर्ण धर्मद्रव्य गतिहेतु है । किसी भी द्रव्य की यह परिस्थिति नहीं होती कि किसी द्रव्य की क्रिया में किसी अन्य द्रव्य का कुछ भाग निमित्त कारण हो और कुछ न हो ।
प्रश्न 21―धर्मद्रव्य एकप्रदेशी हो और वह कहीं भी स्थित हो वह एक ही सब जीव पुद्गलों के गमन में कारण क्यों न हो जाये?
उत्तर―सभी साक्षात् निमित्तकारण एक क्षेत्रस्थित होते हैं । अत: धर्मद्रव्य लोकालोकव्यापी ही जीव पुद्गलों के गमन में कारण है ।
प्रश्न 22―कुंभकार तो भिन्न क्षेत्र में रहकर भी घड़े का निमित्त कारण है?
उत्तर―कुंभकार मिट्टी के परिणमन का साक्षात् निमित्तकारण नहीं है किंतु आश्रयभूत निमित्तकारण है ।
प्रश्न 23―साक्षात् निमित्तकारण किसे कहते हैं?
उत्तर―अंतररहित अन्वयव्यतिरेकी कारण को साक्षात् निमित्तकारण कहते हैं । जैसे―सब द्रव्यों के परिणमन सामान्य का साक्षात् निमित्तकारण कालद्रव्य है, तथा अवगाह का निमित्तकारण नभद्रव्य है, जीव पुद्गल की गति का निमित्तकारण धर्मद्रव्य है, जीव पुद᳭गल की गतिनिवृत्ति का निमित्तकारण अधर्मद्रव्य है आदि ।
प्रश्न 24-―धर्मद्रव्य और धर्म में क्या अंतर है?
उत्तर―धर्मद्रव्य तो एक स्वतंत्र द्रव्य है जो गति में उदासीन निमित्त कारण है और धर्म आत्मा के स्वभाव को व आत्मस्वभाव के अवलंबन से प्रकट होने वाली परिणति को कहते हैं ।
प्रश्न 25―कारण तो प्रेरक ही होते हैं, फिर धर्मद्रव्य को उदासीन निमित्त कारण क्यों कहा?
उत्तर―कोई भी कार्य किसी अन्य की प्रेरणा से नहीं होता, किंतु परिणमने वाला उपादान कारण अपनी योग्यता के कारण अनुकूल निमित्त का सन्निधान पाकर स्वयं परिणमता है ।
प्रश्न 26―इस विषय का कोई दृष्टांत है क्या?
उत्तर―जैसे भव्य जीव निजशुद्धात्मा की अनुभूतिरूप निश्चय धर्म के कारण उत्तम संहनन, विशिष्ट तथा पुण्यरूप धर्म का सन्निधान रूप निमित्त कारण पाकर सिद्धगतिरूप परिणमते हैं । जैसे मत्स्य के चलने में जल उदासीन निमित्त कारण है । वैसे जीव पुद्गलों के चलने में धर्मद्रव्य उदासीन निमित्त कारण है ।
इस प्रकार धर्मद्रव्य का वर्णन करके अब इस गाथा में अधर्मद्रव्य का वर्णन करते हैं―