वर्णीजी-प्रवचन:द्रव्य संग्रह - गाथा 2
From जैनकोष
जीवो उवओगमओ अमुत्ति कत्ता सदेहपरिमाणो ।
भोत्ता संसारत्थो सिद्धो सो विस्ससोढ्ढगई ।।2।।
अन्वय―सो, जीवों उवओगमओ अमुत्ति कत्ता सदेहपरिमाणो भोत्ता संसारत्थो सिद्धो विस्ससोढ्ढगई ।
अर्थ―वह जीव जीने वाला है, उपयोगमय है, अमूर्तिक है, कर्ता है, अपने देह के बराबर है, भोक्ता है, संसार में स्थित है, सिद्ध है और स्वभाव से ऊर्ध्वगमन वाला है ।
प्रश्न 1―अन्वय में सर्वप्रथम ‘सो’ शब्द से तभी अर्थ ध्वनित होता जब कि पहले जीव के बारे में कुछ कह आये होते । यहाँ ‘सो’ शब्द कैसे दे दिया ?
उत्तर―यद्यपि ‘सो’ शब्द सिद्धों के बाद ठीक है, क्योंकि जो ऐसा विशिष्ट है वह स्वभाव से ऊर्ध्वगमन वाला है तथापि अर्ध में साथ-साथ नव अधिकारों को स्पष्ट करने के लिये सो शब्द पहिले दिया है ।
प्रश्न 2―‘सो’ शब्द से जीव का ग्रहण कैसे कर लिया ?
उत्तर―इसके कई हेतु ये हैं―1-नमस्कार गाथा में पहिले जीवद्रव्य कहा है, उसके संबंध में यह उसके बाद की गाथा है । 2-इस गाथा में दिये हुए विशेषण स्पष्टतया जीव के हैं । 3-इस ग्रंथ में अति मुख्यतया जीवद्रव्य का वर्णन है । सर्व द्रव्यों के वर्णन में जीव का वर्णन मुख्य होता है ।
प्रश्न 3―जीने वाला है, इसका भाव क्या है ?
उत्तर―इस विशेषण को व अन्य सभी विशेषणों को समझने के लिये अशुद्धनय व शुद्धनय दोनों दृष्टियों से परीक्षण करना चाहिये । जीव शुद्धनय से तो शुद्ध चैतन्यप्राण से ही जीता है जो शुद्ध चैतन्य अनादि अनंत अहेतुक व स्व-पर-प्रकाशक स्वभावी है । परंतु अशुद्धनय से अनादि कर्मबंध के निमित्त से अशुद्ध प्राणों (इंद्रिय बल, आयु, उच्छवास) करि जीता है ।
प्रश्न 4―इस विशेषण के देने की क्या सार्थकता है ?
उत्तर―जीव की सत्ता मानने पर ही तो सर्व धर्म अवलंबित हैं । कितनों का तो ऐसा अभिप्राय है कि जीव कुछ नहीं है, यह सब तो पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु के समागम का चमत्कार है, वे निज चैतन्य में कैसे स्थिर होंगे, वे तो जिस किसी भी भावपूर्वक अंत में मरण करके भी स्व से च्युत रहकर भव-दुःख बढ़ावेंगे । इसलिये आस्तिकता की सिद्धि के लिये वह विशेषण दिया है ।
प्रश्न 5―जीव को जैसा दोनों नयों से घटित किया है ये दोनों स्वरूप जीव में क्या एक साथ हैं अथवा क्रम से ?
उत्तर―ये दोनों स्वरूप एक साथ हैं, क्योंकि ध्रुव चैतन्य बिना व्यवहार प्राण कैसे बनेंगे और इस संसार दशा में व्यवहार प्राण प्रकट प्रतीत हो रहे हैं । हाँ इतनी बात अवश्य है कि कर्मयुक्त होने पर वह व्यवहार से (पर्याय से) जो कि शुद्ध निश्चयनयस्वरूप है, चैतन्य की शुद्ध व्यक्ति से जीता है ।
प्रश्न 6―उक्त तीनों भावों में से किस भाव पर दृष्टि देना लाभकारी है ?
उत्तर―इनमें से परमशुद्धनय (जिसे कि शुद्धनय शब्द से कहा है) के विषयभूत शुद्ध चैतन्य पर दृष्टि देना आवश्यक है, क्योंकि अध्रुव और विकारी पर्याय पर दृष्टि देने से निर्विकल्पकता नहीं आती, किंतु ध्रुव और अनादि अनंत अविकारी स्वभाव पर दृष्टि देने से निर्विकल्पकता का प्रवाह संचरित होता है ।
प्रश्न 7―उवओगमओ शब्द का अर्थ कितने प्रकार से है ?
उत्तर―यहां उपयोग से अर्थ चैतन्य के परिणामों से है, अत: पर्यायप्ररूपक यह शब्द है, अतएव यहाँ परमशुद्धनिश्चयनय का प्रकार तो नहीं है, शेष दो प्रकार निश्चयनय के हैं―(1) अशुद्ध निश्चयनय, (2) शुद्ध निश्चयनय ।
प्रश्न 8―अशुद्धनिश्चयनय से जीव कैसे उपयोग वाला है ?
उत्तर―अशुद्ध निश्चयनय से यह जीव क्षायोपशमिक ज्ञानोपयोग और क्षायोपशमिक दर्शनोपयोग वाला है ।
प्रश्न 9―जीव को औदयिक अज्ञान के उपयोग वाला यहाँ क्यों नही कहते ?
उत्तर―औदयिक अज्ञान ज्ञान के अभाव को कहते हैं । यद्यपि ज्ञान का सर्वथा अभाव कभी भी नहीं होता तथापि कम अधिक विकास वाला ज्ञान तो रह ही सकता है, सो जितने अंश में ज्ञान है वह तो क्षायोपशमिक है; वहाँ उपयोग होता है, परंतु जितने अंश प्रकट नहीं है वह अज्ञान औदयिक है वहाँ तो उपयोग ही क्या होगा ? अत: अशुद्धनिश्चयनय से क्षायोपशमिक ज्ञान दर्शनोपयोगमय जीव है ।
प्रश्न 10―शुद्ध निश्चयनय से कैसे उपयोग वाला जीव है ?
उत्तर―शुद्ध निश्चयनय से निर्मल स्वभावपर्याय रूप केवलज्ञान केवलदर्शन के उपयोग वाला है ।
प्रश्न 11―परमशुद्ध निश्चयनय से किसी उपयोग वाला क्यों नहीं बताया ?
उत्तर―उपयोग चैतन्यस्वभाव की ही पर्याय है, परमशुद्धनिश्चयनय ध्रुव द्रव्य स्वभाव की दृष्टि करता है, वह पर्याय को विषय नहीं करता, इसलिए उपयोगमय शुद्धनिश्चयनय व अशुद्धनिश्चयनय से ही कहा गया है ।
प्रश्न 12―जीव के अमूर्त के संबंध में जानने के लिये कितनी दृष्टियाँ हैं ?
उत्तर―तीन दृष्टियाँ हैं ―1-व्यवहारनय, 2-अशुद्धनिश्चयनय, 3-शुद्धनिश्चयनय ।
प्रश्न 13―व्यवहारनय से जीव कैसा है ?
उतर―व्यवहारनय से जीव मूर्तिक कर्मों के आधीन होने से स्पर्श रस गंध वर्ण वाले कर्म नोकर्मों से घिरा है, सो मूर्तिक है ।
प्रश्न 14―जीव अशुद्धनिश्चयनय से कैसा है ?
उत्तर―औदयिक भाव व क्षायोपशमिक जो कि आत्मा के स्वभाव की दृष्टि में विभाव है उनसे सहित होने से जीव मूर्तिक है । यहाँ इन भावों में स्पर्श रस गंध वर्ण नहीं समझना, किंतु ये भाव क्षायिक भाव की अपेक्षा स्थूल है अत: मूर्त है ब इनके संबंध से आत्मा भी मूर्त कहलाया, ऐसा जानना ।
प्रश्न 15―शुद्धनिश्चयनय से जीव कैसा है ?
उत्तर―शुद्धनिश्चयनय से जीव अमूर्तिक ही है, क्योंकि आत्मा का स्वभाव ही रूप, रस गंध, स्पर्श से सर्वदा रहित एक चैतन्यस्वभाव है ।
प्रश्न 16―अमूर्त विशेषण देने का फल क्या है ?
उत्तर―जो सिद्धांत पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु से जीव को उत्पन्न होना मानते हैं उनके मत में मूर्तिक सिद्ध होता है तथा जो प्रकृति से मूर्त मानते हैं उनका निराकरण हो जाता है । जीव वास्तव में अमूर्त ही हैं ।
प्रश्न 17―अमूर्त शब्द का अर्थ इतना ही किया जाये कि जो मूर्त नहीं सो अमूर्त, तो क्या हानि है ?
उत्तर―इस अर्थ में सद्भाव का भाव नहीं आया । जीव मूर्त न होकर भी वास्तव में अमूर्त असंख्यातप्रदेशी है ।
प्रश्न 18―जीव कर्ता किन-किन दृष्टियों से कहा है ?
उत्तर―जीव उपचार से तो कर्म, नोकर्म (शरीर) का कर्ता है और व्यवहारनय से अपनी पर्याय का कर्ता है जिसमें कि अशुद्धनिश्चयनय रूप व्यवहार से शुभ अशुभ कर्म का कर्ता है और शुद्धनिश्चयनयरूप व्यवहार से अनंतज्ञान आदि शुद्धभाव का कर्ता है ।
प्रश्न 19―परमशुद्ध निश्चयनय से जीव किसका कर्ता है ?
उत्तर―परमशुद्धनिश्चयनय से जीव अकर्ता है, क्योंकि यह नय सामान्य स्वभाव को ग्रहण करता है वह अनादि अनंत एक स्वरूप है ।
प्रश्न 20―कर्ता विशेषण से किस विशेषता की सिद्धि होती है ?
उत्तर―प्रत्येक द्रव्य अपना परिणमन स्वयं करता है―इस न्याय से जीव भी अपने कार्यों का कर्ता स्वयं है, अन्य कोई प्रभु या कर्म आदि जीव के विभावों को नहीं करते हैं यह सिद्ध होता है तथा जो सिद्धांत मानता है कि जीव कुछ नहीं करता, प्रकृति ही करती है उस सिद्धांत का निराकरण हुआ ।
प्रश्न 21―जीव स्वयं विभाव करता है, कर्म विभाव नहीं करता, ऐसा मानने पर विभाव जीव का स्वभाव हो जायेगा ?
उत्तर―जीव का विभाव औपाधिक (नैमित्तिक) है, जीव विभाव से स्वयं परिणमता है वहाँ कर्मोंदय निमित्त अवश्य है, अन्यथा विभाव की विभिन्नता भी न बनेगी ।
प्रश्न 22―जैसे जीव के विभाव में कर्मोंदय निमित्त है इसी प्रकार ईश्वर को निमित्त क्यों न मान लिया जावे ?
उत्तर―ईश्वर क्या सचेष्ट होकर निमित्त होगा या अचेष्ट रहकर ? सचेष्ट होकर निमित्त मानने में तो ईश्वर को रागी द्वेषी होने का भी प्रश्न आवेगा फिर वह ईश्वर ही कहां रहा तथा एक व्यापी बनकर निमित्त नहीं हो सकता । अनेक अव्यापी होकर निमित्त मानने पर ठीक है । जगत में ये जितने सचेष्ट जीव दिख रहे हैं उनमें कोई किसी के रागद्वेषादि में निमित्त हो ही रहे हैं, परंतु इनकी ईश्वरता व्यक्त नहीं है ।
प्रश्न 23―ईश्वर अचेष्ट होकर जीव की रचना में निमित्त माना जावे तो क्या हानि है ?
उत्तर―अचेष्ट होकर यदि ईश्वर निमित्त हो सकता है तो हम लोगों के अचेष्ट बनने के लिए अचेष्ट बनने से पहिले तदनुकूल शुभ विकल्पों में ही निमित्तमात्र हो सकता है, किंतु हमारे सब भावों में निमित्त नहीं बन सकता, परंतु उसका यथार्थस्वरूप अवश्य समझ लेना चाहिये ।
प्रश्न 24―क्या जीव कर्ता ही है ?
उत्तर―पर्यायदृष्टि में जीव कर्ता है, क्योंकि पर्यायें परिणति के बिना नहीं होती और परिणतिक्रिया जीव की स्वयं की होती है । परंतु परमशुद्ध निश्चयनय अथवा शुद्धद्रव्यदृष्टि से जीव अकर्ता है, क्योंकि यह आशय अनादि अनंत सामान्य स्वभाव को स्वीकार करता है ।
प्रश्न 25―जीव कुछ नहीं करता है, यही मान लेने में क्या हानि है ?
उत्तर―प्रथम तो यह सत᳭स्वरूप के विरुद्ध है अत: अर्थक्रिया न करने वाला असत् हो जावेगा । दूसरी बात यह है कि जीव कुछ नहीं करता है तो मोक्ष का यत्न ही किसलिये और कैसे होगा ।
प्रश्न 26―आत्मा को अपने देह के बराबर बताया है, यदि बट बीज के समान सूक्ष्म (छोटा) माना जाये तो क्या क्षति है ?
उत्तर―आत्मा यदि अतीव छोटा है तो भी समस्त शरीर के बराबर प्रदेशों में एक ही समय सुख दुःख का संवेदन होता है, वह न होकर एक देश में संवेदन होना चाहिये । परंतु ऐसा होता नहीं है ।
प्रश्न 27―तब फिर आत्मा को सर्वव्यापी मान लेना चाहिये ?
उत्तर―आत्मा देह से बाहर नहीं है, क्योंकि अन्यत्र संवेदन का अनुभव नहीं होता । हाँ, समुद᳭घात में अवश्य कुछ समय को देह में रहता हुआ भी देह से बाहर जाता है, सो उस समय वहाँ भी सारे प्रदेशों में संवेदन होता है ।
प्रश्न 28―देह बराबर आत्मा के संबंध में क्या एक ही दृष्टि है या अन्य भी ?
उत्तर―इस संबंध में वे दृष्टियां हैं―(1) अशुद्धव्यवहार, (2) शुद्धव्यवहार (3) निश्चय । अशुद्धव्यवहार से तो जीव जिस गति में, जिस देह में रहता है उस देह के परिमाण व्यंजन पर्याय (आकार) हैं तथा उस देह के बढ़ने घटने पर उस ही जीवन में भी संकोच विस्तार हो जाता है ।
प्रश्न 29―शुद्धव्यवहार से जीव के कितने परिमाण हैं ?
उत्तर―जीव जिस अंतिम मनुष्यभव से मोक्ष को प्राप्त होता है उस मनुष्य के देह से किंचित् ऊन प्रमाण है । फिर वह प्रमाण न कभी घटता है और न कभी बढ़ता है ।
प्रश्न 30―मुक्त किंचित् ऊन क्यों हो जाता है ?
उत्तर―इसमें दो प्रकार से वर्णन आता है―(1) सदेह अवस्था में भी जीवों के प्रदेश बाल, नख और ऊपर की अत्यंत पतली झिल्ली, जैसे चाम के अंश में नहीं होते हैं, सो यद्यपि देह छोड़कर भी इतने ही रहते हैं, परंतु वे देह से कम कहे जाते हैं । (2) संदेह अवस्था में नाक, मुख, कान आदि पोल की जगह में आत्मप्रदेश नहीं होते हैं, किंतु मुक्त अवस्था में पोल नहीं रहती है । वह स्थान भी भर जाता है जिससे किंचित् ऊन कहा है ।
प्रश्न 31―निश्चय से जीव किस परिमाण वाला है ?
उत्तर―निश्चय से जीव लोकाकाश-प्रमाण असंख्यातप्रदेशी है, विस्तार की दृष्टि व्यवहार से है ।
प्रश्न 32―‘सदेहपरिमाणो’ इस विशेषण से क्या विशेषता सिद्ध हुई ?
उत्तर―इस विशेषण से आत्मा वट-बीज प्रमाण है, सर्वव्यापी है, एक सर्वाद्वैत है आदि विरुद्ध आशयों का निराकरण हो जाता है ।
प्रश्न 33―आत्मा किस नय से किनका भोक्ता है ?
उत्तर―इस विषय की प्ररूपणा उपचार, व्यवहारनय, अशुद्धनिश्चयनय, शुद्धनिश्चयनय, परमशुद्धनिश्चयनय―इन पाँच दृष्टियों से करना चाहिए ।
प्रश्न 34―उपचार से आत्मा किसका भोक्ता है ?
उत्तर―उपचार से आत्मा इंद्रियों के विषयभूत पदार्थों को भोगता है ।
प्रश्न 35―व्यवहारनय से आत्मा किसका भोक्ता है ?
उत्तर―व्यवहारनय से आत्मा साता असाता के उदय को भोगता है ।
प्रश्न 36―अशुद्धनिश्चयनय से आत्मा किसको भोगता है ?
उत्तर―अशुद्धनिश्चयनय से आत्मा हर्षविषाद भाव को भोगता है ।
प्रश्न 37―शुद्धनिश्चयनय से आत्मा किसको भोगता है ?
उत्तर―शुद्धनिश्चयनय से आत्मा रत्नत्रयरूप शुद्धपरिणमन से उत्पन्न हुए पारमार्थिक आनंद को भोगता है ।
प्रश्न 38―परमशुद्धनिश्चयनय से आत्मा किसको भोगता है ?
उत्तर―इस नय की दृष्टि में ध्रुव एक चैतन्यस्वभाव ही आता है, उसमें भोक्ता का विकल्प ही नहीं है, इसलिये आत्मा किसी का भी भोक्ता नहीं है ।
प्रश्न 39―आत्मा के ‘भोक्ता’ विशेषण अन्य क्या विशेषता सिद्ध हुई ?
उत्तर―क्षणिक सिद्धांत और कूटस्थ सिद्धांत में आत्मा भोक्ता नहीं है । उसका इससे निराकरण हो जाता है ।
प्रश्न 40―आत्मा सभी सदा संसारी तो रहते नहीं हैं क्योंकि आत्मा के सम्यक् श्रद्धान ज्ञान अनुष्ठान के द्वारा अनंत भव्य जीव संसार से मुक्त हो गये और आगे भी अनंत भव्य मुक्त होते जावेंगे । फिर ‘संसारी’ विशेषण कैसे घटित होगा ?
उत्तर―प्रथम तो यह बात है कि यद्यपि अनंत भव्य मुक्त हो चुके व होगे तथापि उनसे अनंतानंत गुणे जीव संसारी हैं व रहेंगे । दूसरी बात यह है कि जो मुक्त हो चुके वे भी भूतनैगमनय की अपेक्षा संसारी कहे जाते हैं ।
प्रश्न 41―जीव किस नय से संसारी है ?
उत्तर―इस विषय की प्ररूपण के लिये व्यवहारनय, अशुद्धनिश्चयनय, शुद्धनिश्चयनय, परमशुद्धनिश्चयनय―इन चार नयों का आश्रय करना चाहिये ।
प्रश्न 42―व्यवहारनय से जीव कैसा संसारी है ?
उत्तर―कर्मनोकर्मबंधनवश हुआ जीव गति, जाति, जीवसमास आदि व्यक्त पर्यायों वाला संसारी है ।
प्रश्न 43―अशुद्धनिश्चयनय से जीव कैसे संसारी है ?
उत्तर―अशुद्धनिश्चयनय से जीव दर्शन, ज्ञान, चरित्र आदि गुणों के विभावपरिणमन में उलझा हुआ संसारी है ।
प्रश्न 44―शुद्धनिश्चयनय से जीव की क्या अवस्था है ?
उत्तर―शुद्धनिश्चयनय से जीव संसार से रहित अपने स्वाभाविक पूर्ण विकास में तन्मय शुद्ध है ।
प्रश्न 45―परमशुद्धनिश्चयनय से जीव की क्या अवस्था है ?
उत्तर―यह नय अवस्था को देखता ही नहीं, अत: इस नय की दृष्टि में न संसारी है, न मुक्त है, किंतु सभी जीव एक चैतन्यस्वभावमय हैं ।
प्रश्न 46―‘संसारस्थ’ विशेषण से अन्य किस आशय का निराकरण किया है ?
उत्तर―जो सिद्धांत यह आशय रखते हैं कि आत्मा अनादि से मुक्त है अथवा अशुद्ध पुद्गल ही संसार को करता है, आत्मा तो मात्र साक्षी ही है आदि बातो का निराकरण हो जाता है ।
प्रश्न 47―आत्मा सिद्ध है, यह किन-किन दृष्टियों से कहा जाता है ?
उत्तर―मुख्य प्रकृत अर्थ तो यह है कि आत्मा कर्म नौकर्म मलों से दूर होकर संसार से सर्वथा मुक्त हो जाता है, वह आत्मा सिद्ध है । इस विषय को और विशद करने के लिये चार दृष्टियाँ लगाना―(1) व्यवहारनय, (2) अशुद्धनिश्चयनय, (3) शुद्धनिश्चयनय, (4) परमशुद्धनिश्चयनय ।
प्रश्न 48―व्यवहारनय से क्या सिद्धत्व है ?
उत्तर―व्यवहारनय से यह जीव असिद्ध है, सिद्ध नहीं है । वह तो गति, जाति आदि आकाररूप अपने को साधता है ।
प्रश्न 49―अशुद्धनिश्चयनय से क्या सिद्धत्व है ?
उत्तर―इस नय से भी आत्मा असिद्ध है, सिद्ध नहीं है । वह तो कषाय आदि विभावों को साधता है ।
प्रश्न 50―शुद्धनिश्चयनय से जीव कैसे सिद्ध है ?
उत्तर―अपने आपके स्वभावपरिणमन से यह आत्मा अपने गुणों के पूर्ण विकास से सिद्ध है । ये कभी सिद्ध अवस्था से च्युत नहीं होते, सदा शुद्ध सिद्ध ही रहेंगे ।
प्रश्न 51―परमशुद्धनिश्चयनय से क्या सिद्धत्व है ?
उत्तर―यह नय पर्याय को नहीं देखता, इसलिए इस दृष्टि में आत्मा न सिद्ध है, न असिद्ध है । एक चैतन्यस्वभावी है जो कि स्वतःसिद्ध है ।
प्रश्न 52―आत्मा को सिद्ध होकर भी सिद्ध की मर्यादा समाप्त होने पर उन्हें असिद्ध हो जाना चाहिये ?
उत्तर―सर्व कर्मों के अत्यंत क्षय से जहाँ सिद्ध अवस्था प्रकट होती है वहाँ विभाव उत्पन्न होने का कोई कारण नहीं, इसलिए सिद्ध भविष्य में सर्वकाल तक सिद्ध ही रहेंगे, उनकी सीमा होती ही नहीं ।
प्रश्न 53―जीव स्वभाव से ऊर्ध्वगमन करता है, यह विशेषण तो प्रत्यक्ष से भी बाधित है, क्योंकि हम देखते हैं कि जीव जैसे चाहें जहाँ चाहें फिरते हैं ?
उत्तर―जीव का स्वभाव तो ऊर्ध्वगमन का है, परंतु कर्म नोकर्म की संगति से यह स्वभाव तिरस्कृत हो रहा है । औदारिक वैक्रियक देह के संबंध से तो यह विदिशा तक में भी गमन कर जाता है ।
प्रश्न 54―तब यह ऊर्ध्वगमन स्वभाव कब प्रकट होता है ?
उत्तर―जब यह जीव नोकर्म (शरीर) व कर्म से अत्यंत विमुक्त होकर केवल शुद्धस्वभाव में परिणत हो जाता है तब इसका ऊर्ध्वगमन स्वभाव प्रकट हो जाता है अर्थात् सर्व कर्मों का क्षय होते ही जीव ऊर्ध्वगमन स्वभाव से एक ही समय में एकदम ऊपर चला जाता है ।
प्रश्न 55―यह जीव ऊपर कहाँ तक चला जाता है ?
उत्तर―मुक्त जीव लोक के अंत तक चले जाते हैं, इससे आगे धर्मास्तिकाय का निमित्त न होने से वह अपने स्वतंत्र अवस्थान से वहाँ निश्चल हो जाते हैं ।
प्रश्न 56―तब तो मुक्तों का भी गमन पराधीन हो गया ?
उत्तर―पराधीन तो तब कहलाता जब धर्मास्तिकाय अपनी परिणति से मुक्त जीव को चलाता, किंतु मुक्त जीव अपने स्वभाव से अपनी परिणति से गमन करते हैं, वहाँ धर्मास्तिकाय निमित्तमात्र है ।
प्रश्न 57―इस समस्त वर्णन से हमें संक्षिप्त सारभूत क्या प्रयोजन लेना है ?
उत्तर―इन समस्त अवस्थावों रूप जो बनता है, ऐसे एक निशुद्ध चैतन्यस्वरूप जीवतत्त्व पर लक्ष्य करना है । जिससे निर्मल ज्ञान आनंद की पर्याय का प्रवाह चल उठे ।
प्रश्न 58―तब तो इस ही सारभूत तत्त्व का वर्णन करना था, सब अधिकारों के वर्णन से क्या प्रयोजन था ?
उत्तर―जीवतत्त्व के व्यवहार पर्याय को ही यथार्थतया न समझे वह पर्यायान्वयी जीवद्रव्य को समझने की पात्रता कहां से लावेगा ? इसलिए यह पर्याय वर्णन भी इस प्रयोजन के लिये आवश्यक है ।
अब जीव आदि नव अधिकारों की सूचना करने वाली इस द्वितीय गाथा के अनंतर बारह गाथावों में इन्हीं नव अधिकारों का विवरण किया जावेगा । जिसमें प्रथम जीव अधिकार के संबंध में गाथा कहते हैं―