वर्णीजी-प्रवचन:द्रव्य संग्रह - गाथा 30
From जैनकोष
मिच्छत्ताविरदिपमादजोगकोधावओऽथ विण्णेया ।
पण पण पणदस तिय चहु कमसो भेद हु पुव्वस्स ।।30।।
अन्वय―अथ पुव्वस मिच्छत्ताविरदिपमादजोगकोधादओ विण्णेया । हु कमसो पण पण पणदस तिय चहु भेदा ।
अर्थ―अब पूर्व के याने भावास्रव के मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, योग और कषाय, ये विशेष जानने चाहियें और उनके क्रम से 5, 5, 15, 3 और 4 भेद भी जानने चाहिये ।
प्रश्न 1―मिथ्यात्वादिक भावास्रव के भेद है या पर्याय?
उत्तर―भावास्रव स्वयं पर्याय है । मिथ्यात्वादिक भावास्रव के प्रकार (भेद) हैं । भावास्रव कितने तरह के होते हैं, इसका इसमें उत्तर है ।
प्रश्न 2―मिथ्यात्व किसे कहते हैं?
उत्तर―निज शुद्ध आत्मतत्त्व के प्रतिकूल अभिप्राय होने व अन्य शुद्ध द्रव्यों के प्रतिकूल अभिप्राय होने को मिथ्यात्व कहते हैं ।
प्रश्न 3―मिथ्यात्व के 5 भेद कौन-कौन से हैं?
उत्तर―मिथ्यात्व के 5 भेद ये है―(1) एकांतमिथ्यात्व, (2) विपरीतमिथ्यात्व, (3) संशयमिथ्यात्व, (4) विनयमिथ्यात्व और (5) अज्ञानमिथ्यात्व ।
प्रश्न 4―एकांतमिथ्यात्व किसे कहते हैं?
उत्तर―अनंतधर्मात्मक वस्तु में एक ही धर्म मानने के हठ या अभिप्राय को एकांतमिथ्यात्व कहते हैं ।
प्रश्न 5―विपरीतमिथ्यात्व किसे कहते हैं?
उत्तर―वस्तुस्वरूप के बिल्कुल विरुद्ध तत्त्वरूप वस्तु को मानना विपरीतमिथ्यात्व है ।
प्रश्न 6―संशयमिथ्यात्व किसे कहते है?
उत्तर―वस्तुस्वरूप में ‘‘यह इस भांति है अथवा इस भाँति’’ इत्यादि रूप से संशय करने को संशयमिथ्यात्व कहते हैं ।
प्रश्न 7―विनयमिथ्यात्व किसे कहते हैं?
उत्तर―देव-कुदेव, शास्त्र-कुशास्त्र, गुरु-कुगुरु आदि का विचार किये बिना सबको समान भाव से मानना, विनय करना विनयमिथ्यात्व है ।
प्रश्न 8―अज्ञानमिथ्यात्व किसे कहते हैं?
उत्तर―वस्तुस्वरूप का कुछ भी ज्ञान नहीं होना, हित-अहित का विवेक न होना अज्ञानमिथ्यात्व है ।
प्रश्न 9―अविरति किसे कहते है?
उत्तर―निज शुद्ध आत्मतत्त्व के आश्रय से उत्पन्न होने वाले सहज आनंद की रति न होने व पापकार्यों में प्रवृत्त होने को या पापकार्यों से विरत न होने को अविरति कहते हैं ।
प्रश्न 10―अविरति के कितने भेद हैं?
उत्तर―अविरति के सामान्यतया 5 भेद हैं और विशेषता 12 भेद हैं ।
प्रश्न 11―अविरति के 5 भेद कौन-कौन से हैं?
उत्तर―हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रहेच्छा―ये 5 अविरति के भेद हैं ।
प्रश्न 12―हिंसा किसे कहते हैं?
उत्तर―कषाय के द्वारा अपने व पर के प्राणों के घात करने को हिंसा कहते हैं ।
प्रश्न 13―पर के घात में अपनी हिंसा तो नहीं होती होगी?
उत्तर―कषायवश दूसरों के घात करने में अपनी हिंसा तो सुनिश्चित ही है । दूसरों के घात का उद्यम भी किया जावे और उससे परजीव का चाहे घात न भी हो तो भी निजहिंसा तो ही हो जाती है ।
प्रश्न 14―मरण से अतिरिक्त भी कोई हिंसा है?
उत्तर―निज हिंसा तो वास्तव में कषायों का होना है, इससे अपने चैतन्य प्राण का घात होता है । पर हिंसा चित्त दुखाना, संक्लेश कराना आदि भी है ।
प्रश्न 15―हिंसा के कितने भेद हैं?
उत्तर―हिंसा के 4 भेद हैं―(1) संकल्पी हिंसा, (2) उद्यमी हिंसा, (3) आरंभी हिंसा, (4) विरोधी हिंसा ।
प्रश्न 16―संकल्पी हिंसा किसे कहते हैं?
उत्तर―इरादतन किसी जीव के घात करने को संकल्पी हिंसा कहते हैं ।
प्रश्न 17―उद्यमी हिंसा किसे कहते हैं?
उत्तर―सावधानी सहित व्यापार करते हुये भी जो हिंसा होती है वह उद्यमी हिंसा है ।
प्रश्न 18―आरंभी हिंसा किसे कहते हैं?
उत्तर―रसोई आदि गृह के आरंभों को सावधानी से यत्नाचारपूर्वक करते हुये भी जो हिंसा हो जाती है उसे आरंभी हिंसा कहते हैं ।
प्रश्न 19―विरोधी हिंसा किसे कहते हैं?
उत्तर―किसी आक्रामक मनुष्य या तिर्यंच के द्वारा धन, जन, शील आदि के नाश का प्रसंग आने पर रक्षा के लिये उसके साथ प्रत्याक्रमण करने पर जो हिंसा हो जाती है उसे विरोधी हिंसा कहते हैं ।
प्रश्न 20―सुना है कि गृहस्थ के केवल संकल्पी हिंसा की हिंसा लगती है, शेष तीन हिंसायें नहीं लगती?
उत्तर―हिंसा तो जो करेगा उसे सभी लगती हैं, किंतु गृहस्थ अभी संकल्पी हिंसा का ही त्याग कर पाया है, शेष हिंसावों का त्याग नहीं कर सका है ।
प्रश्न 21―झूठ किसे कहते हैं?
उत्तर―कषायवश असत्यसंभाषण करने को झूठ कहते हैं ।
प्रश्न 22―चोरी किसे कहते हैं?
उत्तर―कषायवश दूसरों की चीज छुपकर अथवा ज्यादती करके हर लेने को चोरी कहते हैं ।
प्रश्न 23―कुशील किसे कहते हैं?
उत्तर―ब्रह्मचर्य के घात करने को कुशील कहते हैं ।
प्रश्न 24―निज स्त्री के सिवाय शेष अन्य परस्त्री, वेश्यारमण के त्याग करने को तो शील कहते होगे?
उत्तर―वस्तुत: तो निजस्त्रीसेवन भी कुशील है, किंतु परस्त्री, वेश्या आदि अन्य सब कुशीलों के त्याग हो जाने से स्वस्त्रीरमण होकर भी उस जीव के शील कहने का व्यवहार है ।
प्रश्न 25―परिग्रहेच्छा किसे कहते हैं?
उत्तर―बाह्य अर्थों की इच्छा करने को याने मूर्च्छा को परिग्रहेच्छा कहते हैं ।
प्रश्न 26-―परिग्रह कितने प्रकार के हैं?
उत्तर-परिग्रह दो प्रकार के है―(1) आभ्यंतर और (2) बाह्य ।
प्रश्न 27―आभ्यंतरपरिग्रह किसे कहते हैं?
उत्तर―जो आत्मा का ही परिणमन हो, किंतु स्वभावरूप न हो, विकृत हो उसे आभ्यंतरपरिग्रह कहते हैं ।
प्रश्न 28―आभ्यंतरपरिग्रह कितने प्रकार के हैं?
उत्तर-―आभ्यंतरपरिग्रह 14 प्रकार के हैं―(1) मोह, (2) क्रोध, (3) मान, (4) माया, (5) लोभ, (6) हास्य, (7) रति (8) अरति, (9) शोक, (10) भय, (11) जुगुप्सा, (12) पुरुषवेद, (13) स्त्रीवेद, (14) नपुंसकवेद ।
प्रश्न 29―बाह्यपरिग्रह की कितनी जातियां हैं?
उत्तर―बाह्यपरिग्रह की दस जातियाँ हैं―(1) क्षेत्र याने खेत, (2) वस्तु याने मकान, (3) हिरण्य याने चांदी, (4) सुवर्ण याने सोना, (5) धन―गाय, भैंस आदि पशु । (6) धान्य याने अन्न, (7) दासी याने नौकरानी, (8) दास याने नौकर, (9) कुप्य याने वस्त्रादि, ( 10) भांड याने बर्तन ।
प्रश्न 30-―आभ्यंतरपरिग्रह की इच्छा क्या होती है?
उत्तर-―कषाय में रुचना, कषाय में बसना आदि आभ्यंतर परिग्रहेच्छा है ।
प्रश्न 31-―अविरति के 12 भेद कौन से हैं?
उत्तर―कायअविरति 6 और विषयअविरति 6, इस प्रकार अविरति के 12 भेद हैं ।
प्रश्न 32―कायअविरति के भेद कौन से हैं?
उत्तर―पृथ्वीकायअविरति, जलकायअविरति, अग्निकायअविरति, वायुकायअविरति, वनस्पतिकायअविरति और त्रसकायअविरति―ये 6 भेद कायअविरति के हैं ।
प्रश्न 33―पृथ्वीकायअविरति किसे कहते हैं?
उत्तर―पृथ्वीकायिक जीवों की विराधना का त्याग न करना और खोदना, कूटना, फोड़ना, दाबना आदि प्रवृत्तियों से उनकी विराधना करने को पृथ्वीकायअविरति कहते हैं ।
प्रश्न 34―जलकायअविरति किसे कहते हैं?
उत्तर―जलकायिक जीवों की विराधना का त्याग न करना और विलोरना, तपाना, गिराना, हिलाना आदि प्रवृत्तियों से उनकी विराधना करने को जलकायअविरति कहते हैं ।
प्रश्न 35―अग्निकायअविरति किसे कहते हैं?
उत्तर―अग्निकायिक जीवों की विराधना का त्याग न करना और बुझाना, खुदेरना, बंद करना आदि प्रवृत्तियों से उनकी विराधना करने को अग्निकायअविरति कहते हैं ।
प्रश्न 36―वायुकायअविरति किसे कहते हैं?
उत्तर―वायुकायिक जीवों की विराधना का त्याग न करना और पंखा चलाना, रबड़ आदि में बंद करना आदि प्रवृत्तियों से उनकी विराधना करने को वायुकायिकअविरति कहते हैं ।
प्रश्न 37―वनस्पतिकायिक अविरति किसे कहते हैं?
उत्तर―वनस्पतिकायिक जीवों को विराधना का त्याग न करना और छेदना, काटना, पकाना, सुखाना आदि प्रवृत्तियों से उनकी विराधना करने को वनस्पतिकायअविरति कहते हैं ।
प्रश्न 38―त्रसकायअविरति किसे कहते हें?
उत्तर―द्वींद्रिय, त्रींद्रिय, चतुरिंद्रिय और पंचेंद्रिय जीवों की विराधना का त्याग न करना और पीटना, दलना, मलना, मारना, चित्त दुखाना आदि प्रवृत्तियों से उनकी विराधना करना, सो त्रसकायअविरति है ।
प्रश्न 39―विषयअविरति के भेद कौन-कौन हैं?
उत्तर―स्पर्शनेंद्रियविषय अविरति, रसनेंद्रियविषय अविरति, घ्राणेंद्रियविषय अविरति, चक्षुरिंद्रियविषय अविरति, श्रोत्रेंद्रियविषय अविरति और मनोविषय अविरति-―ये 6 भेद विषय अविरति के हैं ।
प्रश्न 40-―स्पर्शनेंद्रिय विषयविरति किसे कहते हैं?
उत्तर―स्पर्शनेंद्रिय के विषयों से विरक्त नहीं होने और शीतस्पर्शन, उष्णस्पर्शन, कोमलस्पर्शन, मैथुन आदि क्रियाओं से स्पर्शनेंद्रिय के विषय में प्रवृत्ति करने को स्पर्शनेंद्रियविषय अविरति कहते हैं ।
प्रश्न 41―रसनेंद्रिय विषयाविरति किसे कहते हैं?
उत्तर―रसनाइंद्रिय के विषयों से विरक्त न होने व मधुर नाना व्यंजन रसों के भक्षण पान की प्रवृत्ति करने को रसनेंद्रियविषय अविरति कहते हैं ।
प्रश्न 42―घ्राणेंद्रियविषय अविरति किसे कहते हैं?
उत्तर―घ्राणेंद्रिय (नासिका) के विषयों से विरक्त न होने व सुहावने सुगंधित पुष्प, इतर आदि के सूंघने को घ्राणेंद्रियविषय अविरति कहते हैं ।
प्रश्न 43-―चक्षुरिंद्रियविषय अविरति किसे कहते हैं?
उत्तर―चक्षुरिंद्रिय (नेत्र) के विषयों से विरक्त न होने व सुंदर रूप, खेल, नाटक आदि देखने की प्रवृत्ति करने को चक्षुरिंद्रिय विषयाविरति कहते हैं ।
प्रश्न 44―श्रोत्रेरिंद्रियविषयाविरति किसे कहते हैं?
उत्तर―श्रोत्रेंद्रिय के विषयों से विरक्त न होने, सुहावने राग भरे शब्द, संगीत आदि के सुनने की रति को श्रोत्रेंद्रिय विषयाविरति कहते हैं ।
प्रश्न 45―मनोविषय अविरति किसे कहते है?
उत्तर―मन के विषयों से विरक्त न होने व यश, कीर्ति, विषयचिंतन आदि विषयों में होने को मनोविषय अविरति कहते हैं ।
प्रश्न 46―इंद्रिय व मन के अनिष्ट विषयों में अरति या द्वेष करने को क्या अविरति नहीं कहते हैं?
उत्तर―अनिष्ट विषयों में द्वेष करने को भी अविरति कहते हैं । यह द्वेष मी इष्ट विषयों में रति होने के कारण होता है, अत: इसका भी अंतर्भाव पूर्वोक्त लक्षणों में हो जाता है ।
प्रश्न 47―प्रमाद किसे कहते हैं?
उत्तर―शुद्धात्मानुभव से चलित हो जाने व व्रतसाधन में असावधानी करने को प्रमाद कहते हैं ।
प्रश्न 48―प्रमाद के कितने भेद हैं?
उत्तर―प्रमाद के मूल भेद 15 हैं―(1) स्त्रीकथा, (2) देशकथा, (3) भोजनकथा, (4) राजकथा ये चार विकथायें, (5) क्रोध, (6) मान, (7) माया, (8) लोभ ये चार कथायें, (9) स्पर्शनेंद्रियवशता, (10) रसनेंद्रियवशता, (11) घ्राणेंद्रियवशता, (12) चक्षुरिंद्रियवशता, (13) श्रोत्रेंद्रियवशता ये पांच इंद्रियवशता तथा (14) निद्रा व (15) स्नेह ।
प्रश्न 49―स्त्रीकथा किसे कहते है?
उत्तर―स्त्री के सुंदर रूप, कला, चातुर्य आदि की रागभरी कथा करने को स्त्रीकथा कहते हैं ।
प्रश्न 50―देशकथा किसे कहते हैं?
उत्तर―देश विदेशों के स्थान, महल, चाल-चलन, नीति आदि की बातें करने को देशकथा कहते हैं ।
प्रश्न 51―भोजनकथा किसे कहते हैं?
उत्तर―स्वादिष्ट भोजन का स्वाद, भोजन बनाने की किया, भोजन की सामग्री आदि की चर्चा करने को भोजनकथा कहते हैं ।
प्रश्न 52―राजकथा किसे कहते हैं?
उत्तर―राजावों के व्यवहार, वैभव आदि की चर्चा करने को राजकथा कहते हैं ।
प्रश्न 53―क्रोधप्रमाद किसे कहते हैं?
उत्तर―क्रोधवश शुद्धात्मानुभव से चलित होने व आवश्यक कर्तव्यों में शिथिलता करने को क्रोधप्रमाद कहते हैं ।
प्रश्न 54―मानप्रमाद किसे कहते हैं?
उत्तर-―मानवश शुद्धात्मानुभव से चलित होने व आवश्यक कर्तव्यों में शिथिल होने को व दोष लगाने को मानप्रमाद कहते हैं ।
प्रश्न 55―मायाप्रमाद किसे कहते हैं?
उत्तर-―मायावश शुद्धात्मानुभव से चलित होने व आवश्यक कर्तव्यों में दोष लगाने को मायाप्रमाद कहते हैं ।
प्रश्न 56-―लोभप्रमाद किसे कहते हैं?
उत्तर-―लोभकषायवश शुद्धात्मानुभव से चलित होने व आवश्यक कर्तव्यों में दोष लगाने को लोभप्रमाद कहते हैं ꠰
प्रश्न 57―स्पर्शनेंद्रियवशता किसे कहते हैं?
उत्तर―स्पर्शनेंद्रिय के विषयों के चिंतवन, प्रवर्तन आदि के आधीन होकर शुद्धात्मानुभव से चलित होना स्पर्शनेंद्रियवशता है ।
प्रश्न 58―रसनेंद्रियवशता क्या है?
उत्तर-―भोजन के स्वाद में रति करके शुद्धात्मानुभव से चलित हो जाना, सो रसनेंद्रियवशता है ।
प्रश्न 59-―घ्राणेंद्रियवशता किसे कहते हैं?
उत्तर―अच्छे गंध वाले पदार्थों की गंध की वांछा व वृत्ति करके शुद्धात्मानुभव से चलित हो जाना घ्राणेंद्रियवशता है ।
प्रश्न 60―चक्षुरिंद्रियवशता किसे कहते हैं?
उत्तर-―सुंदर रूप, नाटक, कला आदि के देखने में रति करके शुद्धात्मानुभव से चलित हो जाने को चक्षुरिंद्रियवशता कहते हैं ।
प्रश्न 61―श्रोत्रेंद्रियवशता किसे कहते हैं?
उत्तर―रागोत्पादक शब्द, संगीत आदि के श्रवण में रति करके शुद्धात्मानुभव से चलित हो जाने को श्रोत्रेंद्रियवशता कहते हैं ।
प्रश्न 62―निद्राप्रमाद किसे कहते हैं?
उत्तर―निद्रा के अंश के भी वशीभूत होकर शुद्धात्मानुभव से चलित हो जाने को निद्राप्रमाद कहते हैं ।
प्रश्न 63―स्नेहप्रमाद किसे कहते हैं?
उत्तर-―किसी पदार्थ या प्राणीविषयक स्नेह करके शुद्ध स्वरूपानुभव से चलित हो जाने को स्नेहप्रमाद कहते हैं ।
प्रश्न 64―प्रमाद के संयोगी भेद कितने हैं?
उत्तर―प्रमाद के संयोगी भेद 80 होते हैं―4 विकथा, 4 कषाय, 5 इंद्रियविषय-―इनका परस्पर गुणा करने से 80 भेद हो जाते हैं । इन सब भेदों के साथ निद्रा व स्नेह लगाते जाना चाहिये ।
प्रश्न 65―कषाय के कितने भेद हैं?
उत्तर―कषाय के मूल भेद 4 है―(1) क्रोध, (2) मान, (3) माया, (4) लोभ ।
प्रश्न 66―कषाय के उत्तरभेद कितने हैं?
उत्तर―कषाय के उत्तरभेद 25 हैं―(1-4) अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ, (5-8) अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ, (9-12) प्रत्याख्यानावरण क्रोध मान, माया, लोभ, (13-16) संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ, (17) हास्य, (18) रति, (19) अरति, (20) शोक, (21) भय, (22) जुगुप्सा, (23) पुरुषवेद, (24) स्त्रीवेद और (25) नपुँसकवेद ।
प्रश्न 67―अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ किसे कहते हैं?
उत्तर―जो क्रोध, मान, माया, लोभ मिथ्यात्व को बढ़ावे उसे अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ कहते हैं ।
प्रश्न 68―अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ किसे कहते हैं?
उत्तर―जो क्रोध, मान, माया, लोभ देशसंयम का घात करे याने देशसंयम को प्रकट न होने दे उसे अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ कहते हैं ।
प्रश्न 69―प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ किसे कहते हैं?
उत्तर―जो क्रोध, मान, माया, लोभ सकलसंयम का घात करे याने सकलसंयम को प्रकट न होने दे उसे प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ कहते हैं ।
प्रश्न 70―संज्वलन क्रोध, मान, माया लोभ किसे कहते हैं?
उत्तर―जो क्रोध, मान, माया, लोभ यथाख्यात चारित्र (कषाय के अभाव में होने वाला चारित्र) को घाते याने यथाख्यात चारित्र को प्रकट न होने दे उसे संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ कहते हैं ।
प्रश्न 71―हास्य किसे कहते हैं?
उत्तर―किसी की किसी बात की कमी देखकर हास्य मजाक करने व लौकिक सुख पाकर हंसने को हास्य कहते हैं ।
प्रश्न 72―रति किसे कहते है?
उत्तर-इष्ट विषय पाकर या सोचकर उसमें प्रीति करने को रति कहते हैं ।
प्रश्न 73―अरति किसे कहते हैं?
उत्तर―अनिष्ट विषय को पाकर या सोचकर उसमें अप्रीति करने को अरति कहते हैं ꠰
प्रश्न 74―शोक किसे कहते हैं?
उत्तर―अनिष्ट प्रसंग उपस्थित होने पर या उसका चिंतवन करने पर रंज रूप परिणाम होने को शोक कहते हैं ।
प्रश्न 75―भय किसे कहते हैं?
उत्तर―अपनी कल्पनानुसार जिसे अहित माना है । उससे शंका करने या डरने को भय कहते हैं ।
प्रश्न 76―जुगुप्सा किसे कहते हैं?
उत्तर―अरुचिकर विषयों में ग्लानि करने को जुगुप्सा कहते हैं ।
प्रश्न 77―पुरुषवेद किसे कहते हैं?
उत्तर―आत्मीय गुण, पुरुषार्थ के विकास में उत्साह व यत्न करने को पुरुषवेद कहते हैं अथवा स्त्री के साथ रमण करने के अभिलाष परिणाम को पुरुषवेद कहते हैं ।
प्रश्न 78―स्त्रीवेद किसे कहते हैं?
उत्तर―मायाचार की मुख्यता, पुरुषार्थ में निरुत्साह, भयशीलता आदिक परिणाम को अथवा पुरुष के साथ रमण करने के अभिलाष परिणाम को स्त्रीवेद कहते हैं ।
प्रश्न 79―नपुंसकवेद किसे कहते है?
उत्तर―कायरता व कर्तव्य में निरुत्साह आदि परिणाम को अथवा पुरुष व स्त्री दोनों के साथ रमण करने के परिणाम को नपुंसकवेद कहते हैं ।
प्रश्न 80―योग किसे कहते हैं?
उत्तर―मन, वचन, काय के निमित्त से आत्मप्रदेश के परिस्पंद होने के कारणभूत प्रयत्न को योग कहते हैं ।
प्रश्न 81―योग के कितने भेद हैं?
उत्तर―योग के मूल भेद 3 हैं-―(1) मनोयोग, (2) वचनयोग, (3) काययोग । योग के उत्तर भेद 15 हैं―(1) सत्यमनोयोग, (2) असत्यमनोयोग, (3) उभयमनोयोग, (4) अनुभयमनोयोग, (5) सत्यवचनयोग, (6) असत्यवचनयोग, (7) उभयवचनयोग, (8) अनुभयवचनयोग, (9) औदारिक काययोग, (10) औदारिक मिश्रकाययोग, ( 11) वैक्रियककाययोग, (12) वैक्रियकमिश्रकाययोग, (13) आहारककाययोग, (14) आहारकमिश्रकाययोग, (15) कार्माणकाययोग ।
प्रश्न 82―सत्यमनोयोग किसे कहते हैं?
उत्तर―सत्यवचन के कारणभूत मन को सत्यमन कहते हैं और सत्यमन के निमित्त से होने वाले योग को सत्यमनोयोग कहते हैं ।
प्रश्न 83―असत्यमनोयोग किसे कहते हैं?
उत्तर―असत्यवचन के कारणभूत मन को असत्यमन कहते हैं और असत्य मन के निमित्त से होने वाले योग को असत्यमनोयोग कहते हैं ।
प्रश्न 84―उभयमनोयोग किसे कहते हैं?
उत्तर―उभय (सत्य व असत्य मिले हुये) वचन के कारणभूत मन को उभयमन कहते हैं और उभयमन के निमित्त से होने वाले योग को उभयमनयोग कहते हैं ।
प्रश्न 85-―अनुभयमनोयोग किसे कहते हैं?
उत्तर―अनुभय अर्थात् जो न सत्य है और न असत्य, ऐसे वचन के कारणभूत मन को अनुभयमन कहते हैं और अनुभयमन के निमित्त से होने वाले योग को अनुभयमनोयोग कहते हैं ।
प्रश्न 86―सत्यवचनयोग किसे कहते हैं?
उत्तर-―सत्यवचन के निमित्त से होने वाले योग को सत्यवचनयोग कहते हैं ।
प्रश्न 87―असत्यवचनयोग किसे कहते है?
उत्तर―असत्य वचन के निमित्त से होने वाले योग को असत्यवचनयोग कहते हैं ।
प्रश्न 88―उभयवचनयोग किसे कहते हैं?
उत्तर―सत्य व असत्य मिश्रित वचन के निमित्त से होने वाले योग को उभयवचनयोग कहते हैं ।
प्रश्न 89―अनुभयवचनयोग किसे कहते हैं?
उत्तर―अनुभय (जो न सत्य है और न असत्य है) वचन के निमित्त से होने वाले योग को अनुभयवचनयोग कहते हैं ।
प्रश्न 90―दिव्यध्वनि के शब्द किस वचनरूप हैं?
उत्तर―दिव्यध्वनि के शब्द अनुभयवचन हैं और ये ही शब्द श्रोतावों के कर्ण में प्रविष्ट होने पर सत्यवचन कहलाते हैं ।
प्रश्न 91-―द्वींद्रियादि असंज्ञी जीवों के शब्द किस वचनरूप हैं?
उत्तर―द्वींद्रियादि असंज्ञी जीवों के शब्द अनुभयवचनरुप हैं ।
प्रश्न 92―संज्ञी जीवों की कौनसी भाषा अनुभयवचन रूप हैं?
उत्तर―प्रश्न, आज्ञा, निमंत्रण आदि के शब्द अनुभयवचन कहलाते हैं ।
प्रश्न 93―औदारिक काययोग किसे कहते हैं?
उत्तर―मनुष्य व तिर्यंचों के शरीर को औदारिक काय कहते हैं, उस काय के निमित्त से होने वाले योग को औदारिक काययोग कहते हैं ।
प्रश्न 94-―औदारिक मिश्रकाययोग किसे कहते हैं ?
उत्तर―औदारिक मिश्रकाय के निमित्त से होने वाले योग को औदारिक मिश्रकाययोग कहते हैं ꠰
प्रश्न 95―औदारिक मिश्रकाय कब होता है?
उत्तर―कोई जीव मरकर मनुष्य या तिर्यंचगति में जावे । वहाँ जन्मस्थान पर पहुंचते ही यह जीव औदारिक वर्गणाओं को शरीररूप से ग्रहण करने लगता है, किंतु जब तक शरीर पर्याप्ति (शरीर बनाने की शक्ति) पूर्ण नहीं हो पाती है तब तक उस शरीर को औदारिक मिश्रकाय कहते हैं । इस अपर्याप्त अवस्थान में कार्माणवर्गणा और औदारिक वर्गणा दोनों का सम्मिलित ग्रहण है ।
प्रश्न 96―वैक्रियककाययोग किसे कहते हैं?
उत्तर―देव व नारकियों के शरीर को वैक्रियककाय कहते हैं, उसके निमित्त से होने वाले योग को वैक्रियककाययोग कहते हैं ।
प्रश्न 97―वैक्रियकमिश्रकाययोग किसे कहते हैं?
उत्तर―वैक्रियकमिश्रकाय के निमित्त से होने वाले योग को वैक्रियकमिश्रकाययोग कहते हैं ।
प्रश्न 98―वैक्रियकमिश्रकाय कब होता है?
उत्तर―कोई मनुष्य या तिर्यंच मरकर देव या नरकगति में जाये । वहाँ जन्मस्थान पर पहुंचते ही जीव वैक्रियक वर्गणाओं को शरीर रूप से ग्रहण करने लगता है । किंतु जब तक शरीर पर्याप्ति (शरीर रचना होने की शक्ति) पूर्ण नहीं हो पाती तब तक इस शरीर को वैक्रियक मिश्रकाय कहते हैं । इस अपर्याप्ति अवस्था में कार्माणवर्गणा और वैक्रियकवर्गणा―इन दोनों का सम्मिलित ग्रहण है ।
प्रश्न 99―आहारककाययोग किसे कहते हैं?
उत्तर―प्रमत्तविरत (छठे) गुणस्थानवर्ती आहारकऋद्धिधारी मुनि के जब कोई सूक्ष्म तत्त्व में शंका उत्पन्न होती है तब उनके मस्तक से एक हाथ का, धवल, पवित्र, अव्याघाती आहारक शरीर निकलता है, । यह पुतला केवली या श्रुतकेवली के दर्शन करके वापिस मस्तक में समा जाता है । उस समय मुनि की शंका निवृत्त हो जाती है । इस आहारक शरीर के निमित्त से जो योग होता है उसे आहारककाययोग कहते हैं ।
प्रश्न 100―आहारकमिश्रकाययोग किसे कहते हैं?
उत्तर―यह आहारकशरीर जब तक पूर्ण बन नहीं लेता तब तक आहारक मिश्रकाय कहलाता है । इस आहारकमिश्रकाय के निमित्त से होने वाले योग को आहारकमिश्रकाययोग कहते हैं । इस अपर्याति अवस्थान में औदारिक वर्गणा व आहारकवर्गणा दोनों का सम्मिलित ग्रहण है ।
प्रश्न 101―कार्माणकाययोग किसे कहते हैं ?
उत्तर―कोई जीव मरकर दूसरी गति में मोड़े वाली विग्रहगति से जावे तो उसके उस रास्ते में केवल कार्माणकाय के निमित्त से होता है तथा समुद्घातकेवली के प्रतर और लोकपूरण समूद्घात में केवल कार्माणकाय के निमित्त से योग होता है । उस योग को कार्माणकाययोग कहते हैं ।
प्रश्न 102―इन सब आस्रवों के जानने से क्या लाभ है?
उत्तर―ये सब आस्रव विभावरूप हैं, मैं मात्र चैतन्यस्वरूप हूँ । इस प्रकार अंतर जानने से भेदविज्ञान होता है तथा भूतार्थनय से आस्रव का जानना निश्चय सम्यक्त्व की उत्पत्ति का कारण है ।
प्रश्न 103―भूतार्थनय किसे कहते हैं?
उत्तर-―एक के गुणपर्यायों को उस ही एक की ओर झुकते हुए उस एक में ही जानने को भूतार्थनय कहते हैं ।
प्रश्न 104―भूतार्थनय से आस्रव का जानना किस प्रकार है?
उत्तर―ये सब आस्रव पर्यायें हैं । किस द्रव्य की हैं? जीवद्रव्य की । जीवद्रव्य के किस गुण की हैं? मिथ्यात्व तो सम्यक्त्व (श्रद्धा) गुण की पर्यायें हैं और योग योगशक्ति की पर्यायें हैं, शेष सब चारित्रगुण की पर्यायें हैं । इस प्रकार द्रव्य, गुण, पर्यायों को यथार्थ जानकर एकत्व की ओर उपयोग जावे, इस प्रकार जानना भूतार्थनय का जानना होता है । जैसे यह लोभ पर्याय चारित्रगुण की है, इस बोध में पर्यायदृष्टि से गौण हों जाती है और गुणदृष्टि मुख्य हो जाती है पुन: चारित्रगुण जीवद्रव्य का है, इस बोध में गुणदृष्टि गौण हो जाती है और द्रव्यदृष्टि मुख्य हो जाती है । पश्चात् द्रव्यदृष्टि में विकल्प का अवकाश न होने से द्रव्यदृष्टि भी छूटकर केवल सहज आनंदमय परिणमन का अनुभव रह जाता है । इस शुद्ध आत्मतत्त्व की अनुभूति को निश्चय सम्यक्त्व कहते हैं ।
इस प्रकार भावास्रव के स्वरूप का विशेष रूप से वर्णन करके अब द्रव्यास्रव के स्वरूप का विशेष रूप से वर्णन करते हैं―