वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 104
From जैनकोष
सम्मं मे सव्वभूदेसु वेरं मज्झं ण केणवि।
आसाए वोसरित्ता णं समाहि पडिवज्जए।।104।।
ज्ञानी की परमसमता- जो साधु अपने अंत:स्वरूप के अभिमुख हुआ है, निज चित्स्वभाव में उपयोग को जो तपा रहा है, उसके कैसी भावशुद्धि होती है, इसका वर्णन इस गाथा में चलेगा। ज्ञानी-संत चिंतन कर रहा है कि मेरा समस्त प्राणियों में समताभाव रहे, किसी के साथ भी मेरा बैर-भाव न हो। मैं समस्त आशावों को छोड़कर समाधि को ग्रहण करता हूं। जिसने समस्त इंद्रिय के व्यापार को हटा दिया है, एक शुद्ध परमार्थभूत आत्मतत्त्व के दर्शन में निरत है- ऐसा ज्ञानी पुरुष न तो ज्ञानियों में राग करता है, न अज्ञानियों में द्वेष करता है। न भले पुरुषों में राग करता है और न बुरे पुरुषों में द्वेष करता है। यह उनकी परमसमता बर्त रही है, वे निरंतर ज्ञानाद्रष्टा होते रहते हैं।
समस्त परजीवों में ज्ञानी के रागद्वेष का अभाव- भैया ! जैसे लोक में कहते हैं कि पापियों से घृणा मत करो, किंतु पाप से करो। कोई आत्मा बुरा नहीं है। यों आत्मा की करतूत, आत्मा ही दुर्वृत्ति जो हुई है, वह हेय है। आत्मा कोई बुरा नहीं है। जैसे पापियों को निरखकर पापियों से द्वेष न करने की बात कही जा रही है। वहां कुछ हेय है तो पाप हेय है। इसी प्रकार जो पुण्य करने वाले हैं, ज्ञान करने वाले हैं, अच्छे आचरण पर चलने वाले हैं- ऐसे ज्ञानी पुरुषों से भी राग न करो। ज्ञानी भी राग करने योग्य नहीं है, किंतु ज्ञानी का वह ज्ञानस्वरूप अनुराग करने योग्य है। इस संत को सर्वत्र समताभाव प्रकट हो रहा है। अब इस ज्ञानी के न तो किसी के प्रति शत्रुता का भाव रहा है और न किसी के प्रति मित्रता का भाव रहा है। उसका किसी भी मनुष्य के प्रति बैर नहीं है- ऐसा वह अपने में अनुभव कर रहा है।
परमार्थत: क्षमा स्वयं पर ही प्रयोग- भैया ! क्षमा दूसरे को नहीं दी जाती है, क्षमा खुद को दी जाती है। यह लोकव्यवहार है कि दूसरे ने कोई ऐसा अनुचित कार्य किया, जिससे मुझे कष्ट पहुंचा। उसे सुबुद्धि आये और मुझसे क्षमा मांगे तो मैं सोचता हूं कि इसको क्षमा दे देनी चाहिये। अत: कह देते है कि अच्छा, लो भाई मैंने क्षमा कर दिया। कोई दूसरे को क्षमा नहीं कर सकता, क्योंकि किसी ने दूसरे का अपराध भी नहीं किया और कभी कर भी नहीं सकता है। न किसी का यह अपराध कर सकता है और न किसी को क्षमा कर सकता है। यह जीव मोहवश अपने आपमें ही अपराध करता है और अपने आपको ही क्षमा कर सकता है।
ज्ञानी का नि:संकट सहजविश्राम- क्षमाशील ज्ञानी पुरुष अंत:सहजविश्राम प्राप्त करता है। अज्ञान अवस्था ही एक महान् संकट है, अन्य कुछ संकट नहीं हैं। वस्तु के स्वतंत्रस्वरूप की सुध न रहना और मैंने अमुक को यों किया, इस प्रकार का विकल्प चलना, यह एक संकट है। संकट और किसी बाह्यपरिणति का नाम नहीं है। ज्ञानी पुरुष के न शत्रुता का परिणमन है और न मित्रता का परिणमन है। उसका न तो किसी के साथ बैर है और न किसी के साथ राग है। वह सहज वैराग्य में परिणत है। ज्ञानी अपने आपमें शिवसंकल्प कर रहा है कि मैं परमसमाधि को प्राप्त होता हूं। अज्ञानीजन तो कषायों से थककर, झक मारकर विश्राम लेते हैं। होने दो, मरने दो, मुझे मतलब नहीं, यह उसके एक अज्ञान की अकुलाहट है, पर ज्ञानी पुरुष वस्तुस्वरूप के जानने के कारण सहजविश्राम ले रहा है। मैं उत्कृष्ट परमसमाधि को प्राप्त होता हूं, जिससे परम समता का भाव व्यक्त होता है।
स्वसामर्थ्य के प्रयोग का अनुरोध- हे मुमुक्ष आत्मन् ! तू तो अनंतशक्तिसंपंन है। केवल सारे विश्व को जानता देखता रहे- ऐसी अनंत सामर्थ्य तुझमें है। अरे, तू क्यों नहीं प्रमाद छोड़ता है? अपने आपमें सही ज्ञान की दृष्टि क्यों नहीं जगाता है? एक ही पूर्ण निर्णय है कि सम्यज्ञान ही सत्य-वैभव है और भ्रम ही पूरी विडंबना है। मैं समस्त परपदार्थों से जुदा हूं, इसकी दृष्टि न होकर मेरा घर है, मेरा परिवार है, मेरा धन-वैभव है, मेरी इज्जत है, लोग मेरी कदर करते हैं। अरे, ये सब स्वप्न की बातें हैं। मेरा तो सब कुछ मेरे से ही पूरा पड़ेगा। मैं अपने ज्ञान को जिस तरह प्रवर्ताऊँगा, उसी प्रकार मुझ पर बीतेगी। दूसरे की करतूत मुझ पर न बीतेगी।
परमार्थ कुलाचार की संभाल- हे मुमुक्ष पुरुष ! समतापरिणाम में रहना ही तेरे कुल का शुद्धाचरण है। तेरा कुल है चैतन्यस्वरूप। उस चैतन्यस्वरूप के अनुरूप ही उपयोग बनाना, सो ही तेरे कुल का सच्चा आचार है। तू अपने सदाचार को छोड़कर नीच वृत्ति में क्यों आ रहा है? तू अपने अनंतकाल को संभाल। इस ज्ञानबल में, इस ज्ञानचक्र में वह सामर्थ्य है कि यह मोह राजा जो अज्ञानमंत्री की सलाह लेकर अपना तांडव-नृत्य कर रहा है, वह इस ज्ञानबल से ही समूल नष्ट हो सकेगा। अपने बल को संभाल। अपने आपमें अपनी प्रभुता निरख, तुझे अनंत आनंद होगा। कोई हितू बारबार भी समझाये और तू एक बार भी न माने तो यह तो बरबादी के होनहार की ही बात है। आचार्यदेव जिन्होंने सर्वस्व संन्यास करके अपने आपमें ज्ञानविभूति पायी है, उस वैभव का उपयोग करके मुमुक्षुवों को समझा रहे हैं- अरे, तू एक बार तो इस चैतन्यस्वरूप की ओर झुक। इन जड़, असार जो मिटने वाले हैं, इन परपदार्थों की ओर ही क्यों झुक रहा है?
ज्ञानामृत- अहो, जब तक उपयोग में विष की डली रखी हुई है, तब तक अमृत का स्वाद कैसे आ सकता है? ज्ञानस्वरूप ही अमृत है और रागद्वेष ही विष है। उस समता की भावना करो, जिस समता के प्रसाद से मुक्ति का सुख प्राप्त होता है। यह समता ही समस्त दुर्भावनावों के अंधकार को दूर करती है। अज्ञानी लोग जरा-जरासी बातों पर राग और द्वेष बराबर बनाये रहते हैं। निरंतर उनका ऐसा जागरण है कि यह मेरा घर है, यह मेरा लड़का है, यह पराया है, यह दूसरे का है। जरा-जरासी बातों पर ऐसा पक्ष पड़ा हुआ है। जो भीतर में पक्ष बना है, वह तो अपना असर दिखायेगा ही। परपदार्थों में कुछ अपनापन मानना- यही दुर्भावना है। उस दुर्भावना को नष्ट करने में यह ज्ञानप्रकाश समर्थ है।
समता की उत्कृष्टता- संयमीजन ज्ञानसंपदा का आदर करते हैं। अज्ञानीजन इस संपदा का क्या आदर करें? वे तो रागद्वेष के वश होकर इसका आदर नहीं करते हैं। यह तत्त्वज्ञान, यह मोक्षमार्ग ज्ञानी पुरुषों के द्वारा उपादेय है। इस धर्म की आस्था ज्ञानी को है। अज्ञानी तो धर्म की उपेक्षा करता है। अज्ञानीजन इस धर्म की उपेक्षा कर दें तो क्या उनके उपेक्षा कर देने से यह धर्म निद्य हो जाता है? यह धर्म तो अब भी बड़े उत्कृष्ट पुण्यशाली ज्ञानवंत पुरुषों के उपयोग में शोभा पा रहा है। वन की भिलनियां वन में मिले गज-मोतियों का अनादर कर देती हैं। उन्हें कुछ पता नहीं है, अत: वे उन्हें पैरों के घिसने के काम में लेती हैं। यह तो उनकी अज्ञानता है, पर उन भिलनियों के द्वारा उन गज-मोतियों के दुरुपयोग से क्या मोती निद्य हो गये? वे गज-मोती, वे हीरे-रत्न तो अब भी बड़े-बड़े सम्राटों के गले में शोभित होते हैं, पटरानियों के गले में शोभित होते हैं। अज्ञानी जनों द्वारा अनादर कर दिये जाने से महान् पदार्थों का अनादर नहीं हो जाता है। हे मुमुक्षु पुरूषों ! रागद्वेष की दुर्भावनाओं को तजकर एक इस समता की भावना में आइये।
ज्ञानी और अज्ञानी का संस्कार- ज्ञानी पुरुष को स्वप्न में भी ज्ञान की ही बातें दिखाई देती हैं। स्वप्न भी उन्हें आए तो ऐसा, जिसमें ज्ञानप्रकाश की ही बात हो, क्योंकि ज्ञानियों के चित्त में निरंतर ज्ञान का ही उपयोग रहा करता है। शुद्धस्वरूप का विवेक जिसके निरंतर जग रहा हो, प्रतीति में बना हो तो आंखों की निद्रा आने पर भी वह संस्कार अपना विशुद्ध परिणमन करता है। अज्ञानीजनों के निरंतर अहंकार और ममकार बसा रहता है। किसी क्षण वे अहंकार को छोड़कर नहीं रह सकते हैं, इसी कारण उन्हें स्वप्न भी आयेंगे तो खोटे ही आयेंगे। अहंकार और ममकार के पोषक ही स्वप्न आयेंगे, उन्हें अच्छा स्वप्न दिख ही नहीं सकता। अज्ञानी के संस्कार का असर स्वप्न तक में चलता है।
समता का प्रताप- हे प्रियतम ! एक इस समता की भावना भावो। समतास्वरूप निज ज्ञानस्वरूप की ही भावना करो तो ये सब क्लेशजाल नियम से दूर होंगे। इन क्लेशों को दूर करने की अन्य किसी में सामर्थ्य नहीं है। खेद की बात तो यह है कि जिस संबंध के कारण, मोह के कारण जिन परजीवों की प्रवृत्ति को देखकर दु:खी हो जाते हैं, उन्हीं की ओर लगने की यह सोचा करते है और कोशिश करता है। निरंतर बाह्यसंबंध का ही तो दु:ख है और अज्ञानी प्राणी निरंतर बाह्यसंबंध ही करते हैं। एक क्षण भी तो बाह्य विकल्प त्यागकर विश्राम से नहीं बैठ सकते हैं। अज्ञान के समान संकट दुनिया में कुछ है ही नहीं।
जड़संपदा को पाकर क्यों हर्ष मानते हो? उसमें यह कला कहां पड़ी है कि हमें शांति उत्पन्न कर दे? शांति प्रकट करने की कला तत्त्वज्ञान में ही है। मेरे समता प्रकट होओ और कुछ न चाहिये। समता हो सकी तो सब कुछ पा लिया। समागम में कोई परपदार्थ न रहें, किंतु समता बस रही हो तो इस समता के प्रताप से निरंतर आनांदमृत का पान किया जा सकेगा। यह समता बड़े-बड़े योगियों को भी दुर्लभ है। इसे पाते तो योगीजन ही हैं, किंतु उन्हें अंतरंग में बहुत बड़ा पुरुषार्थ करना पड़ता है, तब शांति संपदा में भेंट होती है।
हल्दी की गांठ पर पंसारीपना- भैया ! बड़े-बड़े तीर्थंकर तो इन ठाठों को छोड़कर अपने-अपने उपादेय स्थान में पहुंचे और यहां हम आप न कुछ साधारणसी विभूति पाकर निरंतर इस विभूति के ही स्वप्न देखा करते हैं, यह कितने खेद की बात है? अहाने में तो कहा करते हैं कि ‘‘चूहा हल्दी की गांठ पाकर पंसारी बन गया’’। पर अपने में कुछ नहीं घटाते हैं कि थोड़ासा यह हजारों लाखों का धन पाकर यह अपने को श्रेष्ठ मानने लगा है। तेरे से बढ़कर अनेकों की स्थितियां इसी देश में हैं, उनसे भी बढ़कर अनेकों की स्थितियां विदेश में भी संभव हैं, उनसे भी कई गुणे बढ़कर मंडलेश्वर राजा होते हैं, उनसे अधिक महामंडलेश्वर राजा होते हैं, उनसे कई गुणे नारायण और प्रतिनारायण होते हैं, वे तीन खंड के अधिपति होते हैं, उनसे दुगुने चक्रवर्ती पुरुष होते हैं और ऐसे अनेक चक्रवर्ती जिनके चरणों में नमस्कार करें, उन तीर्थंकरों के बड़प्पन को तो बताया ही क्या जाए? अब उनके सामने देख तूने हल्दी की गांठ ही पायी है या कुछ और पाया है?
आभूषण और बेड़ी- ये परमपुरुष, तीर्थंकर आदिक जो सब कुछ परित्याग करके निर्जन स्वक्षेत्र में, परक्षेत्र में निवास कर रहे थे, उनको किसका आकर्षण था, वे किसको निरखकर प्रसन्न रहा करते थे? वह तत्त्व है ज्ञानदर्शनमय आत्मस्वरूप। यह समतारस से भरा हुआ केवल ज्ञानप्रकाश तीनों लोकों का आभूषण है। कौनसी जड़विभूति में तुम आभूषण की कल्पना करते हो? यह तो संसारकारागार में बांधने की बेड़ी है। जब तक यथार्थज्ञान नहीं होता है, तब तक इस थोते विषय-साधनों की बड़ी कीमत आंकी जाती है। तत्त्वज्ञान होने पर यह ज्ञानी पुरुष इस संपदा को यों त्याग देता है, जैसे कोई पुरुष नाक सिनककर फैंक देता है। नाक को सिनककर उसे फिर हाथ से कोई नहीं पकड़ता है। इसी प्रकार से ये ज्ञानी-संत अपने ज्ञानबल से इस संपदा का परिहार करते हैं और कभी भी अपने उपयोग में इसे उपादेय नहीं मान सकते हैं।
समाधिस्वरूप आत्मतत्त्व का शरण- यह मेरा आत्मस्वभाव ही परमशरण है। इस आत्मतत्त्व के जानने के उपाय अनेक बताये गये हैं। 7 नय, नैगम, संग्रह आदिक अथवा निश्चय व्यवहाररूपनय आदि अनेक प्रकार के नयों से इस आत्मतत्त्व का परिज्ञान कराया जाता है, किंतु जब यथार्थसम्यक् आत्मतत्त्व का परिज्ञान होता है, उस समय नय का साधन जुट जाता है। यह मेरा आत्मतत्त्व जब अनुभव में आया तो वहां नयलक्ष्मी का उदय नहीं रह सकता है, बल्कि नयलक्ष्मी अस्त को प्राप्त हो जाती है। और तो क्या, वहां प्रमाण का भी विकल्प समाप्त हो जाता है। वहां कोई व्यवहार नहीं रहता। केवल शुद्ध चिदानंदस्वरूप आत्मतत्त्व का अनुभव जगता है। वह मैं आत्मतत्त्व हूं, यथार्थ जो कि इस शुद्धानुभव का विषय होता है। परमयोगी-संत इस ज्ञानज्योति को निरखते रहते हैं, जिससे कि वे निर्जन वनों में भी प्रसन्न रहा करते हैं। यह है करने का काम।
यह हिसाब-किताब वैभव संचय रखना आदि आत्मा का कर्तव्य नहीं है। गृहस्थावस्था में यद्यपि करना पड़ता है, किंतु उसे अपना ध्येय न बना लें। अपने आपको शुद्ध ज्ञानस्वरूप मानते रहने का ध्येय बनायें। इस समतापरिणाम से ही साधु की साधुता है और परमात्मा बनने का साधनभूत शुक्लध्यान प्रकट होता है। यह ज्ञानी साधु चिंतन कर रहा है कि मेरा सब प्राणियों में समतापरिणाम रहो। किसी के साथ मेरा बैरभाव नहीं है। मैं समस्त पदार्थों की आशा को छोड़कर निश्चय से दृढ़ता के साथ ज्ञाताद्रष्टा रहने रूप परसमाधि को प्राप्त होता हूं। निश्चयप्रत्याख्यान के प्रसंग में यह ज्ञानी-संत समाधिभाव का शिवसंकल्प कर रहा है।