वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 109
From जैनकोष
जो पस्सदि अप्पाणं समभावे संठवित्त परिणामं।
आलोयणमिदि जाणह परमजिणंदस्स उवएसं ।।109।।
परमार्थ आलोचन- पूर्व गाथा में आलोचना के चार प्रकार कहे गये थे। उन प्रकारों में से प्रथम प्रकार की जो आलोचना है, उसका स्वरूप इस गाथा में कहा जा रहा है। जो जीव आत्मा को समताभाव में स्थापित करके निज आत्मा को देखता है, वह आलोचन है- ऐसा परमजिनेंद्रदेव का उपदेश जानिये। आलोचना यहां समतापरिणमन का नाम कहा गया है। जो पुरुष पूर्णरूप से अंतर्मुख होकर, अपने आत्मस्वरूप की ओर झुककर निजस्वभाव को निरंतर देखता रहता है, उसके आलोचना हुआ करती है। आलोचना का सीधा व्यवहारिक अर्थ है अपने दोषों की आलोचना करना। मुझसे ये दोष हुए हैं, झूठ बोला है, अमुक जीव को सताया है आदि। जैसा कि आलोचना पाठ में बताया गया है, उसका नाम आलोचना है, वह सब व्यवहारालोचना है। निश्चयालोचना में भेद नहीं रहता है। तो अभेदरूप जो समतापरिणाम है, उसका नाम परमार्थ आलोचन है, इसमें परमार्थ का आलोचन दर्शन हो रहा है।
अभेदाराधक की आलोचनस्वरूपता- इससे पहिले आलोचना के लक्षण प्रसंग में यह आलोचन का प्रकार आया है, इस कारण यहां आलोचन कहा गया है। जो पुरुष अपने आपमें प्रकाशमान् कारणपरमात्मा को देखता है, वह पुरुष आलोचनस्वरूप है। परमार्थ से भाव और भाववान् में अंतर नहीं है। जैसे आग और गर्मी। आग का लक्षण गर्मी कहा है। तो क्या आग अलग चीज है और गर्मी अलग चीज है? कुछ अलग नहीं है। वह आग ही गरम स्वरूप को लिए हुए है। ऐसे ही आत्मा का स्वरूप ज्ञान कहा है? तो क्या ज्ञान अलग चीज है और आत्मा अलग चीज है? नहीं है। आत्मा को ही ज्ञानस्वरूप कहा है। ऐसे ही उस ज्ञानस्वरूप दृष्टि में जो यह आलोचन हो रहा है, सो यह आलोचन भाव, परमार्थ शुद्ध कारणपरमात्मतत्त्व का आश्रयरूप भाव और आलोचक- इनमें क्या यह अलग चीज है? नहीं है। यों इस शुद्ध आलोचन को आलोचक से अभेद करके कहा जा रहा है कि जो अपने इस कारण प्रभु को देखता है, वह ज्ञानी संत आलोचन कहलाता है।
अंतरीय तत्त्व- भैया ! अपना प्रभु अपने आपमें मौजूद है। जो चैतन्यस्वरूप निर्दोष होकर प्रभु होगा, सर्वज्ञ सर्वदर्शी बनेगा, वह चैतन्यस्वभाव अभी भी हम आपमें मौजूद है। उसका नाम है कारणप्रभु। अरहंत, सिद्ध को कहते हैं कार्यप्रभु अर्थात् उनकी प्रभुता व्यक्त हो गई है, कार्यरूप में प्रभुता आ गई है और हम आप सबकी प्रभुता कार्यरूप में नहीं आयी है, कारणरूप बनी हुई है। अपना कारणप्रभु चैतन्यस्वभाव है, जिसकी दृष्टि करके कार्यप्रभुता प्रकट होती है। यह कारणपरमात्मा अपूर्व निरन्जन निज ज्ञान का धाम है। ज्ञान का धाम, आनंद का धाम यह अपना स्वयं आत्मा है। जिसे अपने ज्ञानानंदस्वरूप का विश्वास है, वह अपने आनंद के लिए जगह-जगह नहीं भटकता है, वह कहीं भी बाहर में उत्सुकता नहीं लाता। अपने आपमें विराजमान् ज्ञानानंदधाम कारणप्रभु की उपासना करके तृप्त रहता है।
शांतिपूरक कर्तव्य- गृहस्थावस्था में चूँकि धनोपार्जन की आवश्यकता है और सबके देखभाल की जरूरत है। इतना करने पर भी ज्ञानी-गृहस्थ का कर्तव्य है कि वह रात-दिन में किसी भी क्षण तो अपने को ऐसा अनुभव करे कि मैं अकिन्चन्यस्वरूप हूं, केवलज्ञानानंदस्वरूपमात्र हूं। यदि अपने सहज शुद्ध स्वरूप का कभी भी विश्वास न करे तो उसका यह सब चतुराई भरा जीवन पशु-पक्षी के जीवन की ही तरह है। पशु-पक्षी भी चतुर पशु-पक्षियों को आदर देते हैं, इसी प्रकार यह सम्यक्त्वशून्य, अपने स्वरूप से अपरिचित पुरुष अज्ञानी जनों से आदर पाता है। इससे क्या आत्मा का पूरा पड़ेगा? एक अपने पास ज्ञानबल नहीं है तो कुछ भी नहीं है। इस कारण से चाहे गृहस्थ हों, चाहे मुनि हों, सभी का यह कर्तव्य है कि अपने आपके इस चैतन्यस्वरूप की खबर लिया करें, अन्यथा न संतोष होगा और न कभी शांति मिल सकेगी।
बहिर्मुखता में संतोष का अभाव- बाह्यपदार्थों के संचय में कौनसी वह रेखा है, जहां अटक हो जायेगी कि बस इससे आगे अब हमें कुछ न करना चाहिये, हम कृतार्थ हैं। जिसके पास कुछ नहीं है, दाने-दाने को तरसता है, उसकी दृष्टि में 100) ही बहुत बड़ी रकम है और उस समय अपनी हिम्मत के माफिक यह सोचता है कि मुझे 100) मिल जायें, फिर तो हम बहुत सुखी होंगे। 100) की पूँजी हो गई तो हजार पर दृष्टि जाती है, हजार हुए तो लाख की दृष्टि जायेगी, लाख हो जायें तो करोड़ की दृष्टि हो जायेगी और करोड़ हो जायें तो अरब-खरब की दृष्टि हो जायेगी, फिर सारे संसार पर राज्य करने की दृष्टि होती है। मगर सोचो तो सही कि सारी दुनिया पर एकक्षत्र राज्य भी हो जाए तो भी इसे शांति का मार्ग कैसे मिल सकता है? बहिर्मुख दृष्टि रहे, बाहर ही बाहर उपयोग रहे तो संतोष कभी मिल ही नहीं सकता।
कारणप्रभु के मिलन की पद्धति- शांति का धाम, आनंदनिधान यह आपका कारणप्रभु स्वयं है। जो इस कारणप्रभु का दर्शन करता है, उसके ही दोष दूर होते हैं और गुण प्रकट होते हैं। यह अपना कारणप्रभु हम अपनी ओर झुकें तो मिलेगा। हम अपने को तो चाहें और खोजें बाहर में तो कैसे मिल सकता है? जो चीज जहां नहीं है, वहां खोजो तो क्या मिल जाएगी? मेरा आनंद किसी भी बाह्यपदार्थ में नहीं है और हम बाह्यपदार्थों में खोजें तो आनंद कैसे मिल सकेगा? आनंद का धाम यह कारणप्रभु स्वयं है। इसकी ओर झुककर हमारा जैसा स्वरूप है, उस स्वरूप के आकार ही उपयोग को बनाकर परमविश्राम कर सकें तो यह कारणप्रभु हमें मिलेगा। इस प्रभु के दर्शन में ही हमारा कल्याण है।
बाहर में शरण का अभाव- भैया ! जगत् में कोई भी पदार्थ विश्वास के योग्य नहीं है, न मेरे लिये शरण है। शरण हो ही नहीं सकता, क्योंकि वस्तु का स्वरूप ही ऐसा है। मैं अपने में अपने द्वारा परिणमता हूं, क्योंकि मैं अपने स्वरूप से सत् हूं। बाह्यपदार्थ अपने स्वरूप से सत् हैं, सो वे अपने में अपने द्वारा परिणमते रहते हैं। मेरा कुछ भी कार्य किसी परपदार्थ में नहीं पहुंचता और न किसी भी परपदार्थ की क्रिया मुझमें पहुंच सकती है। फिर संबंध क्या मेरा किसी अन्य पदार्थ से? मैं चेतनपदार्थ हूं, जाननहार हूं, इस कारण मैं पर को कभी अपने उपयोग में लेकर कुछ ममता, विषय-कषायों के भाव कर डालता हूं, इतने पर भी मैंने जो कुछ किया, सो अपने आपको ही किया, किसी बाह्यपदार्थ को मैंने नहीं किया। बाह्यभोग भोगने में आये तो बाह्यपदार्थों का कुछ बिगाड़ नहीं हुआ, उनका कुछ भोग नहीं हुआ, उसमें हम ही खुद भुग गये। हमने ही विषय-कषायों के विकल्प करके अपने को गया बीता कर डाला। बाह्यपदार्थ तो जो हैं सो हैं, उनमें मेरे द्वारा कुछ भी बिगाड़ नहीं होता है। वहां जो कुछ होता है, उनका ही परिणमन होता है। कभी समबंधरूप, पिंडरूप परिणमन है, कभी वियोगरूप परिणमन है। उस भोग के प्रसंग में बरबाद तो यह जीव ही हुआ। अचेतन पदार्थ बरबाद नहीं होता, लेकिन जब यह जीव अपना ऐसा ख्याल करे, तब तो यह बरबादी से अलग हो सकता है, पर ख्याल ही नहीं करता।
निर्भ्रांत ज्ञानी के वैराग्य की वृद्धि- ये साधु-संत अपने शुद्ध सहज वैराग्य की वृद्धि करने में प्रगतिशील रहते हैं। जैसे पूर्णचंद्रमा समुद्र की स्वच्छता को और बढ़ाता है, बाढ़ के रूप में, फेन के रूप में उसकी स्वच्छता को बढ़ाता रहता है- ऐसे ये साधु-संत उत्तरोत्तर अपने सहज वैराग्य की स्वच्छता को बढ़ाते रहते हैं। ज्ञानी पुरुष का चित्त किसी भी लौकिक पदार्थ में नहीं रहता। जिसे एक बार शुद्ध सत्य ज्ञान हो गया है, वह फिर अज्ञान को कैसे पैदा करे?
सत्यार्थपरिचय में विह्वलता के अभाव का दृष्टांतपूर्वक समर्थन- जैसे कभी दूर पड़ी हुई रस्सी को देखकर आपको भ्रम हो गया कि यह सांप है। किसी प्रकार हिम्मत बनाकर जरा निकट जाकर ध्यान से निरखा तो लगा कि यह तो रस्सी है और जब बिल्कुल ही निकट पहुंचकर हाथ में उठा लिया तो अब वह भ्रम वाली बात कैसे मन में आए? कैसी उस प्रकार की भ्रम की अवस्था अब प्रकट हो सकती है, जो पहिले था? अब तो शुद्ध ज्ञान हो गया है। ऐसे ही जब तक इन बाह्यपदार्थों में इस जीव का भ्रम था कि मेरे हैं, इष्ट हैं, हितकारी हैं, इनसे ही मेरा बड़प्पन, ये ही मेरे सर्वस्व हैं- ऐसा जब तक भ्रम था, तब तक उन पदार्थों के संयोग-वियोग के कारण विह्वलता हो रही थी, अशांति रहती थी, चैन न मिलता था। जब इस जीव ने हिम्मत बनाकर वस्तुस्वरूप का परिज्ञान किया, प्रत्येक पदार्थ का स्वरूप उसी पदार्थ में नियंत्रित है- ऐसा भान किया, स्वतंत्रता का परिचय हो गया, अब किसी भी वस्तु के संयोग से इस समय इस जीव में विह्वलता नहीं आ सकती अथवा किसी चीज के वियोग के कारण इस जीव में कोई विह्वलता नहीं आ सकती। जब जान लिया कि मेरा मित्र मैं हूं, मेरा सब कुछ परिणमन, सुधार, बिगाड़, कल्याण सब कुछ मेरी ही करतूत से प्रकट होता है, दूसरे पदार्थ की करतूत से नहीं। ऐसा जब सत्यार्थ का परिचय हुआ है, फिर बतावो यह जीव कैसे विह्वल हो सकता है।
परमात्मसंयम में आलोचन तत्त्व- यह ज्ञानी पुरुष इस सहज वैराग्य-समुद्र में ज्वार उत्पन्न करके, फेन उत्पन्न करके इसकी और उज्ज्वलता को बढ़ाता है अर्थात् मूल में तो उज्ज्वलता थी ही, लेकिन अब और उज्ज्वलता इसके टपकने लगती है। ऐसे जो विवेकी ज्ञानी-संत पुरुष हैं, वे अपने परिणामों को समतारूप बनाकर रहते हैं। यही परम संयम है। व्यवहार में संयम कहते हैं चीजों को शुद्धतापूर्वक धरने-उठाने, खाने-पीने और व्यवहार करने को, किंतु निश्चय में संयम कहते हैं रागद्वेष का परिणाम न करना, संयमस्वरूप ज्ञानानंदस्वभावी निजात्मतत्त्व में मग्न होने को। अंग्रेजी में संयम कहते हैं कंट्रोल को। अपने उपयोग को अपने में नियंत्रित करना, सो अपना कंट्रोल है, संयम है। जो शुद्ध संयम के बल से अपने आपमें विराजमान् कारणप्रभु को निरखता है, उसी आत्मा को आलोचनस्वरूप जानिये।
चतुर्विधि आलोचना में प्रथम पद्धति- विषय-कषायों के जीतने वाले, समस्त कषायों के नष्ट करने वाले, आत्मगुणघातक कर्मों को दूर करने वाले जिनेंद्रदेव के उपदेश में जो आलोचना के प्रकार बताये गए हैं, उनमें यह प्रथम प्रकार की आलोचना है। आलोचना के ये चार लक्षण हैं- आलोचन, आलुंछन, अविकृतिकरण और भावशुद्धि। दोषों से रहित निर्दोष आत्मस्वरूप के ढिंग पहुंचना आलोचन है और उस पहुंच के द्वारा अपने समस्त दोषों को उखाड़ फैंक देना, इसका नाम आलुंछन है। फिर अपने आपमें कोई विकार न आने देना अविकृतिकरण है और फिर ऐसा ही शुद्ध अपने स्वरूप से बने रहना, सो भावशुद्धि है। इन प्रकारों में से पहिली प्रकार की यह आलोचना है।
अपूर्व कार्य- इस प्रकरण से हमें यह ध्यान में लाना चाहिए कि हम आज एक श्रेष्ठ मनुष्यभव में आये हैं। ऐसा कौनसा करने योग्य काम है, जो अभी तक नहीं किया और जिसके करने से संसार के समस्त संकट दूर हो सकें? ऐसा कौनसा काम है? परिवार का बसाना कोई करने योग्य काम नहीं है। क्या होगा इससे? एक मोह की नींद में विकल्पों के स्वप्न बनाकर यह जिंदगी बिता दी जाएगी, मनुष्यभव छोड़कर जाना होगा। फिर इसके लिए यहाँ का क्या कुछ है? इससे तो आत्मा का पूरा न पड़ेगा। इस लोक में इन मोही मलिन जीवों में कुछ अपनी कीर्ति फैल गयी, कुछ अज्ञानियों ने प्रशंसा कर दी तो उससे क्या पूरा पड़ेगा? इस मनुष्यभव को पाकर कौनसा ऐसा करने योग्य कार्य है, जो अपूर्व है और अपने को नियम से आनंददायक है? वह काम है ज्ञानाभ्यास। ज्ञानाभ्यास के बल से अपना जो ज्ञानस्वरूप है, उसके दर्शन का अभ्यास बनाना, यह है करने योग्य काम।
परमआनंद की आस्था की प्राथमिकता- इस शुद्ध ज्ञानस्वरूप के ज्ञान के काम करते हुए में प्रथम तो यह बात है कि जब इस संसार में रहना होता है, तब तक पुण्य बढ़ता है, संपदा बिना चाहे अपने आप आती है। और कदाचित् ऐसी कल्पना करो कि हम अपने आत्मकल्याण में यदि लग जायें, एक ज्ञान संपादन के काम में ही बैठे रहें तो फिर धन कैसे रहे? अरे, धन न रहे तो न रहे, तुम्हें आनंद चाहिए ना? वह आनंद इन बाह्यवैभवों में न मिलेगा। वह आनंद तो अपने शुद्ध ज्ञानस्वभाव के अभ्यास में शुद्ध ज्ञानस्वरूप के दर्शन में मिलेगा। उस आनंद को पाने के लिए समस्त परिग्रहों का सकल संन्यास करना होगा। बिना सकल संन्यास किए ऐसा आनंदमय पद प्राप्त नहीं हो सकता। ज्ञान का आनंद तो पा रहे, अब और क्या चाहिए?
प्रभुपथ के अनुकरण में यथार्थ प्रभुभक्ति और परमार्थ आलोचन- देखिए भैया ! हम आप लोग जिस प्रभु का रोज-रोज पूजन करते हैं, वह प्रभु केवल अपने स्वरूपमात्र है, उसके पास कोई परिग्रह नहीं है, न परिजन हैं, न संपदा है, और की तो बात जाने दो, शरीर तक भी नहीं है, केवल ज्ञानपुन्ज है यह परमात्मा। इस परमात्मा की तो हम भक्ति उपासना करने आयें और चित्त में यह श्रद्धा न जमा पायें कि ऐसी अवस्था हम पायेंगे तब कृतार्थ होंगे, इस अवस्था में ही कल्याण है। सर्वविकारों का त्याग करके एक आत्मअनुभवन ही रह जाए, रहा करे, यही श्रेष्ठ पद्धति है, ऐसी श्रद्धा न जमा पायें, करें तो पूजन वीतराग सर्वज्ञदेव का और भीतर विश्वास यह बनाए रहें कि मेरा बड़प्पन तो घर-गृहस्थी से, वैभव-संपदा से, इस लोक की इज्जत से है तो बतलावो प्रभु का पूजन कहां किया? पूजन तो कर रहे हैं प्रभु का और चतुराई मान रहे हैं अपने मोह भाव की करतूतों में, तो यह कितना विरुद्ध काम है? इन दोषों से कभी हटना होगा। तब वर्तमान में ऐसी श्रद्धा क्यों न बनाएँ कि मैं इन सर्वदोषों से पृथक् केवल ज्ञानानंदस्वरूपमात्र हूं। इस तरह सर्वदोषों को पार करके अपने आनंदधामस्वरूप में पहुंचे, इसका नाम आलोचन कहा गया है।
साधन, साध्य, सिद्धि का जयवाद- आत्मा का जो सहज परमार्थस्वरूप है, उस स्वरूप को निहारने वाले ज्ञानी साधु पुरुष इसी सहजतत्त्व के अवलंबन के प्रसाद से अतींद्रिय आनंदमय मुक्त लक्ष्मी के विलास को शीघ्र प्राप्त कर लेते हैं। यह आत्मा जो कि परमार्थ तत्त्व का अवलोकन कर रहा है, वह देवेंद्रों के द्वारा वंदनीय है और जो इस आलोचन के प्रसाद से शुद्ध सर्वज्ञ हुए हैं, वे सुरेशों के द्वारा व सुरेशवंदनीय योगींद्रों के द्वारा वंदनीय हैं। इस आत्महित के प्रयोजन को साधने वाले और सिद्ध कर चुकने वाले पंचपरमेष्ठी योगीजनों के आराध्य हैं- ऐसे भक्तजनों की आराधना के विषयभूत यह सहज कारणपरमात्मतत्त्व जयवंत हो। तो भक्त पुरूष इन परमेष्ठियों की आराधना को करते हैं, वे उन परमेष्ठियों के गुणों की अभिलाषा से आराधना करते हैं।
भावसृष्टि- यह आत्मा भावात्मक है। यह जिस प्रकार की भावना करेगा, उसी जाति की सिद्धि प्राप्त करेगा। यह चिंतामणि है। जैसा चिंतन करे, वैसा ही प्राप्त हो। यह अपने को अशुद्धरूप में चिंतन करता है तो अशुद्ध रूप बनता है और अपने को शुद्ध स्वरूप विचारता है तो यह आत्मा शुद्ध बनता है। आत्मा का भविष्य आत्मा पर ही निर्भर है। हम आगे कैसे बने? इसकी जिम्मेदारी हमारे ऊपर ही है। हम शुद्ध भावना से रहते हैं तो हम अशुद्ध रहेंगे। केवल विकल्प करने के सिवाय यह आत्मा किसी भी जगह अन्य काम क्या करता है? गृहस्थी हो, साधुता हो, निर्धनता हो, अमीरी हो, मूर्छावृत्ति हो, ज्ञानवृत्ति हो, कैसी भी परिस्थिति हो, समस्त परिस्थितियों में यह आत्मा केवल अपनी भावना करता है, भावों के सिवाय अन्य कुछ नहीं करता।
अनहोते को होते करने का व्यर्थ अभिमान- वस्तु की स्वतंत्रता के मर्म को न जानने के कारण और मैं जगत् में सब कुछ कर सकता हूं- ऐसी कर्तृत्व बुद्धि लादने के कारण यह जीव संसार में भ्रमण कर रहा है। इस जीव के वश का अपने शरीर का भी तो कुछ परिणमन नहीं है। कौन चाहता है कि मैं बूढ़ा हो जाऊँ, किंतु बूढ़ा होना पड़ता है। शरीर तो जीव के इतना निकट है, फिर भी इस शरीर पर उसका वश नहीं चल रहा है। तो परिजन अथवा धन-वैभव, अन्य लोग, मित्र, स्त्री- इन पर वश क्या चलेगा? लेकिन यह मोही प्राणी यथार्थ मर्म को भूलकर कर्तृत्व बुद्धि में रंगा चला जा रहा है और इसी कर्तृत्वबुद्धि के कारण यह अभिमान में मस्त हो रहा है। मुझमें ऐसी कला है, मैं ऐसा कर सकता हूं। गृहस्थों का गृहस्थों के योग्य अभिमान, साधु पद में यदि अज्ञानी साधु है तो साधु जैसा अभिमान। कहाँ जाएगा यह अभिमान? जब मूल में अज्ञान बसा हुआ है, कर्तृत्वबुद्धि बसी है कि मैं ऐसा करता हूं।
अज्ञान की विडंबना- अहो, कोई उच्च साधुव्रत भी करे, बड़ी दया करे, शुद्ध विधि से आहार करे, अनशन आदिक तप करे, किसी शत्रु पर रंच भी द्वेष न लाये, तिस पर भी भीतर में यदि अज्ञान बसा है तो उसे कर्तृत्वबुद्धि लगी है। मैं साधु हूं, मुझे द्वेष नहीं करना चाहिये, मुझे इस प्रकार की क्रिया से चलना चाहिये, सिद्धांत में ऐसा बताया गया है, ऐसी कर्तृत्वबुद्धि लगी है हालांकि ऐसे ही सब काम ज्ञानी साधु भी करता है, किंतु उनका लक्ष्य ज्ञानस्वरूप आत्मतत्त्व की दृष्टि में लगा हुआ है और इन सब क्रियावों को परमार्थसाधन की पात्रता का साधक जानकर किया करता है, किंतु यह अज्ञानी साधु ‘‘मैं साधु हूं’’ इस प्रकार का अहंकार बनाता है और मुझे इस तरह लेटना चाहिए, बैठना चाहिये, खाना चाहिये- इस प्रकार की कर्तृत्वबुद्धि बसायी है। सो इतना बड़ा तप करने के बावजूद भी वे साधु अंतरंग में शांति और संतोष नहीं प्राप्त कर पाते हैं।
कल्याणकारक बोध- भैया ! यह जानना सर्वप्रथम आवश्यक है कल्याण चाहने वाले पुरुषों को कि मैं सर्वत्र केवल अपने भाव ही कर पाता हूं, भाव करने के सिवाय अन्य कुछ भी परिणमन मैं नहीं करता हूं। भले ही व्यवहार में कहना पड़ता है कि मैं आपका यह काम कर दूं, मैं आपके शरीर की सेवा कर दूं, बोलना पड़ता है ऐसा, पर ऐसा बोलने में भी भीतर में श्रद्धा इसके यथार्थ है। यह मैं आत्मा ज्ञानस्वरूप भावात्मक ज्ञानपुंज सिवाय ज्ञानप्रकाश के अन्य क्या कर सकता हूं? चाहे इस ज्ञान को विपरीत पद्धति में लगाऊँ, चाहे इसे शुद्धार्थपद्धति में लगाऊँ, पर केवल भाव ही मैं कर सकता हूं- ऐसा जिन्हें आत्ममर्म का परिचय है, वे ही पुरुष आत्मसंयम कर सकते हैं, परमार्थ आलोचना कर सकते हैं- ऐसे संतों को संत पुरुष ही परमार्थ से वंदन करते हैं। साधुजन णमोकारमंत्र में णमोलोएसव्वसाहुणं कहते हैं। स्वयं साधु हैं और साधुवों को नमस्कार कर रहे हैं। तो वहां साधुवों का वास्तविक नमस्कार तो साधु ही कर सकते हैं। जो साधुता के गुणों की पहिचान रखते हैं, वे ही साधु साधु के गुणों पर न्यौछावर हो सकते हैं, ऐसे साधु पुरुष वंदनीय हैं। उनके गुणों की प्राप्ति की अभिलाषा से मैं भी वंदन करता हूं।
शांतिनिधि का दर्शन- अहो ! ये साधु पुरुष कौनसी निधि पा चुके हैं, जिसके प्रताप से इतना संतोष, इतनी शांति प्रकट हुई है और बड़े-बड़े देवेंद्र भी जिनके चरणों में नमस्कार करते हैं? ऐसी कौनसी निधि पा ली है, जो देवेंद्रों के पास भी नहीं है? यह निधि है अपने आपके निकट विराजमान् शुद्धार्थ परमपुरुष का दर्शन।
उपासक का लक्ष्यभूत तत्त्व- श्रावकजन पूजन करने में स्वस्तिवाचन के समय अंतिम छंद बोलते हैं इस प्रकार- ‘‘अर्हन् पुराणपुरुषोत्तमपावनानि वस्तूनि नूनमखिलान्ययमेक एव। अस्मिन् ज्वलद्विमलकेवलबोधवह्नौ पुण्यं समग्रमहमेकमना जुहोमि।।’’
हे अर्हन् ! हे पुराण ! हे पुरुषोत्तम ! आपकी भक्ति के लिए मैं आया हूं। यह मैं बहुत पवित्र वातावरण में खड़ा हूं। यह सजा-सजाया पवित्र थाल जिसमें अष्ट द्रव्य सजे हुए रखे हैं, यह पावन मंदिर का स्थान है, सम्मुख पवित्र वेदिका है, आपका प्रतिबिंब विराजमान् है और यह भी मैं शुद्ध होकर शुद्ध वस्त्र पहिनकर भक्ति के लिए खड़ा हुआ हूं। इस अवसर में चारों ओर शुद्ध ही शुद्ध पावन वातावरण है। इतनी पवित्र वस्तुएँ हैं, किंतु हे नाथ, मुझे तो यह सब कुछ-कुछ भी नहीं दिख रहा है, मुझे तो केवल एक ही सब कुछ प्रतीत हो रहा है। केवल एक यही शुद्ध चैतन्यस्वरूप इस ज्ञानपुन्ज परमात्मतत्त्व में जिसमें कि केवल ज्ञानरूप अग्नि प्रज्ज्वलित हो रही है, मैं और क्या पूजा करूँ, बस एक ज्ञान-अग्नि में मैं समस्त पावन वस्तुवों को स्वाह करता हूं, एक मन होकर इन समस्त पुण्यपदार्थों को मैं होमता हूं, त्यागता हूं।
जल, चंदन, अक्षत व पुष्प का निर्वपन- प्रभुपूजा मेंद्रव्य चढ़ाने के मायनेत्यागना है। जैसे जल चढ़ा रहे हैं तो उसके मायने है जल का त्याग कर रहे हैं। मैंने अपने आनंद के लिए, अपने रोगों को दूर करने के लिये, मल से निवृत्त होने के लिये इस जल का बहुत उपयोग किया, किंतु मेरा न रोग दूर हुआ, न कोई संकट मिटा, इसलिये नाथ, मैं इस जल को त्यागता हूं। मैं इसे अपना हितकारक नहीं समझता हूं। संताप को मिटाने के लिए बहुत चंदन का उपयोग करता रहा, किंतु मेरा जो आंतरिक संताप है, वह इस चंदन से भी नहीं मिट सका, मैं अब इस चंदन को भी त्यागता हूं। मैं सोचता रहा कि मुझे उच्च पद मिले, बड़ी पोजीशन मिले- ऐसे पदों की प्राप्ति के लिये ये चावल अक्षत अपने मस्तक में लगाया। ये भी मेरे कष्ट को न मेट सके, बल्कि बरबादी के ही कारण बने। अत: मैं इन अक्षतों को भी त्यागता हूं। यह मैं इस व्यामोह अवस्था में कामवासना से पीड़ित होकर बड़े श्रृंगार करता रहा, फूलों की सेज, फूलों की सजावट और उन्हीं फूलों के महल बनाकर फूलों के घर में निवास करके कामपूर्ति और शांति की चेष्टा करता रहा। ये फूल तो इस कामरोग को बढ़ाने के एक साधन हैं। अब मैं इन फूलों का भी परित्याग करता हूं। मुझे इनमें विश्वास नहीं है कि मेरे को कभी संतोष दे सकें।
नैवेद्य, दीप, धूप व फल का निर्वपन- अपनी क्षुधा वेदना मेटने के लिये बहुत-बहुत व्यन्जन बनाए खाये तो इसका ही नाम है नैवेद्य, किंतु मैं देखता हूं कि रोज ही खाना, रोज भूखे रहना, रोज वेदना पैदा होना बना हुआ है, इस नैवेद्य से कभी तृप्त नहीं हो सकता हूं। मैं इसका भी परित्याग करता हूं। मैंने अंधेरा दूर करने के लिये बड़े दीपक सजाये, बिजलियाँ जलायीं, अंधेरा सुहाता नहीं, प्रकाश लेने के लिये बड़े ऊँचे दीपक जलाये, उन दीपकों से अंधियारा मिटाने की अभिलाषा करता रहा, किंतु हे नाथ ! वह वास्तविक प्रकाश न मिला। मेरा वह अज्ञान-अंधकार इन दीपकों से दूर न हो सका, जिस प्रकाश में रहकर मैं कृतार्थ हो जाता, अब मैं उन दीपकों का भी परित्याग करता हूं। लोक में प्रसिद्ध है कि धूप से, धूपबत्ती से अशुद्ध वातावरण दूर हो जाया करते है। मैंने खूब धूप जलाई, पर मेरी अशुद्धता न गई। कभी मन परेशान हो गया तो मन बहलाने के लिये, मैंने इन दुष्कर्मों को जलाने के लिये समझ लो, संसार की इन बाधावों को मिटाने के लिये खूब धूप-सेवन किया, किंतु बाधाएँ दूर न हो सकी, मैं इस धूप का भी परित्याग करता हूं। बहुत से फलों का संचय किया, फलों को खाया, किंतु वास्तविक फल जो संकट मुक्ति का है, वह मुझे न प्राप्त हो सका। अब मोक्षफल की प्राप्ति के लिये मैं इन फलों का त्याग करता हूं और जो मेरा मोक्षफल हैं, उस फल को ही मैं मंगल मानता हूं।
पुण्य-वैभव का परित्याग- अष्ट द्रव्यों का चढ़ाना आदि अनेक विधियों का आलंबन पूजा में रखने के लिये और अपने में त्यागभाव लाने के लिये इन अष्ट द्रव्यों का आलंबन किया। मैं इन समस्त पुण्य की सामग्री को त्यागता हूं। इस अवसर पर एक अंतर में आवाज उठती है कि इस 10-11 आने की सामग्री को त्यागकर इतने उदार तुम बनने आये हो। मानो भगवान की ओर से किसी वकील ने एक बात रखी हो। तो यह भक्त कहता है कि नहीं-नहीं मैं यही नहीं त्याग रहा हूं किंतु जो भी संपदा वैभव हो उसको मैं त्यागता हूं। देखो भैया ! जो भक्त भगवान की पूजा करते समय पायी हुई समस्त संपदा से चित्त हटा सकता है वही प्रभु की वास्तव में भक्ति करता है अन्यथा प्रभुपूजा वह करता जा रहा है और धन में, लेनदेन में, दुकान में चित्त बनाये हुए है तो कहां प्रभुपूजा है? जो इतना साहसी है कि पूजा करते समय में समस्त संपदा से रहित केवल शुद्ध चैतन्यमात्र अपने को निरख सकता है, वही प्रभुपूजा का पात्र है।
पुष्पकर्म व शुभभावों का निर्वपन- समस्त वैभव के त्यागने का संकल्प करने पर भी मानो भगवान के निकटवर्ती को संतोष न हुआ, फिर अंतर से आवाज उठती है कि वाह रे भक्त तुम भगवान को खूब बहकाने आये हो, ये सोना, चाँदी, धन, संपदा, मिट्टी, पत्थर इन परवस्तुवों को त्यागने की बात कहकर अथवा त्यागकर तुम उदार बनना चाहते हो, और ये पदार्थ तो छूटे ही हुए हैं, इनको त्यागा कह देने में कौनसा महत्त्व है? तो भक्त कहता है कि नाथ ! इतना ही नहीं, यह सारा पुण्य वैभव जिस पुण्यकर्म के उदय से मिला है उस पुण्यकर्म को भी मैं स्वाहा करता हूं। भाईयों ! चौंकिये नहीं, वह पुण्यकर्म भी संसार में भटकने का ही कारण है। फिर भी भगवान की ओर से कोई बोला कि ये द्रव्यकर्म भी पौद्गलिक हैं, इनके त्याग में कौनसी महिमा है? तो भक्त कहता है कि नाथ ! यह पुण्यकर्म जिन पुण्यभावों में, शुभभावों से बनता है मैं इन शुभ परिणामों को भी होमता हूं। अशुभ परिणाम तो दूर रहो, किंतु प्राक्पदवी में जिन शुभ परिणामों को करना चाहिये उन शुभ परिणामों से भी अलग होने की भावना ज्ञानी पुरुष के होती है। आत्मा का स्वरूप न अशुभ परिणाम करता है और न शुभ परिणाम करता है, यह तो मात्र ज्ञाता द्रष्टा रहे इसी में स्वभाव की कला है। ज्ञानी ने तो इन शुभ परिणामों से भी भिन्न जो सहज चैतन्यस्वभाव है उस परम-पुरुष की दृष्टि पायी है।
वंदनीय तत्त्व- यह स्वभाव तीन लोक, तीन काल के समस्त साधु-संतों द्वारा वंदनीय है। जिसने ज्ञानज्योति के द्वारा इन पाप-अंधकार को नष्ट किया है, जो परमसंयम योगी पुरुषों के हृदय-कमल में स्पष्ट विराजमान् है, जो पुराण पुरुष करणपरमात्मप्रभु मन, वचन, काय के भी अगोचर है, ऐसे निकट परम पुरुष में यह योगी देख रहा है कि करने का भी काम क्या है और मना करने का भी काम क्या है? यह तो सहज शुद्ध परिणाम निष्क्रिय है, केवल भावविलास-रूप है। ऐसे भावात्मक तत्त्व का आलोचन करना सो ही परमार्थ आलोचन है।
परमार्थ तत्त्व का जयवाद- यह परमार्थ सहज चैतन्यस्वरूप सदा जयवंत हो। जो इंद्रिय के विषयों से परे है, भोग के कोलाहलों से दूर है, नय पक्षों से भी अलग है, सदा कल्याणमय है, उत्कृष्ट है, निराबाध है, केवल शुद्ध ज्योतिमात्र है, जिसे अज्ञानी जन मानते ही नहीं हैं और ज्ञानी जनों को अपनी ज्ञानदृष्टि में स्पष्ट व्यक्त है, ऐसा पाप-रहित निर्दोष यह चैतन्यस्वरूप सहज तत्त्व सदा जयवंत हो। अपने मन में ऐसा संकल्प करो कि जब मैं केवल भाव करने के और कुछ कर ही नहीं सकता हूं तब ऐसे परम-तत्त्व की भावना करूँ जिसके प्रसाद से संसार के समस्त संकट दूर हो सकते हैं। जब परम गुरुवों के द्वारा इस शुद्ध आत्मतत्त्व को जानने का अवसर पाया है जो शुद्ध आत्मतत्त्व आनंद-समुद्र में मग्न रहा करता है, उस तत्त्व को जानकर अब केवल एक इस शुद्ध कारणप्रभु की ही भक्ति में अपना चित्त बसाओ।
आलोचन का यही आत्मप्रभु का सच्चा जयवाद है- प्रभु का दर्शन उसे प्राप्त होता है जो भगवान की दृष्टि से परे केवल एक ज्ञान-पिंड अपने को निहारता है। जो समस्त परिग्रहों से दूर है, मोह से रहित है, परभावों से शून्य है ऐसे इस परमात्मतत्त्व को नित्य संभालो, इसकी भावना बनावो। अरे जरा इंद्रियों को संयत किया, बाह्य पदार्थों का विकल्प त्यागा कि यह प्रभु अपने आपमें सुगम ही उपस्थित है। सर्वविकल्पों को छोड़कर एक चैतन्यमात्र आत्मतत्त्व की भावना करो। इस प्रकार इस परमार्थ निज-तत्त्व का अवलोकन ही वास्तविक आलोचना है। ऐसे आलोचना-स्वरूप साधु-संतों को मेरा नमस्कार हो।