वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 120
From जैनकोष
सु असुहवयणयणं रायादीभाववारणं किच्चा।
अप्पाणं जो भायदि तस्स हु णियमं हवे णियमा ।।120।।
निश्चय नियम और इसका अधिकारी- जो पुरुष शुभ-अशुभ वचनों का परित्याग करके रागादिक भावों को दूर करके आत्मा का ध्यान करता है उसके नियम से नियम होता है। नियम का अर्थ है रत्नत्रय। जो भाव आत्मा को आत्मा में नियत कर दे, गढ़ा दे उसे नियम कहते हैं। आत्मनियंत्रण का नाम नियम है। आत्मा के ज्ञान में यह आत्मा मग्न हो जाय, किसी प्रकार का विकल्पजाल न उठे इसका नाम नियम है। इस गाथा में शुद्ध निश्चयनय नियम का स्वरूप कहा गया है।
नियम में कर्मनिर्मूलन का सामर्थ्य- जो परम तत्त्वज्ञानी, भव्यपुरुष, महान् तपस्वी चिरकाल से संचित चले आए हुए सूक्ष्म कर्मों के दूर करने में समर्थ है, निश्चयप्रायश्चित में कुशल है उस पुरुष के नियम होता है। जीव के साथ जो रागद्वेष भाव लगे हैं इनका तो नाम भावकर्म है और उन रागद्वेषादिक भावों का निमित्तभूत जो कर्मों का उदय है उसका नाम द्रव्यकर्म है। भावकर्म तो रूप, रस, गंध, स्पर्श सहित है, सो सूक्ष्म है। यह अमूर्त होकर भी उपचार से मूर्त कहलाता है और जो साथ में लगे हुए 8 तरह के कर्म हैं वे कर्म भी सूक्ष्म हैं। जीव के मरण के बाद वे आठों कर्म साथ जाते हैं, न वज्र से अटकते हैं, न काँच से अटकते हैं इतने सूक्ष्म हैं। ये सूक्ष्मकर्म चिरकाल से इकट्ठे हुए चले आये हैं, उन कर्मों को दूर करने में समर्थ निश्चय प्रायश्चित्त है। निश्चयप्रायश्चित कहो या निश्चय नियम कहो अथवा सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र के साधन कहो, एक ही बात है। रत्नत्रय में ही यह सामर्थ्य है कि भव-भव के संचित सूक्ष्म कर्मों का विनाश कर दे।
नियमी पुरुष के मन वचन काय का नियंत्रण- उन कर्मों के विनाश करने में कुशल परमतत्त्वज्ञानी जीव समस्त रचना का निरावरण करते हैं। उनके मन, वचन और काय नियमित हैं। वे अपने मन को स्वच्छंद नहीं प्रवर्ताते हैं। जो आत्मा के हित का कारण है ऐसे भाव में ही अपने उपयोग को लगाते हैं। वे अपने वचनों को अनाप-सनाप नहीं प्रवर्ताते हैं। किंतु जिन वचनों में आत्महित भरा है, जो वचन आत्मा को संसार से छूटाने वाले वचन हैं उन वचनों का तो हमें कुछ आदर रखना है और शेष वचनों का परिहार करना है। योगी पुरुष शरीर से भी वही चेष्टा करेगा जो मोक्षमार्ग की साधना के लिए किसी परिस्थिति में आवश्यक है। शेष अनाप-सनाप शरीर की चेष्टाएँ भी न करेगा। यों मन, वचन, काय को जिसने नियमित किया है ऐसा भव्य पुरुष समस्त वचन रचनावों का निवारण करता है। ये वचन कोई शुभ हैं कोई अशुभ। चाहे शुभ हों चाहे अशुभ, पर संसार के बढ़ाने के ही कारण हैं। मोक्षमार्ग के वचनों में तो इसलिये मोक्षमार्ग बढ़ाने की बात कही जाती है कि इस ज्ञानी का आशय हित ग्रहण करके उन वचनों से भी छुटकारा पाने का है। यों समस्त वचनरचना का जो निवारण करता है उस पुरुष के यह नियम होता है, रत्नत्रय बनता है।
विभाववारण में अध्यात्मयोग का प्रकाश- अध्यात्मयोगी केवल वचनरचना का ही परित्याग नहीं करता है, किंतु वचनविषयक सर्व प्रकार के राग द्वेष मोह भावों का तथा समस्त रागद्वेष मोह भावों का निवारण करता है। यह जीव स्वयं सहज परमात्मा है। इसमें ज्ञान और आनंद का स्वरूप ही बना हुआ है, किंतु अपने ज्ञानानंदस्वरूप की खबर न रहने से यह जगत् के बाह्य वैभव की आशा किए फिरता है। उन रागादिक भावों का जो निवारण कर सकता है, वह आनंदनिधि आत्मतत्त्व से भेंट कर लेता है।
अखंड-आत्मा का मात्र प्रतिपादन व्यवहार के लिए खंडीकरण- ज्ञानी पुरुष के शुद्ध तत्त्व की दृष्टि का बहुत बड़ा बल है। किसी इष्ट पदार्थ का संयोग अथवा वियोग होने से उसके चित्त में धैर्य रहता है। इसका कारण यह है कि उसने सबसे न्यारे अपने निज तत्त्व को निरखा है। यह आत्मा अखंड है, इसके द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव का खंड नहीं होता है। जो भी जब पर्याय होती है वह अपने समय में पूर्ण है और एक है। इसमें जो भाव है वह एक है, अद्वैत है, अखंड है। यह तो एक समझाने के लिए भेद किया जाता है कि आत्मा में ज्ञान गुण है, दर्शन गुण है, चारित्र गुण है, आनंद गुण है। ये गुण कुछ अलग-अलग वस्तुयें नहीं हैं, अलग-अलग तत्त्व नहीं हैं, किंतु जैसा एकस्वरूप है, आत्मा है उस एकस्वरूप आत्मा का परिचय कराने के लिए अखंड अद्वैत स्वलक्षण में भेद करके बताये जाने की संतों की पद्धति है। यह आत्मा अखंड है, अद्वैत है। इसमें निरंतर आनंद झरता रहता है। यह आत्मा किसी भी बाह्य पदार्थ का आश्रय न करे, केवल एक निज तत्त्व का आश्रय ले तो इसमें भी आनंद झरता है।
आत्मतत्त्व की निरूपमता- सहज आनंद को उत्पन्न करने वाले इस आत्मा की उपमा लोक के किन्हीं पदार्थों से भी नहीं की जा सकती है। यह आत्मा अनुपम है, चेतन है, इसके सिवाय बाकी समस्त पदार्थ अचेतन हैं। उसकी सानी का कौनसा तत्त्व होगा? यद्यपि समस्त पदार्थ अपने-अपने सत्त्व में हैं, न्यारी-न्यारी सत्ता रखते हैं, फिर भी सबकी व्यवस्था करने वाला, सबको जानने वाला यह आत्मा ही है। कल्पना कर लो कि सब कुछ होते, पुद्गल होते, धर्मादिक द्रव्य होते, एक जीव भर न होता तो कौन सत्ता जानता? किसके लिए वह सत्ता थी? प्रथम तो यह बात है। यदि जीवतत्त्व न होता तो यहां कुछ भी न होता। जो कुछ दिख रहे हैं भीत, चौकी, पत्थर इत्यादि ये सब यों ही नहीं हो गये। वे पहिले पृथ्वीकाय थे, वनस्पतिकाय थे। जीव के संबंध से उनके काय की रचना हुई है। जीव न हो तो अंकुर कैसे बने, वृक्ष कैसे बने और फिर ये दृश्यमान् पदार्थ कैसे हो जाते? जो कुछ भी दिख रहे हैं ये सब भी पहिले जीव थे। कंकड़ पहिले पृथ्वीकाय में था; चौकी, बैंच आदि ये वनस्पतिकाय के जीव थे। ये कपड़े वनस्पतिकाय के जीव थे। ऐसा कोई पदार्थ नहीं जो पहिले जीव न रहा हो। इससे यह निर्णय करना कि जीव न होता तो कुछ न होता, सो यह जीव तत्त्व अनुपम है, इसकी उपमा किसी पदार्थ से नहीं की जा सकती है।
आत्मतत्त्व की निरन्जनता- यह मेरा आत्मस्वरूप चैतन्य भाव जिसका आश्रय करने से धर्म होता है वह निरन्जन है। अपने सत्त्व के कारण केवल अपने स्वरूप में है। इसमें कर्म इसकी सत्ता के कारण नहीं लगे हैं। इसमें यह शरीर जीव के सत्त्व के कारण नहीं लिपटा है। जीव अब भी अपने स्वरूप में केवल है। इसमें बाह्य पदार्थ का संबंध है, तिस पर भी जीव अपने स्वरूप को नहीं छोड़ सकता है। ऐसा यह आत्मतत्त्व निरन्जन है, यह मैं ऐसा कारणपरमात्मतत्त्व हूं। इस परमात्मतत्त्व की जो पुरुष नित्य भावना करते हैं, ऐसा ही अनुभव रखते हैं, मैं मात्र कारणसमयसार हूं, इस प्रकार की जो पुरुष अपनी श्रद्धा रखते हैं उनके नियम से शुद्ध निश्चय नियम होता है।
इस लोक में मेरा कहीं कुछ कारण नहीं है। जिस पदार्थ की ओर अपना उपयोग दौड़ाये वह पदार्थ भिन्न ही है ना, इस कारण उसका आश्रव तो धोखा ही देने वाला होता है। बड़े-बड़े पुण्यवान् जीव इसी बात पर हार गए हैं। कितने ही बादशाह ऐसे हुए हैं जिन्होंने मंदिरों को तोड़कर, राजाओं पर अन्याय करके अपना साम्राज्य बढ़ाया, लेकिन अंत में मरना ही पड़ा और अकेले ही जाना पड़ा। सारा ठाठ यहाँ का यहाँ ही रह गया है। इस ढंग से इस जीव को न वर्तमान में सुख है और न आगामी काल में सुख होगा। आनंद कहाँ हो सकता है? जब आनंद नाम का गुण ही अपना इन पदार्थों में नहीं है तो इन बाह्य पदार्थों से आनंद प्रकट कैसे हो सकता है? आनंद तो आनंद के स्थान से ही प्रकट होगा। कोई पुरुष ज्ञान का बल बढ़ाकर अपने आपके ज्ञानस्वरूप को निहारकर रागद्वेष का त्याग करता है और समतापरिणाम में रहता है तो उसको आनंद स्वयं अपने आप प्रकट हो जायेगा। आनंद समता से मिलेगा, रागद्वेष के करने से आनंद का घात होता है। जिन्हें आनंद चाहिये, शांति चाहिये उनका कर्तव्य है कि वे रागद्वेष मोह भाव का परित्याग करके समता-परिणाम का आश्रय लें।
नियम शब्द के अर्थ का विवरण- भैया ! वह बड़ा तपस्वी पुरुष है जो अपने उपयोग को अपने स्वरूप में नियंत्रित करता है, रागद्वेष नहीं उत्पन्न होने देता है। परमाणुमात्र को जो अपने स्वरूप से भिन्न निरख रहा है, उसकी तुलना जगत् में अन्य कोई जीव नहीं कर सकता है। जो भव्य सर्वप्रकार के भीतर में उठे हुए वचनों का और बाहर में बोले जाने वाले वचनों का परिहार कर देता है और इस सहज परमात्मा की निरंतर भावना करता है वह परमनियमी है। लोक में कहते हैं कि यह बड़े नियम से रहता है। वे नियम क्या हैं? समय पर दुकान खोलना, बंद करना, समय पर खाना, इनको ही लोग नियम कहा करते हैं, पर वास्तव में ये नियम नहीं कहलाते। ये तो वो अनियत बातें हैं, जो आत्मा के स्वभाव में निश्चित नहीं हैं ऐसी कर्मोदयजन्य बातें हैं। इनका नाम नियम नहीं है किंतु जो आत्मा में स्वभाव की बात है, आत्मा में जो सत्त्व के कारण नियत स्वरूप है उस स्वरूप में अपने आपको लगा लेना, नियमित कर देना, इसका नाम है नियम। बाकी जो विषय-भोग मन के, यश के, बढ़ावे के जितने भी संकल्प है और इन आरंभ परिग्रह संबंधी जितने भी मन, वचन, काय के कार्य हैं, चाहे व्यवहार समय पर किए जाएँ, लेकिन सब अनियम हैं। नियम तो आत्मा के शुद्ध स्वरूप में नियत होने का नाम है।
नियम में नियम से नियत असीम उद्भूति- जो परमार्थत: नियमी पुरुष है, ज्ञानी पुरुष है, तत्त्व मर्म का अनुभवी करने वाला पुरुष है उस ज्ञानात्मक पुरुष के यह नियम, नियम से मुक्ति के आनंद को उत्पन्न करने वाला है। सत्य आनंद तो समता-परिणाम में है, बाकी तो सब स्वप्न की तरह विभूति हैं। जैसे स्वप्न में बड़ा वैभव दिखा तो वह कल्पना में आनंद मान रहा है लेकिन वहाँ है क्या? कुछ भी नहीं है, केवल कल्पनाजाल है, इसी प्रकार इन चर्मचक्षुवों की जगती हुई दशा में भी यह सब कुछ दिख रहा है, पर यह सब कुछ है क्या? कुछ भी नहीं है, परमार्थ वस्तु नहीं है। परमार्थभूत तत्त्व तो आत्मा का आत्मा में चैतन्यस्वरूप है, इसका जिन्हें परिचय नहीं हुआ है वे अब भी दीन हैं, गरीब हैं, भिखारी हैं, पर की आशा में रहकर शरीर का बंधन पाकर अपना जन्ममरण बढ़ा रहे हैं। जो पुरुष जैसा निरंतर अखंड, अद्वैत, चैतन्यस्वरूप निर्विकार है वैसा ही अपने को देख रहा है, शरीर में रहकर भी शरीर से भिन्न अपने आपके स्वरूप में तन्मय अपने को निरखता है, जो निर्विकार, जाननमात्र रहता है वह ही परमार्थ से अपने निर्विकार स्वरूप में प्रवेश कर सकता है।
आत्मतत्त्व में भेदवाद का अप्रवेश- इस आत्मा में किसी नय का प्रवेश नहीं है। नय तो भेदवाद को कहते हैं। किसी भी स्वरूप को भिन्न-भिन्न करके कहना वह नय का स्वरूप है। दिखने वाले पदार्थों को भी बताने वाला कोई एक शब्द नहीं है। यह चौकी कैसी है? आप क्या उत्तर दोगे? कोई उत्तर आपके पास नहीं है। जो भी उत्तर आप दोगे वह लंगड़ा उत्तर होगा। चौकी को पूरा बता सकने वाला तो आपके पास कुछ उत्तर ही नहीं है। कोई कहेगा कि ये इतनी ऊँची है, यह तो चौकी का एक अंश बताया गया है। इस समग्र चौकी को कहने वाला कोई शब्द ही नहीं है। कोई कहेगा कि यह इतनी लंबी-चौड़ी है। यह भी चौकी का पूरा स्वरूप नहीं है। कोई कहेगा कि यह लाल रंग की है, यह भी चौकी का स्वरूप नहीं है। चौकी के स्वरूप को कहने वाला भी कोई शब्द नहीं है जो एक ही शब्द से कह दे। कोई कहे कि यह चौकी है। लो कह दिया ना, इस पूरे चौकी पदार्थ को। अरे ! अब भी नहीं कहा। ‘यह चौकी है’ इसका अर्थ यह है कि यह चार कोने वाली है, चतुष्कोणी का बिगड़कर चौकी शब्द रह गया है। तो ये ही तो चौकी पदार्थ के चार कोने हैं, पूरी चौकी का स्वरूप कहाँ आया? यह इतनी मजबूत है कि इस पर कोई खड़ा हो जाय फिर भी न टूटे। यह बात चौकी शब्द में कहाँ कही गयी है, सभी बातें छूट गयी हैं। तो इन दृश्यमान् पदार्थों को भी बताने के लिये कोई शब्द नहीं है, फिर इस आत्मतत्त्व को कहने वाला तो शब्द ही क्या होगा? लेकिन इस आत्मतत्त्व के समझाने के लिये भेद करके नयवाद का अवतार किया है, पर जो अनुभव में आने योग्य परिपूर्ण अंतस्तत्त्व है उसमें नयवाद का प्रवेश नहीं है।
अनुभव की अवक्तव्यता- नय के विकल्पों से यह मैं परमात्मतत्त्व दूर हूं। कोई मिष्ट चीज खा ली, उसका स्वाद तो आप कह सकते हैं पर वचनों से सही बात आप बता नहीं सकते हैं, क्या बतावोगे? जब दूसरे को खाना परोसते हैं तो सब समझते हैं कि अब इस चीज के साथ यह चीज देनी चाहिए, इसमें इन्हें आनंद आयेगा क्योंकि अपने अनुभव में वैसी ही बात आयी है ना? वह स्वाद तो आ सकता है, पर स्वाद को बताने के लिए कुछ शब्द नहीं है। इस आत्मतत्त्व का अनुभव तो हो सकता है, कैसा है यह ज्ञानप्रकाश? उसका अनुभव तो किया जा सकता है निर्विकार बनकर, पर उस आत्मतत्त्व के अनुभव की बात शब्दों से कहें तो यह बताने में नहीं आ सकती है।
परिचितों में संकेतों की सफलता- आत्मानुभव को बताने के लिये शास्त्रों में जो शब्द कह गये हैं वे शब्द उन्हीं को ही बता सकते हैं जिन्होंने आत्मानुभव किया है या आत्मानुभव के निकट पहुंचे हैं अन्यथा वह गूंगों जैसी बात है। जैसे एक गुंगा किसी दूसरे गूंगे-बहरे से कुछ कहे या कोई सूझता किसी गूंगे बहरे से कुछ कहे तो वह कुछ नहीं समझता है। इसी प्रकार कोई पुरुष किसी ज्ञानी से बात करे या अज्ञानी अज्ञानी से बात करे तो क्या समझेगा उसमें? यह आत्मतत्त्व, यह चैतन्यस्वरूप भेदनय से दूर है, ऐसा जो अपने आपमें बसा हुआ परमात्मपदार्थ है उसे मैं भली प्रकार से भाता हूं, उसकी उपासना करता हूं, नमन करता हूं।
परमशरण शुद्ध परमात्मतत्त्व का दर्शन- लोक में अपना परमपिता, परमशरण सर्वस्व अपने आपको शुद्ध स्वरूप में देख लेना है, इतना काम यदि न किया जा सका तो मनुष्य होना, सुविधावान् बनना सब बेकार है और यदि एक यह आत्मस्वरूप के अनुभव का काम किया जा सका तो जीवन सफल है। कैसे होता है इस परमात्मप्रभु का दर्शन? इसकी दृष्टि के लिये अपने परमात्मप्रभु का उपासक बनना होगा। किसी भी परमतत्त्व की ओर आस्था रहेगी तो परमात्मा का दर्शन नहीं हो सकता। शुद्ध भेदविज्ञान करके समस्त परपदार्थों की आशा को मिटाकर जब अपने आपके स्वरूप का प्रकाश होता है वहाँ आत्मानुभव होता है। उस स्थिति में ध्यान ध्येय एक हो जाते हैं। यह ध्यान है, यह ध्याता है, यह ध्येय है और यह ध्यान का फल है ऐसा विकल्पजाल चिंतन जब नहीं रहता है और केवल एक शुद्ध ज्ञानमार्ग का ही ज्ञान निरखते हैं तो आत्मानुभव होता है। इस आत्मानुभव में जो कुछ अनुभव हो, वही शुद्ध परमात्मतत्त्व है। ऐसे शुद्ध परमात्मतत्त्व की मैं उपासना करता हूं।
अंतस्तत्त्व की अभेद उपासना में मुक्ति का नियम- जो जीव योगी होते हैं, इस अध्यात्मयोग में जिन्होंने प्रवेश किया है वे तत्त्व को समझते हैं, मर्मज्ञ हैं, फिर भी कदाचित् उनमें भेदवाद उत्पन्न हो जाय, भेद उपासना, भेद वृत्ति, भेद संयम, भेद प्रवृत्ति उत्पन्न हो तो वह पुरुष कदाचित् मुक्ति का पात्र भी है, कदाचित् मुक्ति का पात्र नहीं भी है। जो अभेद उपासना में निरत हैं ऐसे योगीजनों का तो नियम है कि वे अवश्य ही उसही भव से मुक्ति प्राप्त करेंगे, किंतु जिनका चित्त आत्मा की अभेद भक्ति, अभेद उपासना में नहीं लग रहा है, अभेद आराधना नहीं बन रही है, वे भिन्न-भिन्न मूल गुणों के पालने में, समिति गुप्ति के भली प्रकार निर्दोष धारण करने में लग रहे हैं और नाना युक्ति ज्ञानों से जो अपना ध्यान परिज्ञान बना रहे हैं ऐसे भेदप्रमुख साधु उस भव से मुक्ति के पात्र हैं या नहीं, मुक्ति इसकी होगी अथवा न होगी, इसे कोई नहीं कह सकता है। हो भी सकती है मुक्ति, नहीं भी हो सकती है।
ज्ञायकस्वरूप के अनुभव में सर्वसिद्धि- भैया ! जब भी मुक्ति होगी किसी को तब अंतस्तत्त्व के आलंबन से ही होगी। अंतस्तत्त्व का आलंबन ही अपना शरण है, ऐसा निर्णय करके ऐसा ही ज्ञान बनाएँ, ऐसी ही संगति बनाएँ जिससे हमारा ध्यान हमसे ओझल न हो जाय और हम मोक्षमार्ग में निर्बाध अपना गमन कर सकें। यह शुद्धनय प्रायश्चित्त का अधिकार है, इसमें सर्वविभावरूप अपराधों के प्रायश्चित्त का उपाय एक ही कहा गया है- शुद्ध ज्ञायकस्वरूप का अनुभव करना।