वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 128
From जैनकोष
जस्स रात्रो हु दोसो हु विगणिं जणेति हु।
तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे ।।128।।
रागद्वेष विकार के अभाव में परमसमाधि- जिस भव्य पुरुष के राग और द्वेष विकारों को उत्पन्न नहीं करते हैं अर्थात् राग और द्वेष विकार नहीं उत्पन्न होते हैं उस पुरुष के समतापरिणाम ठहरता है, ऐसा केवली भगवान के शासन में कहा है। समता नाम है रागद्वेष न उठें और केवल जाननहार रहें, उसी का नाम समाधि है और वही संकटों से मुक्ति देने वाला भाव है। जैसे रास्ता चलते जाते हुए अपन भी सैकड़ों मनुष्यों को देखते हैं, पर उनमें से न किसी मनुष्य पर राग होता है और न द्वेष होता है, किंतु वे सामने हैं सो जानने में आते ही हैं, जानना कहाँ टाला जाय? जो भी जानने में आया, आ गया। अब उसमें रागद्वेष न होना, यही मोक्ष का मार्ग है, यही परमसामायिक है, यही परमसमाधि है।
रागद्वेष की अनुत्पत्ति का उपाय- जानी हुई चीजों में राग और द्वेष नहीं हो सके, इसका उपाय यह है कि हम वहाँ यथार्थस्वरूप विचारें। जो ये पदार्थ जाने जाते हैं ये मुझसे अत्यंत भिन्न हैं, न मेरे जन्म के साथ आये हैं और न मरण पर जायेंगे, अत्यंत भिन्न पदार्थ हैं, चाहे वे कुटुंबी जन हों, मित्रजन हों अथवा अचेतन हों, कोई भी अन्य पदार्थ हों उनका परिणमन उनके गुणों से उन्हीं के हुआ करता है। उनके परिणमन का असर मुझमें नहीं होता है। मैं स्वयं अपनी कल्पनाएँ उठाकर एक नया असर पैदा कर लेता हूं। परमार्थत: उनका असर उनमें ही है, उनसे मेरा कुछ काम नहीं बनता है, ऐसा यथार्थस्वरूप ज्ञान में हो तो रागद्वेष नहीं होता है। यथार्थ ज्ञान हो जाने पर किसी परिस्थितिवश रागद्वेष भी करना पड़े तो भी अंतरंग से रागद्वेष नहीं होता है। ज्ञानी गृहस्थ घर में रहता हुआ भी देव की तरह बताया गया है। कर्मबंध होता है तो अपने विकारपरिणामों से होता है, घर में रहते हुए भी कोई विकारपरिणाम न करे तो कर्मबंध न होगा। जितने विकार रह गए हैं उतना ही बंध होगा।
कर्तव्य के सुनिर्णय की आवश्यकता- भैया ! सर्वप्रथम तो यह बात है कि इस मनुष्य को यह पक्का निर्णय कर लेना चाहिए कि मुझे आत्मकल्याण करना है या दुनिया की वाहवाही लूटना है, दो ही बातें इसके सामने हैं। दुनिया की वाहवाही लूटने में हित कुछ नहीं है, क्योंकि प्रथम तो यह दुनिया ही जो दृश्यमान है, मिटने वाली है, मायामय है, भिन्न है, स्वयं दु:खी है, सभी कर्मप्रेरे हैं, खुद अशरण हैं। इन लोगों से वाहवाही क्या लूटना? दूसरी बात यह है कि यह वाहवाही क्या चीज है? उनके स्वार्थ के कारण उनके कषाय की ये वृत्तियां जगी हैं। वाहवाही भी मायारूप है और दुनिया से वाहवाही चाहने का परिणाम जिसके हुआ हो वह भी मायारूप है, इनमें कुछ तत्त्व नहीं रक्खा है। लेकिन, केवल दुनिया की वाहवाही के पीछे ही तृष्णा बढ़ाते हैं, श्रम करते हैं, मर मिटते हैं, धन बढ़ाते हैं तो वाहवाही लूटने के लिये। अंतरंग में कषाय भरी हुई है, लोग मुझे जानें कि यह धनी लखपति पुरुष है, अच्छे घर का है, चाहे वचनों से न बोला जा रहा हो और शरीर से भी ऐसी प्रवृत्ति न की जा रही हो क्योंकि जहाँ सबके आगे अपनी ही बातें झोंके तो वहाँ उसका निरादर ही होता है किंतु मन में पोजीशन वाहवाही की कषाय जब तक रहती है तब तक स्व और पर का यथार्थ बोध नहीं होता।
ज्ञानी के कर्तव्य का सुनिर्णय- जब तक यह ज्ञात नहीं हैं कि इस लोक में मैं अकेला हूं, मेरा साथी, शरण लोक में दूसरा कोई नहीं है, यह मैं आत्मा अमूर्त, ज्ञानमात्र, ज्ञानानंदस्वरूप सबसे न्यारा हूं, इसे कुछ पहिचानना है, उसको कुछ आदर देना है, तब तक मायामय पुरुषों में, मायामय समागम को ही मायामय आदर दिया करते हैं। ज्ञानी पुरुष का यह परिणाम नहीं रहता कि मुझे दुनिया से वाहवाही मिले। यह निर्णय तो ज्ञानी का होगा ही और दूसरा भी यह निर्णय है कि मुझे आत्मकल्याण करना है, क्योंकि न आत्महित किया अर्थात् अपने ज्ञानस्वरूप में अपने ज्ञान को स्थिर न किया तो फल क्या होगा? मरण होगा, कीड़ा पतंगा की कुयोनियों में जन्म लेना होगा, फिर क्या है?
इंद्रजाल के मोह का फल संसारमहाभ्रमण- इस मनुष्य की यह दुनियावी पोजीशन क्या कुछ मूल्य रखती है? दुनिया (लोक) यह 343 घनराजू प्रमाण है। एक राजू कितना बड़ा होता है, उसका कुछ प्रमाण अनुमान में लायें। जिस द्वीप में हम रहते हैं इसका नाम है जंबूद्वीप। यह गोलाकार है, इसका डाईमीटर एक ओर से सामने की ओर तक विस्तार है एक लाख योजन का। दो हजार कोस का एक योजन होता है। एक लाख में दो हजार का गुणा करो, इतने कोस बड़ा है यह जंबूद्वीप और इससे दूना है एक ओर लवणसमुद्र क्योंकि उस जंबूद्वीप को घेरकर है ना। सो 2 लाख योजन का लवणसमुद्र एक तरफ है। एक-एक तरफ का ही देखते जाइये। इतना ही दूसरी तरफ का मान लो। लवणसमुद्र से दूना है घातकी खंडद्वीप, उससे दूना है कालोदधि समुद्र, उससे दूना है पुष्करवरद्वीप, इस तरह से चलते जाइये तो ये द्वीप समुद्र अनगिनते हैं। नील, करोड़, शंख, महाशंख नहीं, किंतु गिनती से परे हैं, इनकी गणना हो ही नहीं सकती है। तब समझ लीजिये अंत में जो स्वयंभूरमणसमुद्र है, जितना विस्तार उसका है उतने से कम में ये अनगिनते द्वीप समुद्र समाये हुए हैं। इतना यह विस्तार अभी पूरा एक राजू नहीं होता, कुछ चौड़ा और मिलाकर एक राजू होता है। ऐसे एक राजू समतल के चारों ओर होने का नाम है एक घनराजू। ऐसे 343 घनराजू यह लोक है। हम आप जिस चँदिया पर पैदा हुए हैं यह कितनी जगह है और इतनी जगह बसे हुए लोगों से वाहवाही का ख्याल बनाना, समझलो कितनी मूढ़ता की बात है? यही तो मोह है, मिथ्यात्व है, अनंत संसार का भ्रमण हैं।
ज्ञानी की प्रतीति व वृत्ति- ज्ञानी पुरूष के लोक की वाहवाही में रंच भी आस्था नहीं है, उसे आत्महित की धुन लगी हुई है। यह मैं आत्मा अपने को और समस्त परपदार्थों को यथार्थरूप से जानता रहूं, यही उसकी एक कामना है। केवल ज्ञाताद्रष्टा रहने पर, किसी प्रकार की रागद्वेष की तरंग न होने पर इसका कल्याण निश्चित है। अन्यथा करते जाइए मोह। मोह कर-करके भी अंत में क्या होगा? यथार्थज्ञान नहीं है तो वह बड़ा हीन पुरुष है, लोक में चाहे उसकी वाहवाही भी हो, लेकिन भीतर तो वह कोरा है, गरीब है, कुछ वैभव उसके पास नहीं है, अशांत रहता है, परपदार्थ में ही उपयोग फँसाये रहता है। आत्महित की धुन रखने वाला ज्ञानीपुरुष रागद्वेष से परे रहता है, अन्याय की बातों से दूर रहता है, किसी पर वह अन्याय नहीं करना चाहता है, बरताव उसका सबके साथ अपने स्वरूप के समान निरखकर हुआ करता है। ऐसे निकटभव्य पुरुष के रागद्वेष विकार नहीं होते हैं और उसके ही परमसमाधि प्रकट होती है, ऐसा जिनेंद्र भगवान के शासन में कहा है।
ज्ञानमय भाव में ज्ञानमयी वृत्ति- यह संयमी पुरुष परमवीतरागी है। ज्ञान का उदय होने पर वीतराग दशा होती ही है। यथार्थज्ञान हो जाय और भ्रम रहा आए- ये दो बातें एक साथ नहीं होती हैं। जैसे दूर पड़ी हुई रस्सी को कोई सांप मान ले तो भ्रम में उसे आकुलता है, हिम्मत बनाकर निकट जाकर रस्सी को रस्सी समझ जाय और हाथ से उठाकर, टटोलकर निर्णय कर ले, फिर उससे कोई कहे कि तुम फिर से पहिले जैसा भ्रम बनाकर अपना नाटक दिखावों तो क्या वह दिखा सकेगा? नहीं दिखा सकता। यथार्थ ज्ञान होने पर भ्रम की प्रवृत्ति वह नहीं कर सकता, ऐसे ही यह मेरा हितकारी है ऐसा मानना यही तो मोह है। ये मुझे सुख देते हैं और उनकी ओर आकर्षण हो, वे सुहावने लगें यही तो है राग। यह मेरा बिगाड़ करता है, मेरा विरोधी है ऐसा परिणाम हुआ तो यह तो है द्वेष। यह कब होता है? जब तक भ्रम बना है, अज्ञान बना हुआ है। जहाँ सबकी स्वतंत्रता विदित हो गयी वहाँ फिर रागद्वेष नहीं विकार करते हैं, दृढ़ नहीं होते हैं।
यथार्थ ज्ञान में रागद्वेष का अनवकाश- कोर्इ मेरा लोक में विरोधी नहीं है, जिसने मेरे प्रतिकूल कुछ किया, उसने मेरे प्रतिकूल नहीं किया, किंतु मैंने अपनी कषायवासना से उसका ऐसा अर्थ लगा लिया कि इसने मेरे प्रतिकूल कुछ कहा है। उसने तो अपना सुख लूटने के लिए जिसमें उसे सुख मालूम पड़ा वैसी चेष्टा की है, उसने हमारा कहाँ विरोध किया है? लोक में मेरा कोई विरोधी नहीं है, जहां यह बात विदित हुई वहां द्वेष कहां पनप सकता है? इस प्रकार लोक में मेरा कोई सुखकारी नहीं है, वस्तुस्वरूप की ही यह बात है। प्रत्येक जीव हित चाहता है, सुख चाहता है, अपनी सुख शांति जिसमें नजर आए उसही प्रवृत्ति को उसने किया, मेरे से कहां राग किया? मैं भी किसी जीव पर राग नहीं कर सकता हूं। यह वस्तुस्वरूप के दृढ़ किले की बात कही जा रही है। स्वरूप के किले को कौन तोड़ सकता है? मैं अपने प्रदेश में हूं। जो कुछ मैं कर सकता हूं अपने में ही कर सकता हूं अन्यत्र कुछ नहीं कर सकता।
तत्त्वज्ञ वीतराग संयमी के परमसमाधि- मैं यदि राग परिणमन करता हूं तो राग परिणमन होने की विधि यह है कि किसी परवस्तु को उपयोग में लेकर राग का विषय बनाकर राग पैदा करूँ। हमारे इस राग परिणमन में जो परवस्तु विषय होता है उसका नाम लेते हैं लोग कि मैंने अमुक से राग किया है। दूसरे पदार्थ में कोई पुरुष राग नहीं कर सकता है। जिसको ऐसा स्पष्ट भान है वह पुरुष राग के विकारों को पनपायेगा क्या? जिसे मोह नहीं है, रागद्वेष नहीं है वही वीतराग भाव धारण करता है। ऐसे वीतराग संयमी पुरुष के जो पाप के वनों को जलाने के लिये अग्नि की तरह है, परमतत्त्वज्ञान है और वैराग्य है। वहां पाप की बेल ठहर नहीं सकती है, ऐसे वीतराग संयमी पुरुष के राग और द्वेष के विकार नहीं होते हैं और उन ही सहज आनंद के अभिलाषी योगीश्वरों के सामायिक नाम का परमव्रत होता है, समता, परमसमाधि प्रकट होती है।
ज्ञानपुन्ज में विकार का अभाव- यह तत्त्वज्ञानी जीव, जिसके शरीर मात्र का परिग्रह रह गया है और शरीर में भी इंद्रिय के विषयों का प्रसार नहीं है, यह भी एक लक्कड़ की तरह लगा हुआ है, ऐसे निर्ग्रंथ, दिगंबर साधु पुरुष के यह परमसमाधि उत्पन्न हुई है, ऐसा केवली भगवान के शासन में प्रसिद्ध हुआ है। ये पुरुष परमप्रकाशमय हैं इन्होंने ज्ञानज्योति द्वारा अज्ञान, मिथ्यात्व और पाप का अंधकार दूर कर दिया है। जो ज्ञायकस्वरूप आनंदमात्र शुद्ध अद्भुत प्रकाश के उपासक हैं, ऐसे पुरुषों के रागद्वेष विकार उत्पन्न नहीं होते हैं।
ज्ञानी की निर्विकल्प अंतस्तत्त्व की उपासना- अंतस्तत्त्व के रुचिया, ज्ञानीसंत अपने आपको किस प्रकार निरख रहे हैं, यह मैं आत्मतत्त्व अपने सत्त्व के कारण ज्ञानानंदस्वभावमात्र हूं। इस आत्मतत्त्व में कोई सी वस्तु न तो है और न किसी वस्तु का निषेध है, वहां विधि और निषेध का विकल्प ही नहीं है। वह तो जो है सो है। जैसे यह चौकी है तो यह चौकी जो है सो है। यह चौकी पुस्तक वाली है, ऐसा चौकी का स्वरूप नहीं है। यह चौकी घड़ीरहित है ऐसा चौकी का स्वरूप नहीं है। पुस्तक की विधि और घड़ी का निषेध बताना यह पर का निमित्त लेकर कथन है, उपचार करके है। यह स्वरूप स्वयं चौकी में नहीं है। इसी प्रकार आत्मा में क्या है और क्या नहीं है, आत्मा किसे ग्रहण करता है, किसे हटाता है? ये कोई विकल्प आत्मा में नहीं है, वह तो जो है सो है, ऐसे निर्विकल्प आत्मतत्त्व की उपासना करने वाले ये अंतस्तत्त्व के रुचियां ज्ञानीसंत कहां रागद्वेष उत्पन्न कर सकेंगे?
निरापद ज्ञानी की आनंदमयता- भैया ! रागद्वेष ही एक विपत्ति है, अनंत जीवों में से दो-चार जीवों को छांटकर उनको ही अपना सर्वस्व मान ले और अपना जीवन तन, मन, धन, वचन, सब कुछ उन पर ही न्यौछावर कर दे, यही तो एक बड़ी विपदा है, परंतु यह मोही जीव इस विपदा में ही राजी है। इन विकारों से विविक्त ज्ञानानंदस्वरूपमात्र निज तत्त्व की रुचि नहीं कर सकता है यह। सहज कारणसमयसार का दृढ़ता से जो आश्रय करते हैं, अपने उस परमात्मतत्त्व के दर्शन किया करते हैं ऐसे ही मुनि स्वभाव परिणमन होने के कारण समतारस से भरपूर रहा करते हैं, न उनमें रागपरिणमन होता है और न उनमें द्वेष परिणमन होता है। ऐसे ये वीतराग संयमी पुरुष सदा आनंद से परिपूर्ण रहा करते हैं।
स्वहित भावना- हम आपका यह कर्तव्य है कि कम से कम यह तो ध्यान बनाए रहें कि मैं आत्मा सबसे न्यारा सत् हूं और जो कुछ भी यहां समागम मिले हैं ये भिन्न हैं, मिट जाने वाले हैं और इन समागमों का परिणमन मेरे में कुछ नहीं आता है। ये समस्त पदार्थ अपने आपमें अपना परिणमन करके समाप्त होते रहते हैं। इन वस्तुवों का मुझसे कुछ संबंध नहीं है, ऐसा यथार्थ ज्ञानप्रकाश तो रहे। इस ज्ञानप्रकाश में ही अपने आपकी अतुल अपूर्व निधि मिलेगी। जिसे इसकी श्रद्धा नहीं है उसका देव, शास्त्र, गुरु की भक्ति करना, पूजन विधान करना, ये सब बेकार से हैं। उसके यह श्रद्धा ही नहीं है कि ऐसी अतुल निधि भी किसी के प्रकट होती है, प्रभु के ऐसा अपूर्व ज्ञान, तेज विकसित हुआ है। यदि भगवान के इस स्वरूप की श्रद्धा होती तो अपने आपमें भी ऐसी स्वरूप की दृष्टि बनती। यदि अपने आपके इस सहज ज्ञानानंदस्वभाव की दृष्टि बनायी होती तो भगवंत में भी इस ज्ञानप्रकाश की दृष्टि हो जाती। यह ज्ञानप्रकाश ही परमशरण है, यही उत्कृष्ट वैभव है, इसमें ही सहज आनंद का विकास होता है, अत: सब प्रयत्न करके इस ज्ञानमूर्ति आत्मतत्त्व के ज्ञान करने में निरत रहना चाहिए।