वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 149
From जैनकोष
आवासयेण जुत्तो समणो सो होदि अंतरंगप्पा।
आवासयपरिहीणो समणो सो हादि बहिरप्पा।।149।।
आवश्यक के लगाव व विलगाव का प्रभाव―जो पुरुष आवश्यक से सहित है वह श्रमण तो अंतरंगात्मा कहलाता है अर्थात् अंतरात्मा है और जो आवश्यक कर्म से रहित है ऐसा आत्मा बहिरात्मा होता है। निश्चय परमआवश्यक का अर्थ है अपने आत्मस्वभाव को परखकर उसमें ही आचरण करना अर्थात् केवल ज्ञाताद्रष्टा रहने रूप स्थिति बनाना, यह है परमावश्यक। इस परमावश्यक की जिसके दृष्टि नहीं है वह पुरुष चारित्र से भ्रष्ट बताया गया है। इस गाथा में यह बता रहे हैं कि जो आवश्यककर्म से युक्त होता है वह श्रमण तो अंतरात्मा कहलाता है और जो आवश्यक से रहित होता है वह बहिरात्मा कहलाता है।
अंतरात्मा व बहिरात्मा की वृत्ति―अंतरात्मा उसे कहते हैं जो अपने अंतर की बात जाने। अंतर मायने अंतरंगस्वरूप। अपने आत्मा के सहजस्वरूप को जाननेवाला सम्यग्दृष्टि अंतरात्मा कहलाता है और अंत:स्वरूप को जो न जाने ऐसा पुरुष बहिरात्मा कहलाता है। यह आत्मा कुछ न कुछ जानने का और कुछ न कुछ प्रतीति में लाने का कार्य निरंतर करता रहता है। जब यह अपने अंत:स्वरूप को नहीं जानता है तब किसी बाह्यस्वरूप को जानता है। बाह्य पदार्थों को आत्मरूप से जो स्वीकार करे उसे बहिरात्मा कहते हैं। बहिरात्मा आवश्यक कर्म की दृष्टि भी नहीं कर पाता है। वह तो भ्रमवश जानता है कि मौज से रहना, मौज के साधन जुटाना, ये आवश्यक काम हैं। बहिरात्मा की स्थिति बहिर्मुखता की ही बनती रहती है।
बहिर्मुखता में क्रोध की प्रकृति―बहिरात्मा देह को ही अपना सर्वस्व मानकर सब कुछ परिणति इसके लिए करता है। इसे क्रोध आता है तो इस देह का कोई अपमान करे, विरोध करे तो क्रोध आता है। इसके घमंड आता है तो इस देह को दृष्टि में लेकर घमंड किया करता है, मैं बलिष्ट हूँ,इतने परिवार वाला हूँ,ऐसी गोष्ठी का हूँ,त्यागी हूँ,साधु हूँ,सब कुछ देह को लक्ष्य में लेकर यह क्रोध किया करता है। कुछ लोग ऐसी शंका करते हैं कि क्या वजह है कि आजकल साधुजन प्राय: जितने मिलते हैं वे क्रोध जराजरासी बातों में करने लगते हैं। जो भला साधु है वह तो जराजरासी बातों में क्रोध करने का काम नहीं करता। कदाचित् कोई तीव्र उदय आ जाय, न वश रहे, हो जाय क्रोध, वह स्थिति अलग है, पर जिन्हें अपने स्वरूप का पता नहीं, केवल देह को लक्ष्य में लेकर यही जानता है कि यह मैं साधु हूँ और जब केवल देह तक ही दृष्टि है तो यह कल्पना जगना प्राकृतिक है कि मुझे श्रावक लोग कौन नमस्कार करते हैं कौन नहीं करते हैं, अथवा मेरी भक्ति ठीक तरह से होनी चाहिए,उसमें त्रुटि दिखी तो क्रोध आ जाता है।
बहिर्मुखता में मन का बेहूदा नाच―पहिले कहां इतनी पूजायें थीं। कितने ही मुनीश्वर हो गए हैं पर कहां उनकी इतनी पूजा मिलती है, लेकिन कुछ लोग तो आजकल दूसरों से पूजन बनवाकर छपवाकर स्वयं रखकर अपने हाथ वितरण करते हैं और प्रेरणा करते हैं कि इस समय हमारा पूजन होना चाहिए। समय पर सज धजकर बैठ जाते हैं और उसमें मौज मानते हैं। यदि उसमें कुछ त्रुटि हो गयी तो शीघ्र ही उनके क्रोध आ जाता है। किसी श्रावक ने वंदना नहीं की, इसी पर क्रोध आ जाता है। हमारा आदर होना चाहिए, लोग जाने कि ये बड़े पहुंचे हुए साधु आये हैं, बड़ी तपस्या करते हैं। चाहे समाज में घुलमिलकर रहने के कारण आत्मबल भी खो दिया हो, देहदृष्टि रखने के कारण चाहे कुछ चैन भी न आ पाती हो, फिर भी लोग मेरी भक्ति करें, मेरी लोग हजूरी में खड़े रहें यदि ऐसी दृष्टि है तो जहाँ किसी भी परपदार्थ के संबंध में कुछ भी परिणमन का चिंतन किया जाय वहाँ क्लेश होना प्राकृतिक है।
अज्ञानदशा―भैया ! जो मन करता है, जो इच्छा होती है ऐसी बाह्य में परिणति हो जाय, सो सोचने के कारण यह नहीं होता है, कभी ऐसा ही मैल बैठ गया हो कि यहाँ हम अपनी कुछ कल्पना कर रहे थे और ऐसा परिणमन भी वहाँ मिल गया, पर मेरे सोचने से बाह्य में यह परिणमन हुआ है, मेरे करने से देखो ऐसा-ऐसा काम बना है, यह सब भ्रम है। न हो परिणमन मन के अनुकूल तो चूँकि यह श्रद्धा कर बैठे हैं कि यह श्रावक हैं, हम मुनि हैं, वह साधु हैं, पूज्य है, हमारा यह दर्जा है, इनका यह दर्जा है, इनका दर्जा जमीन पर लोटकर चरणों में सिर रगड़ने का है, मेरा दर्जा बड़े ठाठबाट से पुजने का है, यों भ्रम बन गया है अज्ञान अवस्था में, तब पदपद पर क्रोध आना प्राकृतिक बात है।
बहिर्मुखता में घमंड की वृत्ति―घमंड भी इस देह में दृष्टि रखकर किया जाता है। न रहे देह की दृष्टि,मैं इस देह से भी भिन्न केवलज्ञानमात्र आकाशवत् निर्लेप आत्मा हूँ,यह दृष्टि रहे तो ऐसा ही दर्शन दूसरे जीवों में होगा कि ये भी इसी प्रकार के हैं। साधु का कर्तव्य तो मित्रता से रहने का है। सब जीवों में मैत्रीभाव की उत्सुकता साधुवों में ही हो सकती है। गृहस्थजन सब जीवों में उत्कृष्ट मैत्रीभाव नहीं निभा सकते हैं, किसी में न हो, ऐसी अभिलाषा रखना। मित्रता वहाँ होती है जहाँ दूसरों को अपने समान निरखा जा सकता है। दूसरों को अपने से बड़ा समझें तो मित्रता नहीं निभती, दूसरों को अपने से हीन समझें तो भी मित्रता नहीं निभती। अपने को बड़ा समझने पर भक्ति बनेगी और अपने से दूसरों की हीन समझने पर घृणा जगेगी। पर मित्रता तब ही संभव है जब हम दूसरों को अपने समान समझें। साधुपुरुष जगत के समस्त जीवों को अपने समान निरख रहे हैं।
स्वभावदृष्टि की उदारता―यद्यपि पर्यायदृष्टि से व्यवहार में भिन्न–भिन्न स्थिति के जीव हैं, समान नहीं हैं, लेकिन स्वरूपदृष्टि से, स्वभाव की परख से सब जीव एक समान हैं और साधु के ही समान नहीं किंतु अरहंतसिद्ध परमात्मा के भी समान हैं समस्त जीव। एक स्वरूप की समानता की दृष्टि की अपेक्षा से बात खोजिए, नहीं तो ऐसी विडंबना हो सकती है कि जैसे कहीं लिखा है कि गाय और ब्राह्मण एक समान होते हैं तो क्या सर्वथा ही वहाँ यह अर्थ लगेगा कि गाय और ब्राह्मण दोनों सर्वदृष्टियों से समान है? अरे ! जिस दृष्टि से समानता बतायी है उस दृष्टि से समान है। कोई सोचने लगे कि हलुवा तो गाय को खिला दें और घास ब्राह्मण के सामने डाल दें क्योंकि दोनों समान ही तो हैं तो यह एक विडंबना बन जायेगी। तो भाई ! जो हीन आचरण के हैं जिनके यहाँ मांसभक्षण का रिवाज हैं, जो पापों से बरी नहीं हो पाते हैं उनमें घुलमिलकर रहने लगें तो उससे तो अपना नुकसान ही होगा। संगति तो आत्मोत्थान के लिये उत्तम पुरुषों की ही बतायी है, क्योंकि इस जीव में ऐसी कमजोरी है कि वह नीची बातों को नीचे लोगों का संग पाकर जल्दी उनका ग्रहण कर सकता है और ऊँची बात को ग्रहण करने में इसे बड़ा पौरुष करना पड़ता है।
पर्यायाश्रय में कषायजागृति―यद्यपि ये जीव व्यवहारदृष्टि से परस्पर बिल्कुल भिन्न हैं, कीड़ा,मकोड़ा और साधु में कोई बराबरी रक्खे तो ऐसा कैसे हो सकता है? पेड़, वनस्पति और साधु ये जीव क्या एक समान हैं? पर्यायदृष्टि से समान नहीं हैं, लेकिन जो सहजस्वरूप है, जो अपने आप लक्षण है जीव का, उस दृष्टि से देखो तो सब जीव एक समान है। जो सब जीवों को समान दृष्टि से निरख सकता है उसके मित्रता जग सकती है, जो नहीं निरख सकता है वह देह को ही यह मैं साधु हूँ,यह मैं पंडित हूँ,यह मैं श्रीमत हूँ,यह मैं धनपरिजनसंपन्न हूँ,यह मैं नेता हूँ,ऐसी दृष्टि बनाकर अपनी वृत्ति ऐसी बहिर्मुखता की रखता है कि चित्त के विरुद्ध कुछ परिणति होने पर क्रोध जगता है और लोगों में अपना मान भी पुष्ट करता है। बहिर्मुख होने पर अवगुण सभी आने लगते हैं।
बहिर्मुखता में मायाचार व लोभ की प्रकृति―मायाचार और लोभ, ये भी तो देह में आत्मबुद्धि करने पर ही किये जा सकते हैं। देह पर दृष्टि देकर जब यह बुद्धि बनती है कि यह मैं हूँ,मुझे इतनी सामग्री जुटानी चाहिए, ऐसी इच्छा बनी रहती है तो जैसे इच्छा है कि इतनी धनसंपदा जुड़ना चाहिए और आग्रह करे तो धनसंपदा अत्यंत अधिक जुड़ जाना क्या यह निर्मल सदाचार से संभव है?मायाचार करें, लोभ करें, तृष्णा करें ऐसे मायाचार में अनेक अभ्यास से धनसंपदा जुड़ती है। हां ! यह कोई एकांतिक नियम नहीं है किंतु जो तृष्णा रक्खे हैं, और धनसंपदा के होने की ही होड़ लगाये हैं ऐसे पुरुषों की ही बात है कि वे अन्याय,मायाचार में अधिक लगते हैं। तिस पर भी वे असत्य व्यवहार करके सफल नहीं हो पाते। सफल तो वे अपने पुण्य के उदय के कारण हो रहे हैं। बड़े-बड़े चक्रवर्तियों के छ: खंड की विभूति आयी है, उस विभूति क,उस वैभव के आने का कोई निषेध नहीं ह, तीर्थंकरों के तो न जाने कितना वैभव रहता है? पुण्य है तो कहां जायेगा, किंतु तृष्णा खराब है। तृष्णा किए बिना, धर्मदृष्टि रक्खे हुए अपना जीवन शुद्ध कामों में व्यतीत करके गृहस्थों के योग्य त्रिवर्ग सेवन करते हुए संपदा आती है, आये, उसकी बात नहीं कह रहे हैं, पर देह में बुद्धि रखकर हमको धनी बनना है, हमें प्रतिष्ठा चाहिए,ऐसी बहिर्मुखता की बुद्धि आये तो वहाँ मायाचार और लोभकषाय तो करना ही पड़ता है। यों बहिर्मुख होने में इस जीव का सर्वत्र अकल्याण है। इसको आवश्यक कार्य की दृष्टि नहीं रहती है।
सम्यक्त्व में स्वरूपाचरण का वास―जितने भी सम्यग्दृष्टि हैं, अविरत सम्यग्दृष्टि, श्रावक सम्यग्दृष्टि, श्रमण सम्यग्दृष्टि सबके एक ही निर्णय है। निश्चय से परमआवश्यक काम आत्मा का यह अभेद अनुपचार रत्नत्रयात्मक परिणमन है। अपने आत्मा का ही श्रद्धान हो, ज्ञान हो और इस आत्मतत्त्व में ही अनुष्ठान हो इसमें जो परिणति बनती है वह परमआवश्यक कर्तव्य है। इसकी दृष्टि, इसका ज्ञान, इसका लक्ष्य प्रत्येक सम्यग्दृष्टियों में रहता है, कोई इसे कर पाये अथवा न कर पाये। जो शुद्ध दृष्टि रखता है वह भी तो एक करना होता है। चतुर्थ गुणस्थान में, स्वरूपाचरण चारित्र में और होता क्या है? चारित्र नाम छठे गुणस्थान का है और संयमासंयम नाम है पंचम गुणस्थान का। इस अविरत सम्यक्त्व गुणस्थान में कौनसा चारित्र आ गया है, जिसने आत्मतत्त्व का श्रद्धान किया है? उसे बाहर की ओरझुकने का उत्साह नहीं रहता है, वह तो अपने अंतर की ओरही झुकना चाहता है।बस इतना जो उसे अपने आत्मतत्त्व का लगाव बन गया है, वही यहाँ स्वरूपाचरणचारित्र है। भैया ! चारित्र तो सर्वत्र स्वरूपाचरण ही है। संयमासंयम और विविध चारित्र पालन करके भी वहाँ कौन पुरुष कितना संयमी बना है, यह स्वरूपाचरण की नाप से ही यथार्थ बताया जा सकेगा। श्रावक के स्वरूपाचरण बढ़ गया,साधु के और वृद्धिगत हो गया, श्रेणी में रहने वाले के यह स्वरूपाचरण और बढ़ गया है, परमात्मा के स्वरूपाचरण बिल्कुल पूर्ण फिट हो गया है और सिद्ध प्रभु के तो बाह्य मल भी नहीं रहा है। यों स्वरूपाचरण का ही सर्वत्र विस्तार हो रहा है।
बहिरात्मा और अंतरात्मा का परिचय―जिसे अपने इस स्वरूप की खबर नहीं है, जिसके विकास का लक्ष्य नहीं बना है वह पुरुष बहिर्मुख है और जिसको इस आवश्यककर्म की दृष्टि जगी है और जो इस आवश्यककर्म के लिए उत्सुक हैं वह अंतरात्मा । उनमें जघन्य अंतरात्मा तो असंयत सम्यग्दृष्टि है और उत्कृष्ट अंतरात्मा निर्विकल्प श्रमण है। जो स्ववश है, किसी परतत्त्व, परभाव की अपेक्षा नहींरखता है वह उत्कृष्ट अंतरात्मा है और उनमें भी उत्कृष्ट अंतरात्मा, महान् अंतरात्मा वह श्रमण है जिसके कषायों का अभाव हो गया है, जो क्षीणमोह हो गया है, वह उत्कृष्ट महान् अंतरात्मा है। उत्कृष्ट अंतरात्मा और असंयत सम्यग्दृष्टियों के बीच के जितने अंतरात्मा हैं वे मध्यम अंतरात्मा हैं, किंतु जो पुरुष न निश्चय परमआवश्यक को कर पाता है और जो व्यवहार के परमआवश्यक से भी भ्रष्ट है, और जिन्हें इस परमआवश्यक की दृष्टि ही नहीं मिली है वे सब बहिरात्मा कहलाते हैं।
स्वसमय के कर्मविनाश―कर्मों का विनाश अंत:स्वरूप के विकास के निमित्त से होगा, शरीर का रूपक बनाने से न होगा।शरीर का निर्ग्रंथ् रूप तो उनके बनता ही है जो विरक्त और ज्ञानीपुरुष होते हैं, पर उपादेय चीज तो आंतरिक स्वरूप हैं। समय नाम आत्मा का है। ये समय दो प्रकार के होते हैं―एक स्वसमय और एक परसमय। स्वसमयमें यदि यह स्वरूप तका जाय कि जो उत्कृष्टरूप से दर्शन, ज्ञान, चारित्र में स्थित हो गया है वह तो स्वसमय है और जो परसमय में स्थित है वह परसमय है।यहाँ इस स्वसमय में हुआ परमात्मा और परसमय में आया अंतरात्मा और परमात्मा। यों परसमय के दो भेद हुए। यदि स्वसमय की परिभाषा यों देखी जाय कि जिसको स्व की दृष्टि जगी है और इस दृष्टि और उपयोग से जो स्व की ओर ही झुका है, पर की ओर से उपेक्षा किए रहता है तो ऐसे स्वसमय दो प्रकार के हैं―एक अंतरात्मा और एक परमात्मा। तब परसमय नाम केवल बहिरात्मा का है।
अध्यात्मयोगी की विकल्प से पारंगतता―वह अंतरात्मा, अध्यात्मयोगी, परमश्रमण सदा परमावश्यक कर्मों से युक्त रहता है। भैया ! सांसारिक सुखदु:ख, शुभभाव, अशुभभाव, कल्पनाजाल, विकल्पजाल इन सबसे दूर रहना है। ये सब एक भयानक वन की तरह हैं। इसे विशाल भयानक वन में भूला हुआ पुरुष कहा जाय? उसे ऐसा मार्ग नहीं मिलता है कि जिससे किसी तरह से चलतेचलते उसे ग्राम का रास्ता मिले, उसे मार्गदर्शन नहीं है। ऐसे ही जो विषयकषाय,संकल्पविकल्प,कल्पनाजाल में बसते हैं उनको भी मार्गदर्शन नहीं है कि वे किस उपयोग से चलें कि उनको संसार के संकट टलें और मोक्ष का पंथ मिले। यह परमश्रमण उन सब अटवियों से पार है,इसी कारण यह आत्मनिष्ठ रहता है।
गृहस्थ और योगियों में प्रसन्नता के अंतर का कारण―गृहस्थजन तो बड़े-बड़े महलों में रहकर भी सुखी नहीं रह पाते हैं और योगीजन जंगल में एकाकी रहते हुए भी कितनी प्रसन्नमुद्रा में अपने समय का सदुपयोग किया करते हैं। यह किस बात का अंतर आ गया है? एक बड़ी संपदा के साधनों में रहकर भी चैन से नहीं रह पाते हैं और एक सब कुछ त्यागकर निर्जन वन में रहकर प्रसन्नमुद्रा में रहते हैं। यह किस बात का अंतर है? यह अंतर है आत्मदृष्टि का। जो पुरुष जितना अधिक आत्मनिष्ठ रह सकता है वह उतना ही प्रसन्न है। जो स्वात्मदृष्टि से भी भ्रष्ट है, इन बाह्यपदार्थों में जो विषयकषाय के हैं उनमें जो रहा करते हैं उन्हें शांति कैसे मिल सकती है? अपने आपको आकिन्चन्यस्वरूप केवल ज्ञानज्योतिमात्र, जिसके अंदर रागादिक भाव कुछ भी नहीं है ऐसा शुद्ध सहजस्वरूपमात्र निरख लेना ही एक उत्कृष्ट वैभव है और इसका ही कोई उपाय बना ले तो यही परमपुरुषार्थ है। इस कर्तव्य से ही जीवन की सफलता है।
विषयकषायविकल्पों से निवृत्ति में लाभ―भैया ! यहाँ की जड़ संपदा में ही फँसे रहे, इनके ही संग्रह,विग्रह,रक्षण में अपना उपयोग रमाये रहे तो क्या हित है? ये तो सब मिट जाने वाली चीजें हैं। विनाशीक चीजों में पड़ने से खुद की बरबादी है। जैसे कहते हैं ना कि जो पुरुष उद्देश्यविहीन है, क्षण में रुष्ट, क्षण में तुष्ट हो रहा है अथवा क्षण में मित्रता और क्षण में बैर बनाये रहता है, ऐसे पुरुषों में फँसना एक बरबादी का ही कारण है। जैसे लोग इस प्रकार नीति में कहते हैं ऐसे ही यह विनाशीक संपदा, विनाशीक कल्पनाजाल, विनाशीक विषयकषायों के जाल में फँसना, इससे तो अपने आत्मा की ही बरबादी है। इनसे निर्वृत्त होकर हम अपने इस शुद्ध सहजस्वरूप की ओर आएँ, ऐसा प्रयत्न बना सके तो जीवन सफल है और ये भौतिक पदार्थ तो अब भी मेरे नहीं हैं और न कभी मेरे थे और न कभी मेरे हो सकेंगे। इससे सर्व से विविक्त आत्मस्वरूप की दृष्टि में ही कल्याण है। इसका पुरुषार्थ कीजिये।