वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 151
From जैनकोष
जो धम्मसुक्कझाणम्हि परिणदो सोवि अंतरंगप्पा।
झाणविहीणो समणो वहिरप्पा इदि विजाणीहि।।151।।
शुद्धध्यान की उपादेयता का संकेत―निश्चय परमवाश्यक के प्रकरण में यह उपादेयतत्त्व क्या है? इस दृष्टि को लेकर अंतरात्मा और बहिरात्मा का लक्षण किया जा रहा है। जो पुरुष धर्मध्यान और शुक्लध्यान में परिणत हो रहा है वह तो अंतरंग आत्मा है और जो ध्यान से रहित श्रमण है वह बहिरात्मा है।
पदभ्रष्टता―जो जिस पद में होता है उस पद से गिरा हुआ हो, वह चाहे अनेक से उठा हुआ भी क्यों न हो, वह पतित कहलाता है। गृहस्थ परिवार में रहकर भी, विषयभोगों का सेवन करके भी यदि अपनी दृष्टि विशुद्ध रखता है और अपने कृत्य पर खेद प्रकट करता है और मुनि की, मुनिधर्म की उपासना का परिणाम रखता है तो वह ऐसे मुनि से श्रेष्ठ है जो मुनिपद धारण करके भी, द्रव्यलिंग धारण करने के बावजूद भी, जिसने 28 मूल गुणों में पंचेंद्रिय के विषयों का निरोध कर मूल गुणों के पालने की प्रतिज्ञा ली हैऔर वह यदि किसी इंद्रियविषय की चाह रखता है तो वह मुनि पतित है। इसी दृष्टि को ख्याल में लेकर यह सुनना है कि जो ध्यान से रहित श्रमण है वह बहिरात्मा है। जिसका ध्यान निर्मल नहीं है, लौकिक बातों को उपयोग में ले रहा है, जो भोजनपान, चलनेबैठने, इज्जतप्रतिष्ठा, बोलचाल,सम्मान की चाह, जो ऐब गृहस्थ में हो सकते हैं वे ऐब श्रमण में आये तो श्रमण पतित है और उसे वस्तुत: मुनि संज्ञा भी नहीं दी जा सकती है, वह तो बहिरात्मा है।
यथार्थ ज्ञातव्यता―जो पुरुष ऐसे श्रमणभासों को यों निरखकर चले कि अपने से तो ये अच्छे हैं अपन कोट, रज़ाई ओढ़ते हैं, ये तो नग्न रहते हैं, अपन दस बार खाते हैं, ये तो एक बार खाते हैं, अपन से तो भले हैं, ऐसा सोचकर उन मुनियों के जो कि ध्यान से रहित हैं और गृहस्थों की तरह लोककार्यों में उपयोग दे रहे हैं उनके उपासक गृहस्थ भी बुद्धिहीन हो जाते हैं। यह ग्रंथ मुख्यता से मुनियों को समझाने के लिए कुंदकुंददेव ने बनाया है, पर जो बात भले मुनिराजों के लिए सुनने को हो सकती है वह बात गृहस्थ को भी जानने के लिए भली हो सकती है।
व्यवहार धर्मध्यान व निश्चय धर्मध्यान की पद्धति―इस गाथा में अपने आत्मा के आलंबन से ही उत्पन्न होने वाला जो निश्चय धर्मध्यान है और निश्चय शुक्लध्यान है उन दोनों की उपादेयता प्रकट की गई है। निश्चय की दृष्टि से जिस तत्त्व को कहा जाता है उसको अभेदरूप में देखना चाहिए। तत्त्व को भेदरूप में देखने पर वह निश्चय की श्रेणी की बात नहीं रहती है। वह व्यवहार की पंक्ति में पहुंच जाती है। धर्मध्यान करते हुए कोई पुरुष उसे विकल्प पद्धति से कर रहा है, अब स्वाध्याय करना है, अब पूजा करना है, अब वंदन करना है, दया पालकर चले, किसी जीव का दिल न दु:खाये, अपने शीलव्रत से रहे, परिग्रहों से बहुत दूर रहे―ये सब बातें अच्छी हैं, धर्मध्यान की हैं, किंतु इसके साथ जो भेद लग रहा है क्या करना, कब करना, कैसे करना आदिक जो विकल्प साथ हैं, इस वजह से यह धर्मध्यान व्यवहाररूप धर्मध्यान हो जाता है और विकल्प किए बिना यह शुद्ध तत्त्व का आलंबन सहज बने तो वह निश्चय धर्मध्यान की कोटि में हो सकता है।
शुक्लध्यान―यों ही शुक्लध्यान देखिये। शुक्लध्यान को कोई भी श्रमण बुद्धिपूर्वक विकल्प बनाकर नहीं करता है। जैसे धर्मध्यान को तो बुद्धिपूर्वक विकल्प बनाकर भी किया जा सकता है, पर व्यवहार शुक्लध्यान इसलिए कहा जाता है कि उसके प्रतिपादन में सुना ही होगा कि शुक्लध्यान का विषय बदलता भी रहता है। मनोयोग से, वचनयोग से, काययोग से बदल-बदलकर, विषयों को भी बदल बदल कर अथवा किसी विषय को किसी योग से मन की एकाग्रता से जो रागद्वेषरहित होकर ध्यान करना है वह है शुक्लध्यान। इसमें भेदपद्धति अपनाई है किंतु इसमें जो लक्ष्य आया है उस लक्ष्य को ही ग्रहण करें, इस पद्धति से समझाये कोई तो उनके शुक्लध्यान कुछ समझ में आयेगा। जहाँ किसी प्रकार का विकल्प नहीं रहता है ऐसा निश्चय धर्मध्यान व निश्चय शुक्लध्यान से तो परिणत है उसे अंतरात्मा श्रमण कहते हैं।
उत्कृष्ट अंतरात्मा―साक्षात् अंतरात्मा तो क्षीणकषाय भगवान हैं। 12वें गुणस्थान मेंसमस्त कषाय क्षीण हो जाते हैं, वह वीतराग प्रभु हैं, अरहंत भगवान सर्वज्ञ हो जाते हैं और अरहंत भगवान की स्थिति बहुत देर तक रहती है, इस कारण परमात्मा के रूप में लोग अरहंत को परखते हैं, पर यह क्षीणमोह भी भगवान है, जिसके रागद्वेष नहीं रहे वह प्रभु ही है। जो वीतराग गुणों के रुचिया हैं वे तो किसी स्थिति में वीतरागता की विशेषता देखते हैं तो उन सबको अरहंत के निकटवर्ती मानकर और अरहंत में व साधु में भेद न डालकर अपने गुणों की रुचि बढ़ाते हैं। रुचि के अनुसार गुणदृष्टि का गुण बढ़ जाता है। यह क्षीण कषाय भगवान जिन्होंने षोड्श कषायों का विनाश किया है उनके समस्त मोहनीय कर्म विलय को प्राप्त हुए और वास्तव में निश्चयत: ध्यान उनके ही उत्कृष्ट है। वह तो उत्कृष्ट अंतरात्मा है और उस ही दिशा में जो श्रमण धर्मध्यान और शुक्लध्यान को करता है वह भी श्रवण उत्कृष्ट अंतरात्मा है।
केवलज्ञान से पूर्व सकल जीवों के ध्यान की दशायें―इस जीव ने अब तक भी ध्यान तजा नहीं है। जब तक मुक्त अवस्था न हो अथवा जब तक अरहंत अवस्था न हो, तब तक ध्यान निरंतर वर्तता है। अंतिम दो शुक्लध्यान तो उपचार से ध्यान माना गया है। जहाँ तक मन का संबंध है, मन की एकाग्रता का सहयोग है ध्यान वहाँ तक है और जिसके मन भी नहीं है किंतु मन का जो कार्य है उसके सदृश संज्ञाएँ जहाँ तक है वहाँ भी ध्यान है। मिथ्यात्व अवस्था में इस जीव ने आर्तध्यान और रौद्रध्यान को अपनाया, इष्ट का वियोग हुआ पर खेद खिन्न रहा, अनिष्ट का संयोग होने पर विषादमग्न रहा, शारीरिक पीड़ावों में यह कराहता रहा। निदान की आशाकर करके तो इसने अपने तन,मन सभी का बल खो दिया। हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील, परिग्रह इनके प्रकरण में मौज मानना, ऐसे खोटे ध्यानों के प्रताप से यह जीव जन्ममरण करता चला आया है। इसके सुबुद्धि उपजे, कुछ हित का यत्न बने और अपने आपके सहजस्वरूप की दृष्टि बने तो इस जीव का फिर वह समस्त अंधकार विलीन हो।
इंद्रियविजय के अभ्यास का प्रथम सहयोग―कल्याण के अर्थ, इस परमावश्यक पुरुषार्थ की प्राप्ति के अर्थ अपना पहिला प्रयोग होना चाहिए इंद्रियविषयों पर विजय।ज्ञान तो सर्वत्र साथ ही रहना चाहिए, पर चारित्र के मामले में, प्रयोग के संबंध में हमारा प्रथम आवश्यक कर्तव्य यह है कि इंद्रियविषयों पर विजय प्राप्त करें।
नियंत्रण प्रयोग―भैया ! एक थोड़ा यही प्रयोग करके देख लें, सामायिक में जाप देते समय आँखें खोल करके जाप किया जाता है तो उस समय कैसा मन रहता है और आंखें बंद करके जब जाप दिया जाता है तो उस समय कैसा मन भीतर में प्रवेश करने को उत्सुक रहता है? यह इंद्रियविषयों पर संयमन करने का ही तो अंतर है। देखना चार तरह से होता है। कोई दाहिनी आँख मींचकर केवल बायीं आँख से देखे, कोई बायीं आँख मींच कर दाहिनी आँख से देखे, कोई दोनों आँखें खोलकर देखे और कोई दोनों आँखों को बंद करके भी अंतरंग में कुछ देखते हैं। इसकी देखने की प्रकृति है, कुछ ढूँढने खोजने की प्रकृति है, इससे यह अंतरंग में कुछ खोजने लगता है। यही बात नय प्रमाण और अनुभव की है। कोई पुरुष व्यवहारनय की अपेक्षा तजकर केवल निश्चयनय से जानता है, कोई पुरुष निश्चयनय की अपेक्षा तजकर केवल व्यवहार से जानता है। कोई पुरुष दोनों नयों को सापेक्ष करके प्रमाणदृष्टि से जानता है, तो कोई पुरुष नयप्रमाण के सब विकल्प समाप्त करके केवल अपने अनुभव से जानता है, ज्ञानानुभूति का अनुभव करता है। जैसे यहाँ उन नय और प्रमाणों के दर्शन से भी अधिक महत्त्व अनुभव से परखने का है ऐसे ही हमारे प्रयोग में इन इंद्रियों से परखने जानने का महत्त्व नहीं है, किंतु इंद्रिय का सहयोग तजकर केवलज्ञान के आश्रय से ही अनुभव करने का महत्त्व है।
आत्मसामर्थ्य―यह जीव जो कुछ करना चाहे, कर सकता है, इसमें सामर्थ्य है। पर को कुछ करना चाहे इसकी बात नहीं कह रहे हैं। अपने आपको जो कुछ करना चाहे, जिस रूप ढालना चाहे, अपने आपको जैसा बनाना चाहे यह बना सकता है। यह जीव मोह में आकर जब अनहोनी बात में भी अपनी कल्पना माफिक सफलता पा लेता है तो निर्मोहता का आदर करके होनी बात की क्या सफलता नहीं पा सकता है? धन कमाना, मकान बनाना, परिजनों की व्यवस्था करना―ये सब अनहोनी बातें हैं। इनसे मेरा संबंध नहीं है, मैं इन्हें कर नहीं सकता हूँ,फिर भी हम निरंतर कल्पना बनाये रहते हैं तो कदाचित् जैसा चाहते हैं थोड़ा बहुत वैसा बाहर में मिल जाता है। यह तो अनहोनी के प्रसंग की बात कह रहे हैं। पर आत्मा का आनंद, आत्मा का कल्याण और आत्मा को सदा संकटों से मुक्त हो जाना, ये सब तोहोनी ही बातें हैं। सीधी सु्गम मेरे में ही ये बातें हैं, ये अनहोनी नहीं हैं। इस ओर यदि हम उपयोग लगाएँ, श्रद्धा बनाएँ, इनकी ही ओर लगन लायें तो क्या इनमें सफल न होंगे? सर्वाधिक सफल होंगे और नियम से सफल होंगे।इनमें अटक डालने वाली कोई बात ही नहीं है। अनहोनी की प्राप्ति में अटक तो पूरी ही जगी है, किंतु यहाँ कुछ भी अटक नहीं है। हमारा श्रद्धान ही कमजोर हो तो वहाँ कार्य सिद्धि नहीं है।
अपने यथार्थ कुल का बोध―किसी भी परवस्तु को भिन्न जानकर, अहित जानकर, अत्यंत भिन्न जानकर, उनका उपयोग हटाकर कुछ अपने आपमें विश्राम तो लें, कल्याण आपके साथ है, लेकिन दुनिया के मोही प्राणियों को देखकर यह जीव उन जैसी ही आकांक्षाएँ करने लगता है और अपने आपके उस सत्य आनंद पर विश्वास नहीं करता है। एक कथानक है कि महाभारत के समय एक स्त्री ने पति से कहा कि देखो लोग देश के काम आ रहे हैं, तुम हृष्टपुष्ट हो, तुम भी अपनी वीरता दिखावो और देश की सेवा करो। अर्थात् युद्ध में लड़ने चले जावो। वह पुरुष डरपोक था, वह कहता है कि युद्ध में तो लोग मारे जाते हैं, हम वहाँ न जायेंगे। तो स्त्री ने उसके सामने ही चने की दाल दरेती से दली और दलकर दिखाया कि देखो कुछ चने तो दलकर चूनी,भूसी बन गए हैं, किंतु कुछ साबुत चने भी निकल आए हैं। तो वह पुरुष कहता है कि हम तो इन चूनीभूसी वालों की श्रेणी में हैं। जो साबुत चने निकल आए हैं उनकी श्रेणी में हम नहीं हैं। यों ही यह मोही प्राणी यह विश्वास नहीं लाता कि जिस पंक्ति के हमारे मोक्षगामी पुरुष थे उसही पंक्ति के हम हैं, किंतु जो मोही जीव संसार में रुल रहे हैं, लाठियां सह रहे हैं फिर भी राग कर रहे हैं, विपत्ति विपत्तियां सहते जाते हैं, फिर भी मोह करते जाते हैं। वे यह अपना विश्वास बनाये हैं कि हम तो इन रुलने वाले मोही प्राणियों की ही श्रेणी के हैं।
आत्मा की विशिष्ट कला―इस जीव में बड़ी विशिष्ट कला है, किसी भी क्षण सारे रागद्वेष मोह की लड़ को काटकर सबसे न्यारा अपने आपको निरख सकते हैं। आखिर ज्ञानसाध्य ही तो बात है। कठिनाइ कहाँ है? स्वाधीन ही तो यह बात है। आत्मावलंबन का कार्य पराधीन हो तो कहें कि क्या करें, जब भगवान की मर्जी हो तब हम तिरेंगे या कोई गुरु मुझे हाथ पकड़कर तिरा दे तो हम तिरेंगे। अरे ! भगवान की न तिराने की मर्जी है और न फँसाने की। वह भगवान हम जंतुवों में कुछ दिमाग फँसाकर क्या पागल बना फिरेगा? वह तो समस्त विश्व का ज्ञाताद्रष्टा और स्वाधीन आत्मीय आनंदरस में लीन रहा करता है। यदि कोई भगवान किसी दूसरे को पकड़कर तारने लगे तो वह अनेक बार असफल भी होगा। किसी को तार सके, किसी को न तार सके, किंतु जो भक्तजन भगवान के उस शुद्धस्वरूप को निरखकर इस आदर्श के मर्म को परखकर अपने आपको उस स्वभाव में विभोर कर देते हैं उनके रंच भी संदेह नहीं, ये नियम से तिर जायेंगे।
उपास्य श्रमण―यह साक्षात् अंतरंग आत्मा शुद्धचैतन्य के प्रकाशरूप अपने इस अपूर्व आत्मा को नित्य ध्याता रहता है अर्थात् अपने इस शुद्ध ज्ञानस्वरूप को अभेदरूप से अनुभव करता रहता है। इन ध्यानों से जो रहित है, द्रव्यलिंगधारी है, द्रव्यश्रमण है वह बहिरात्मा है। अहो ! जो श्रमण निरंतर निर्मल धर्मध्यान,शुक्लध्यान,अमृतरूपी समरस सागर में निर्मग्न रहता है, संसार के संताप हटाये रहता है उस योगी के भाव शरण को प्राप्त होते हैं। जो इन ध्यानों से विमुख है वह तो बहिरात्मा है, श्रमण नहीं है। श्रमणाभासों की उपासना तजकर श्रमणभाव की उपासना करनी चाहिए।
अंतरारत्मा बहिरात्मा का भेद जानने का प्रयोजन―अहा ! शुद्ध ज्ञानानुराग में जब वह भक्त बढ़ जाता है तो उसे इस शुद्ध आत्मतत्त्व का ऐसा अपूर्वरस प्रकट होता है कि फिर उसको यह भी विकल्प नहीं आता कि यह अंतरात्मा है और यह बहिरात्मा है। वह तो एक शुद्ध ज्ञानसामान्यस्वरूप की ही अवस्था रखकर उसकी भी भक्ति करता रहता है, कोई अंतरात्मा बहिरात्मा का भेद ही भेद कहने जानने सुनने में लगता है तो उसे भी बहिरात्मा समझिये। तत्त्वज्ञान के लिए यह जानना आवश्यक है, मगर जिस प्रयोजन के लिए जानना आवश्यक है उस प्रयोजन को तो पाये नहीं, किंतु केवल बकवाद और प्रतिपादन हो, वह इस अभेद चैतन्यस्वरूप की विराधना करता है। कल्याण के अर्थ हम सबका यह कर्तव्य है कि मोह को ढीला करें, ज्ञान में कदम बढायें और अपने आपके स्वरूप में अपना उपयोग लगाये रहने का यत्न करें।