वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 160
From जैनकोष
दिणयरपयासतावं ज वट्टइ तह मुणेयव्बं।।160।।
प्रभु के ज्ञानोपयोग व दर्शनोपयोग की युगपत् वर्तना का उद्घोष—पूर्व गाथा में केवली भगवान को स्वपरप्रकाशक कहा गया है। केवली भगवान का ज्ञान भी स्वपरप्रकाशक है और केवली भगवान का दर्शन भी स्वपरप्रकाशक है और यह आत्मा भी स्वपरप्रकाशक है। इस प्रकार इस अधिकार का मुख्य मंतव्य रखकर अब इस गाथा में यह बता रहे हैं कि केवलज्ञान और केवलदर्शन प्रभु में एक साथ वर्तते हैं। जैसे कि किसी समय सूर्य के नीचे मेघपटल आ जाये तो सूर्य का प्रकाश और सूर्य का आताप—ये दोनों तिरोहित हो जाते हैं। प्रकाश के मायने है उजाला और आताप के मायने है सूर्य की उष्णता के कारण होने वाला जो कुछ प्रभाव है। जब कभी उस मेघपटल का जमाव क्षीण होने लगे या हट जाये तो इस आकाशस्थल के मध्य में प्रजालोक के ऊपर यह सहस्रकिरण अर्थात् सूर्य अपने प्रकाश और अपने प्रताप को एक साथ विकसित करता है। सो मेघपटल के हट जाने पर इस सहस्रकिरण का प्रकाश और प्रताप भी साथ वर्तता है। इस ही प्रकार भगवान परमेश्वर का यह केवलज्ञान और केवलदर्शन एक साथ वर्तता है। सहस्रकिरणत्व की जिज्ञासा—द्रष्टांत में अभी सहस्रकिरण नाम कहा गया, उसके संबंध में अब यह जिज्ञासा हो सकती है कि क्या सूर्य की ये हजार किरणें यहाँ आती हैं? दिखता तो ऐसा ही है कि सूर्य में से हजारों किरणें निकल रही हैं और सिद्धांत में यों सुना है कि किसी भी वस्तु का द्रव्य, गुण, पर्याय उस वस्तुप्रदेश से बाहर नहीं निकलता है। सूर्य की वे किरणें क्या सूर्यद्रव्य हैं या सूर्य के गुण हैं या सूर्य के परिणमन हैं? ये किरणें कहाँ से निकली? क्या चीज हैं? वस्तु का स्वतंत्र परिणमन—वस्तु का स्वरूप त्रिकाल वही रहता है। किसी भी पदार्थ का गुण और पर्याय उस पदार्थ के प्रदेश को छोड़कर बाहर नहीं हुआ करता है। यह बात सर्वत्र घटा लो। चाहे कहीं कोई जबरदस्ती की घटना हो, वहाँ पर भी चाहे लगता ऐसा है कि अमुक पुरुष ने अमुक का हाथ पकड़कर यों घसीट दिया, पर उस पुरुष का गुण अथवा पर्याय उस पुरुष से बाहर अपना कर्तव्य बताने नहीं जाता। सर्वत्र यही अर्थ लगाना। जैसे अमुक प्रकार से कोई बलवान् मनुष्य परिणत हो रहा है, जिसकी मुट्ठी में अमुक मनुष्य का हाथ फँसा है तो उस क्रियाशील बलवान् पुरुष के चलने का निमित्त पाकर यह पुरुष भी यों फिसल गया। कितना भी जबरदस्ती का प्रयोग हो, वहाँ पर भी कोई पदार्थ अपनी क्रियावों से दूसरे पदार्थ को परिणमाता नहीं है। प्रकाश में प्रकाशक व प्रकाश्य का निमित्तनैमित्तिक योग—पहिले यह निर्णय करो कि सूर्य कितना बड़ा है? जिसे लोग देखते है कि यह तो कोई हाथ-डेढ़ हाथ का लंबा-चौड़ा है, पर सिद्धांत में बताया है कि करीब दो हजार कोश का लंबा-चौड़ा है। उस सूर्य का प्रकाश भी उस सूर्य में है, उस सूर्य से बाहर नहीं है, किंतु सूर्य एक बहुत चमकीला पिंड है और यहाँ के पदार्थ भी सूर्य के बराबर चमकीले तो नहीं हैं, किंतु चमकीले होने की प्रकृति प्रत्येक पुद्गलस्कंध पदार्थ रखता है। अब यहाँ के पदार्थ भी उस सूर्य का संबंध पाकर निमित्तनैमित्तिक योगवश प्रकाशमान् हो गये। ये प्रकाश वस्तुत: सूर्य का नहीं है, किंतु सूर्य का निमित्त पाकर प्रत्येक पदार्थ का अपना-अपना प्रकाश है। यदि ऐसा न होता और सूर्य का प्रकाश सर्वत्र होता है तो प्रत्येक पदार्थ का प्रकाश एक रूप रहना चाहिए था। फिर यह अंतर क्यों आ गया कि पालिशदार चीजें अधिक प्रकाशित हैं, काँच उससे अधिक और दर्पण उससे अधिक प्रकाशित है? यदि सूर्य का प्रकाश है तो एक रूप रहना चाहिए था। इससे ही यह सिद्धि है कि जो पदार्थ जितने चमकीले होने की योग्यता रखते हैं, सूर्य का सन्निधानमात्र पाकर ये पदार्थ अपनी अपनी योग्यतानुसार प्रकाशमान् हो गये। प्रकाशित सूक्ष्म स्कंधों का पंक्तिरूप दर्शन—ये सब दृश्यमान स्थूल पदार्थ हैं। इनके संबंध में यह आशंका नहीं होती कि यह भी सूर्य की किरण है। पर आकाश में जहाँ बीच में कोई अतिस्थूल पदार्थ नजर नहीं आते, वहाँ से किरण सी निकलती लगती है और पूरी आँख खोलकर देखो तो इतनी ज्यादा किरणें नहीं मालूम होती, पर आँख को बहुत कुछ बंद करके थोड़ा ही खोलकर देखो तो ज्यादा किरणें मालूम होती हैं। इसका कारण यह है कि जैसे यह अतिस्थूल पदार्थ प्रकाशमान है, इसी प्रकार इस आसमान में भी पड़े हुए सूक्ष्म स्कंध प्रकाशमान होते हैं। कभी देखा भी होगा कि किसी छत के कोने से, तक्का से अथवा खपरैल के घर से किसी छिद्र से कोर्इ जरासा प्रकाश आ रहा हो तो वहाँ बहुत से सूक्ष्म–हल्के कण गोल-गोल उठते हुए नीचे –ऊँचे नजर आते हैं। ऐसे सूक्ष्म स्कंध आसमान में पड़े हुए हैं और वे प्रकाशमान हैं। यह मनुष्य जब अपनी आँखों से कुछ तेज-सी अवस्था बनाकर सूर्य को देखता है तो यह एक नेत्रों से देखने की विधि है, रूपदर्शन करने की नेत्र में प्रकृति है कि उस समय सूक्ष्म स्कंध इस एक पंक्तिरूप से नजर आते हैं। प्रकाशित तो वह था ही, अब नेत्रों से आपने पंक्तिरूप से देखा, सब वह किरण मान लिया जाता है और सिद्धांत में जो यह वर्णन है कि सूर्य में सहस्र किरणें हैं, इसका अर्थ ही यह है कि सूर्य का निमित्त पाकर पदार्थ प्रकाशित हो जाते हैं, जिन्हें देखने पर हमें सहस्र किरणरूप में दृष्ट होता है। ऐसे प्रकाश का वह निमित्त है। उससे भी सूर्य की महिमा गायी जाती है। दृष्टांतपूर्वक प्रभु के ज्ञानदर्शन की युगपद्धति का समर्थन—यह सूर्य जब मेघपटल से आच्छादित है, तब इसका प्रताप और प्रकाश तिरोहित है। मेघपटल के दूर होते ही प्रताप और प्रकाश एक साथ प्रकट होते हैं—ऐसे ही ज्ञानावरण कर्म के पटल के उदय का निमित्त पाकर छद्मस्थ अवस्था में यह ज्ञान और दर्शन तिरोहित, आवृत्त रहता था, तब आत्मपुरुषार्थ का निमित्त पाकर यह आवरण द्रव्यकर्म का हटा और उस काल में यह ज्ञान और दर्शन एक साथ उदित हुए। छद्मस्थों के उपयोग की क्रमवर्तना—ज्ञान और दर्शन गुण इस जीव में शाश्वत गुण हैं और जितने गुण होते हैं उन गुणों का निरंतर परिणमन भी होता है। इस प्रकार यद्यपि ज्ञान की पर्याय भी सतत चलती है प्रत्येक जीव में और दर्शन की भी पर्याय सतत् चलती है, फिर भी उनका उपयोग, जिसे इंगलिश में यूज कहते हैं, छद्मस्थ अवस्था में क्रम से होता है अर्थात् जब उपयोग ज्ञानपर्यायों को प्रश्रय दे रहा है, उस काल में दर्शन को प्रश्रय नहीं हो रहा है। जब दर्शन को प्रश्रय मिलता है, तब ज्ञान को नहीं मिल रहा। ऐसी यह छद्मस्थ अवस्था अशक्य अवस्था है। किंतु केवली भगवान का उपयोग ज्ञान और दर्शन दोनों में एक साथ प्रकट है। उनका यह उपयोग अत्यंत विशुद्ध है। छद्मस्थ व प्रभु के उपयोग की विशेषतायें—छद्मस्थ जीवों के उपयोग में और केवली भगवान के उपयोग में कितनी ही बातों से विशेषता है। हम अंतर्मुहूर्त के उपयोग से ज्ञान और दर्शन किया करते हैं। यों कहो कि प्रभु का उपयोग तो क्षणक्षणवर्ती स्वतंत्र होकर समर्थ है और हमारा उपयोग अध्रुव अंतर्मुहूर्त की परंपरा रखकर सीमित समर्थ है। यहाँ क्षणिक और अध्रुव से यह अर्थ जानना कि प्रभु का परिज्ञान तो एक ही समय में हुआ, उसी समय में पूर्ण अर्थक्रियाकारिता बनती है अर्थात् जानने लगते हैं। किंतु हम सबका उपयोग अंतर्मुहूर्त की परंपरा से जानने में प्रवृत्त होता है। पर्याय यद्यपि सर्वत्र प्रतिसमय नवीन-नवीन होती है, परंतु उसका व्यक्तरूप कार्य, व्यवहाररूप कार्य किसी का कुछ परंपरा में बनता है और किसी का परंपरा लिए हुए बिना ही अपने समय में बन जाता है। जैसे और भी देखिये, हम आप लोग राग करते हैं, पर प्रतिसमय का राग अनुभव में नहीं आ सकता। अंतर्मुहूर्त तक होते हुए रागपर्यायों से हम रागव्यवहार कर पाते हैं। प्रभु का ज्ञान इतना समर्थ है कि निरंतर प्रतिक्षण पूर्ण अर्थक्रियाकारी रहा करता है। चेतन, अचेतन समस्त द्रव्य-गुण-पर्यायात्मक तीन लोक, तीन काल के समस्त ज्ञेयों में केवलज्ञान और केवलदर्शन एक साथ वर्तता है। हाँ, संसारी को ज्ञान दर्शनपूर्वक होता हैं। छद्मस्थ के उपयोग की वृत्ति का विवरण—अब कुछ इसी प्रसंग में अपने काम की बात कही जा रही है। कठिन भी है और सरल भी है, ध्यान से सुनिये। जैसे इस समय हम इस खंभे को जान रहे हैं, इसका ज्ञान छोड़कर हम इस चौकी को जानने लगे तो खंभे का ज्ञान छूटा और चौकी का ज्ञान हुआ। इस खंभे और चौकी दोनों के ज्ञान के बीच में थोड़े समय का अंतर रहता है, जिसका भान हम लोग नहीं कर पाते हैं। एक पदार्थ का ज्ञान छोड़कर दूसरे पदार्थ का ज्ञान जब हम करने जाते हैं तो उस बीच में अंतरात्मा में हमारा दर्शन होता है। एक पदार्थ का ज्ञान छोड़कर दूसरे पदार्थ का ज्ञान करने के बीच में हमारे आपके छद्मस्थों के दर्शनोपयोग होता है और उस ज्ञान और इस दर्शन में होता क्या है? ज्ञान की बात तो सबको मालूम है कि ज्ञान से हम समझते हैं कि यह अमुक चीज है और दर्शन में क्या होता है? उसको यों समझ लीजिये कि एक पदार्थ का ज्ञान छोड़ने के बाद दूसरे पदार्थ को जानने में हम सफल हो जाएं—ऐसी सामर्थ्य हम अंतर में झुककर लेते हैं। यही है दर्शन। यों समझिये कि हमारा उपयोग एक सर्पगति से चलता है। इन पदार्थों की ओर उपयोग गया, फिर अपने आपकी ओर झुका, फिर दूसरे पदार्थ पर उपयोग गया, फिर और गया—ऐसा निरंतर उपयोग सर्पगति से स्वपर की ओर चलता रहता है, किंतु जो जीव आसक्त हैं, परद्रव्यों के लोभी हैं, परपदार्थों की ओर आकर्षण होने से, परपदार्थों की ओर धुन बनने से वे अपने आपकी ओर झुकने वाले कामों से अपरिचित रहते हैं। यह मोह का माहात्म्य है, मिथ्यात्व में ऐसा ही होता है। सहूलियत का अनुपयोग—देखो भैया ! कितनी सहूलियत है हम आप सबको कि हम अंतर अंतर्मुहूर्त में अपनी ओर झुकते रहते हैं। मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि दोनों ही अपनी-अपनी ओर झुकते हैं। दर्शनोपयोग का काम सबके चलता है, पर जिसको इस दर्शन का भी दर्शन हो जाता है, उसको समझिये कि इसे सम्यग्दर्शन हुआ है। एक पुरुष धनी होने के ख्याल से पारस पत्थर की खोज के लिये चला। सोचा कि क्या रोजिगार करना, कहीं से एक पारस पत्थर मिल जाये तो फिर मालोमाल हो जायेंगे। किसी पुरुष ने उसे बताया कि अमुक पहाड़ पर पारस पाषाण है। उसने वहाँ जाकर 10-20 गाड़ी पत्थरों का ढेर समुद्र के किनारे लगा दिया। समुद्र के किनारे एक लोहे का डंडा गाड़ दिया। उन करोड़ों पत्थरों में कोर्इ एक पारस पाषाण भी था। वह पत्थर उठाकर लोहे पर मारे और देखे कि यह लोहा सोना हुआ कि नहीं। नहीं हुआ तो उसे समुद्र में फेंक देता। अब यही क्रम उसका जल्दी–जल्दी का बन गया। पत्थर को उठाये, लोहे पर मारे और समुद्र में फेंक दे। उसी धुन में एक पारस पत्थर को भी उठाया, मारा और समुद्र में फेंक दिया। देखा तो लोहा सोना हो गया। अब वह पछताता है कि हाय ! पारस पत्थर तो समुद्र में फेंक दिया। तो जैसे उसकी धुन बन गई कि पारस पत्थर को समुद्र में फेंक दिया, ऐसे ही हम आप सब ज्ञान करते हैं बाह्यपदार्थों का, पर इन पदार्थों में हम आपके लोभ लगा है। बाहरी पुद्गल जो कि अचेतन हैं, इनमें इतना आकर्षण है कि हम दिन रात में न जाने कितना अपना ज्ञान बदलते हैं और अपनी ओर झुका करते हैं, पर आकर्षण बाह्यपदार्थों में होने से हम अपने मुकाबले को भूल जाते हैं और इनमें ही रत रहा करते हैं। यह है छद्मस्थों की परिणति। विशुद्ध व अविशुद्ध ज्ञान का परिणाम—छद्मस्थों के ज्ञान दर्शनपूर्वक होता है। दोनों उपयोग एक साथ नहीं होते हैं, किंतु केवली भगवान में ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग एक साथ परिणमते रहते हैं। प्रभु का ज्ञान और दर्शन समस्त लोक का ज्ञाता और द्रष्टा है, इसी कारण अब जो भी हम आपकी कल्पना में इष्ट है, उन इष्टों से भी इष्ट सब कुछ प्राप्त हो गया और समस्त अनिष्ट नष्ट हो चुके। यही एक सर्वोत्कृष्ट वैभव है। यह वैभव हम आप सबके मौजूद है, पर इस विधि की स्मृति न करके और इस नाक, थूक, मल के पिंड, इन कुछ जीवों को अपना मानकर उनको ही उपयोग में बसाये रहते हैं। मेरे तो सब कुछ ये ही हैं। अपना तन, मन, धन, वचन—सब कुछ उन मायामय जीवों के लिये ही सौंप रहे हैं। इस प्रकार के ढलाचला में यह कब तक रुलेगा? जब तक यह अपने इस लगाव की डोर को काट न डालेगा, जब तक यह समस्त पर के विकल्पों का त्यागकर अपने इस निर्विकल्प अखंड चैतन्य चमत्कारमात्र शुद्ध ज्ञान ज्योतिस्वरूप को न अनुभवेगा, तब तक इसके कर्मबंधन दूर न हो सकेंगे और यह जन्म के बाद मरण व मरण के बाद जन्म—ऐसे ही क्लेश पाता रहेगा। व्यर्थ का ममत्व और उसका फल—भैया !पूर्वभव में जो कुछ भी समागम मिला था, उसकी आज खबर भी है क्या? न की तरह है। चाहे आज के इस समागम से करोड़ों गुना अधिक समागम पहिले मिला हो, पर आज कुछ भी नहीं है। उसका आज कोई भी विकल्प नहीं हो रहा है, किंतु उस काल के विकल्पों के संस्कार में बसे हुए हम आज न कुछ थोड़े से वैभव को अपना सर्वस्व मान रहे हैं। कुछ काल बाद में ये भी सब समागम न रहेंगे। इनको भी त्यागकर आगे किसी भव में जन्म लेंगे। तो जो अध्रुव है, विनश्वर है, चलते हुए मुसाफिर के लिये मार्ग में मिले हुए पेड़ों की तरह है, उन विनश्वर, विनाशीक चीजों में अपना श्रद्धान्, ज्ञान, रमण बनाना यह अपने आपके प्रभु पर बहुत बड़ा अन्याय है। जिस प्रभु के प्रसाद से अर्थात् निर्मलता से कुयोनियों से निकलकर आज मनुष्य में आये हैं, इन विषय-कषायों के हमले इस प्रभु पर कर रहे हैं तो प्रभु को तो एक धीरे से अंतर में इतना सा ही आशीर्वाद देना है कि जिस निगोद से निकले थे, वहीं फिर चले जावो। उत्तम अवसर के सदुपयोग का विवेक—अहो, यह बड़ा उत्कृष्ट अवसर पाया है। ये पशु, पक्षी, गाय, बैल, भैंस, कुत्ते—ये सब मंदिर क्या जानें, गुरु क्या जानें, देव क्या जानें, शास्त्र क्या जानें, वचन बोलना क्या जानें? अपने मन की बात दूसरों को नहीं बता सकते, दूसरे के मन की बात खुद नहीं ग्रहण कर सकते। कितनी जघन्य दशा है? और हम आप आज कितनी ऊँची स्थिति में हैं—विचार करते हैं, विवेक करते हैं। ऐसे इस अवसर में विशुद्ध धर्म को भी पाकर हम मोह में ही पगे रहें, विषय-कषायों में ही रत रहें, दूसरे मोही मलिन जीवों को ही अपना सर्वस्व समर्पण करते रहें तो इसका परिणाम क्या होगा? फिर हम सावधान हो सकने के लायक भी न रहें—ऐसी भी स्थिति हो सकती है। इससे हमारा कर्तव्य है कि हम अपने स्वरूप की सुध लें और इन विनश्वर मायामय गोरखधंधों से कुछ विरक्ति पायें। इस शुद्ध ज्ञान के आलंबन से ही हम आपमें वह निर्मलता जागेगी, जिसमें विशुद्ध आत्मीय आनंद का अनुभव होता है।
प्रभु की प्रभुता—स्वात्माश्रय निश्चय धर्मध्यान और शुक्लध्यान के प्रसाद से जिसने आत्मा के सहज शुद्ध चरम विकास अवस्था को प्राप्त किया है ऐसे धर्मतीर्थ के अधिनाथ सर्वज्ञदेव के यह केवलज्ञान और केवलदर्शन का उपयोग प्रतिक्षण निरंतर एक साथ चलता रहता है। जिसकी कषायों में अटक हो उसके उपयोग में इस प्रकार की अटक आ सकती है कि दर्शन और ज्ञान दोनों का उपयोग एक साथ न कर सके, परंतु प्रभु तो कषायरहित है और इस कषायरहितता के प्रताप से अघातिया कर्मों का भी विध्वंस करके जिन्होंने अनंतचतुष्टयात्मक सर्वज्ञता प्राप्त की है—ऐसे यह प्रभु जो ज्ञानतेज की राशि हैं, समस्त अंधकार जिन्होंने नष्ट कर दिया है और भव्य लोगों के अज्ञान-अंधकार के दूर होने में भी जो निमित्त हैं—ऐसे प्रभु की भक्ति कषाय और अज्ञान-अंधकार को दूर कर देती है।
प्रभुभक्ति व उसका प्रसाद—प्रभु की भक्ति उत्कृष्ट तब कहलाती है, जब प्रभु के अतिरिक्त अन्य अप्रभुवों में अथवा मोह-रागद्वेष से लिप्तों में जिनकी दृष्टि भी विशुद्ध नहीं हुई है—ऐसे परिजन, मित्रजन किन्हीं में भी चित्त न बसता हो, सबसे अलौकिक उत्कृष्ट यह प्रभु है ऐसा जिसका दर्शन हुआ करता हो, उस पुरुष के ही प्रभु की उत्कृष्ट भक्ति हो सकती है। प्रभुभक्ति बिना पूरा पड़ना, अपना निस्तार होना कठिन है। जो पुरुष प्रभु की अभेदभक्ति में भी पहुंचे हैं, वे पुरुष भी प्रभुभक्ति के प्रसाद से पहुंचे हैं। ज्ञान भी शुद्ध हो जाये और हमारा चारित्र भी शुद्ध हो जाये, हम अपने व्रत आदिक क्रियावों में भी बड़ी सावधानी रखें, फिर भी हे प्रभो ! हे ज्ञानपुंज ! जब तक तुम्हारे प्रति उत्कृष्ट भक्ति नहीं जगती है, तब तक हम इस मोह-किवाड़ से आवृत मुक्तिमंदिर के द्वार को नहीं खोल सकते हैं। प्रभुभक्ति की आवश्यकता—भैया ! यदि इन दुर्विकल्पों को मिटाना हो तो एक उत्कृष्ट ज्ञानप्रकाश के प्रति भक्ति करनी होगी। हम आप इस समय जिस स्थिति में हैं, उस स्थिति पर कुछ नजर तो डालें। हम कुछ ज्ञान प्राप्त करके यह सोचा करते हैं, प्रश्न किया करते हैं कि हमने अपने जानने योग्य बात तो सब जान लीया, किंतु उस शुद्ध ज्ञान की परिणति में स्थिर नहीं हो पाते अथवा हमारा चित्त अस्थिर रहता है, हम ज्ञानोपयोग में नहीं टिक पाते, इसका कारण क्या है? इसका कारण यह है कि हमारी जो आज की परिस्थिति है, उस परिस्थिति में प्रभुभक्ति की साधना होनी चाहिये। इस प्रभुभक्ति में प्रवृत्ति हो। प्रभुभक्ति का प्रताप—प्रभु में जो ज्योति प्रकट है वह स्वरूप, वह स्वभाव मेरे आत्मा में भी है। वह एक अतुल निधि है, अमर्यादित सुख को देने वाली है। वह आज भावकर्मों के पृथ्वीपटल के नीचे दबी हुई है निधि। रागद्वेष, विषयकषाय, इन परिणामों से दबा हुआ है यह शुद्ध ज्ञानानंद का खजाना। इस पृथ्वीपटल को खोदने में समर्थ, इन भावकर्मों को उड़ा देने में समर्थ हमारा साधन एक प्रभुस्तवन है, प्रभुभक्ति है, प्रभु की उपासना है। उस प्रभुस्तवनरूप से यदि हम इस कर्म-पृथ्वी-पटल को खोदें तो हमें यह ज्ञानानंदनिधि प्राप्त होगी, जिस ज्ञानानंदनिधि की चर्चा में ही हमें विलक्षण आनंद आता है। फिर जब निधि प्राप्त हो जावे तो उसके आनंद का अनुभव वे ही जान सकते हैं कि बहुत उत्कृष्ट आनंद है। धर्म के बिना नीरसता—यह मनुष्य खोटी चर्चाएँ करके पापों को भोग करके अपने को विश्राम और शांति में नहीं ला पाता है। ऐसे पुरुष की लोक में कदर भी नहीं है। प्रत्येक गोष्ठी में चाहे वह साधारण जनों की गोष्ठी हो, चाहे वह पढ़े-लिखे लोगों की गोष्ठी हो, धर्म की बात कुछ व्यवहार में आए बिना उस समूह की शोभा नहीं होती है। प्रत्येक देश, प्रत्येक मंडल इस धर्म का नाम आगे रखता ही है, चाहे कोई इस आशय में अधर्म की भी बात सोच ले। अधर्म का रूपक रखकर कोई पुरुष, कोई देश, कोई समूह उन्नत नहीं हो पाया है। जरा धर्म की हितकारिता का भी अंदाज तो करो। विवाह आदिक अवसरों में यदि धार्मिकता का कुछ संबंध, प्रसंग न लाया जाये—जैसे मंदिर आना, कुछ मंदिर में चढ़ावा चढ़ाना, दोनों का मिलकर पूजन करना अथवा भँवर के समय जो विधि-विधान पूजन किये जाते हैं, यह किसी भी प्रकार की धार्मिक योजना न हो तो संसारी जनों के लिये रसिक माना गया भी समारोह नीरस माना जायेगा। धर्म का संबंध हुए बिना जीवन में रस आ ही नहीं सकता है, चाहे कोई किसी भी प्रकार का यत्न करे। ज्ञानदीप के प्रकाश में निर्विघ्न आत्मयात्रा—शांतिमार्ग में, अध्यात्ममार्ग में, अध्यात्मप्रवाह में और धर्म के मर्म तक पहुंचने में यह निश्चल प्रभुभक्ति एक अनुपम बल प्रदान करती है। हमें अपने अंतरंग की यात्रा करना है। उस यात्रा में हमारे बड़े विघ्न पड़े हुए हैं। प्रथम तो हमारा यह मार्ग जिस पर हमें चलना है, अंधकार से प्रच्छन्न है, ढका हुआ है, यह जीवन हमारे अज्ञान-अंधकार से व्याप्त है और फिर चलें भी तो बीच में उस मार्ग में बहुत प्रकार के गड्ढे पड़ते हैं, वे क्लेश के गड्ढे हैं। इष्टवियोग, अनिष्टसंयोग, वेदना, दुराशय आदि अनेक गड्ढे भी पड़े हुए हैं मार्ग में, अंधेरा भी है मार्ग में। अब हम कैसे उस मार्ग को तय करें और इष्ट साधन में पहुंच जायें? इसका एक ही उपाय है कि हम अपना ज्ञानदीपक जलाकर उस मार्ग को तय करें तो अंधकार की भी बाधा न रहेगी और क्लेश के गड्ढों को बचा-बचाकर अथवा उन ही गड्ढों में से उतर-उतरकर जाना पड़े तो सँभल-सँभलकर उन क्लेशों के गड्ढे में भी उतर सकते हैं और उस ज्ञानदीपक के प्रकाश के सहारे हम अपने इष्ट स्थान पर पहुँच सकते हैं, किंतु उस ज्ञानदीपक की ज्योति बढ़ाते रहने के लिये हमें प्रभुभक्तिरूप तैल की नितांत आवश्यकता है, अन्यथा यह ज्ञानदीप कब तक जल सकता है? विषयकषायों की झंझावायु इतनी तीव्र चलती है कि यह ज्ञानदीप तो एक ही झोंके में बुझ सकता है। हमारा ज्ञान सजग रहे, हम अपने आपमें बहुत सावधान रहें, इसके लिये आवश्यकता है कि हम प्रभु की भक्ति में अपना उपयोग लगायें। प्रभुस्वरूप—प्रभु किसका नाम है? अरे, जो शुद्ध ज्ञानानंद का पिंड है उसका नाम प्रभु है। प्रभु नामरहित होता है। हम नाम लेकर प्रभु पर दृष्टि डालें तो हमारे उपयोग में प्रभुता किनारा हो जाती है; पर्याय, कुल, देह, अवगाहना—ये सब सामने आ जाते हैं। अत: प्रभुभक्ति नामरहित होकर खुद भी अपने नाम का ध्यान न करें और प्रभु के भी नाम का कुछ भी ध्यान न करें—ऐसा निर्नाम होकर निर्नाम ज्ञानानंदस्वभावमात्र प्रभु की भक्ति हो तो वहाँ प्रभु की उपासना बन सकती है। नाम लेकर भक्ति हो तो वह व्यवहारभक्ति में आ जाता है और नाम की कल्पना बिना केवल ज्ञानानंदस्वरूप की भक्ति हो तो वह निश्चयभक्ति में आता है। व्यवहारभक्ति का उपकार—भैया ! व्यवहारभक्ति भी कर्तव्य है, उससे यह ज्ञात होता है और एक पक्का प्रमाण बैठ जाता है कि हाँ, प्रभु हुए हैं। ऋषभ, वीर, महावीर, श्रीराम आदिक का चारित्र बाँचकर, नाम लेकर इन्होंने इंद्रिय-विजय किया, मोह को क्षीण किया और उसके प्रताप से परमप्रभुता प्राप्त की, यह प्रमाण हो जाता है, श्रद्धान् भी एक समूल बन जाता है, फिर भी व्यवहारभक्ति में निश्चय की दृष्टि न रहे, उसका झुकाव न रहे तो यह व्यवहारभक्ति व्यवहार ही में बढ़-बढ़कर और अनेक विपरीतता बता करके नानारूप रख लेता है, जिसका कि यह फल है कि आज प्रभु के नाम पर अनेक नाम वाले विभिन्न धर्मों के प्रभु का विस्तार बन गया है। कोई कहते हैं कि हमारे प्रभु ईश हैं, हमारे प्रभु खुदा हैं, हमारे विष्णु हैं, हमारे शिव हैं और फिर इसी पद्धति में कोई यह भी कहते हैं कि हमारे प्रभु ऋषभ हैं, महावीर हैं। भक्त और भगवान की निकटता—हे प्रभो ! जब तक यह भक्त अपनी स्वच्छता प्रकट नहीं करता है, तब तक प्रभु की भी महिमा कुछ ख्यात नहीं होती है। यों तो परमाणु की महिमा भी परमाणु में है, पर हमारी महिमा कर विस्तार, हमारी महिमा की परिस्थिति तो इस निर्मलचित्त भक्ति की करतूत से है। तब क्या कहें नाथ ! तुम भक्तों के उठाने वाले हो, तारने वाले हो या भक्त प्रभु के उठाने वाले हैं। तारना नाम उठाने का है। हे प्रभो ! तुम भक्तों का उत्थान करने वाले हो या भक्त तुम्हारा उत्थान करने वाले हैं। तुम्हारे स्मरण के प्रसाद से भक्त उठता है और भक्त की इस निर्मलता की करतूत से और भक्तों द्वारा आपका गुणगान होने से आप उठते हैं। पानी में तैरने वाले लोग हवाभरी हुई मसक को पानी में डालकर उस पर पेट रखकर तैरते जाते हैं और तैरते-तैरते किनारे पर पहुंच जाते हैं। हम क्या कहें कि यह पुरुष मसक ले जाता है या मसक पुरुष को ले जाती है? प्रभु और भक्त की अतीव सन्निकटता हो जाये भक्त के उपयोग में तो प्रभु की उपासना से भक्ति में सच्चिदानंदमयता प्रकट प्रतिभास हो जाती है। वहाँ ज्ञानानंदपुंज प्रभु की उपासना का आनंद प्रकट होता है। चित्तविशुद्धी का उपाय—कुछ लोग यह आशंका करते हैं कि हमारा चित्त धर्म में नहीं लगता, ज्ञान में नहीं स्थिर हो पाता, त्याग और विरक्ति नहीं उत्पन्न होती। अरे, कहाँ से त्याग और विरक्ति उत्पन्न हो? कोई अग्रिम अंतरिम स्थान को छोड़कर, छलांग मारकर स्थिति शक्ति न विचारकर एकदम आगे जाना चाहे तो कैसे जाये? हम अपने प्रभु-भजन आदि साधनों को तजकर प्रभुभक्ति न करके ज्ञान में, ध्यान में अपने को स्थिर नहीं कर सकते हैं। कहीं भी बैठे हों, मंदिर में हों, घर में हों अथवा यात्रा में हों, प्रभु के प्रति यदि भक्ति न जगे तो हम धर्ममार्ग में आगे नहीं बढ़ सकते हैं। हे नाथ ! आपका प्रताप और प्रकाश एकदम प्रकट हो रहा है। आपका प्रताप तो यह है कि राग-द्वेष, इष्ट-अनिष्ट, संकल्प-विकल्प, भावकर्म कोई अब प्रकट नहीं हो सकते हैं और प्रकाश यह है कि समस्त लोक त्रिकालवर्ती समस्त अर्थसमूह आपके ज्ञान में एक साथ प्रकट है—ऐसे विशुद्ध प्रभु की उपासना हमारे उपयोग को धीर बना सकती है। मोहीजनों की उद्दंडता—ये मोहीजन अपने ज्ञान की होड़ में भगवान से भी आगे बढ़ना चाहते हैं। भगवान तो जो है उसी को जानते हैं, जो नहीं है उसे नहीं जानते, किंतु यहाँ यह मोही पुरुष जो नहीं है उसे जानने की होड़ कर रहे हैं। मकान मेरा नहीं है। भगवान नहीं जानते कि यह मकान अमुकचंद का है, पर हम अमुकचंद खूब डटकर जान रहे हैं कि यह मकान मेरा है। अरे, तुम महापुरुषों से होड़ लगावोगे तो गिर ही जावोगे, पतन ही होगा। धन, वैभव, संपदा अपना नहीं है। भगवान के ज्ञान में यह नहीं झलकता कि यह इसका धन है, इसका मकान है, इसके रिश्तेदार हैं। वे ऐसे हैं ही नहीं, जानें किसे? वे ज्ञान के धनी तो हैं, पर जो हैं उसके ज्ञान के धनी हैं और यहाँ मोही पुरुष जो बात नहीं है, उसमें भी अपनी होड़ मचा रहे हैं। हे प्रभो ! तब तक तुम्हारी शुद्ध भक्ति न जगेगी, जब तक विषयकषायों के गड्ढों से उठने का हममें बल प्रकट न हो सकेगा। शरणभूत ब्रह्मदर्शन—ब्रह्म का स्वरूप आनंद है, इसी का ही स्मरण आपके स्तवन में होता है। वह स्वरूप मेरे देह में भी व्यवस्थित है, किंतु मोह के अंधकार से आछन्न हो जाने के कारण इसको जान नहीं सकते हैं। प्यासे आदमी को अपने ही पीठ पीछे अवस्थित जलाशय की खबर न हो तो वह प्यासा ही मर जाता है। ऐसे ही आनंद के अभिलाषी इस पुरुष को अपने आपमें बसे हुए इस आनंदसागर की खबर नहीं है, सो यह तो प्यासा ही प्यासा रहकर आनंद की अभिलाषा-अभिलाषा ही करके और उसके लिये विपरीत प्रयत्न करके यह अपना विनाश कर डालता है। हे प्रभो ! सम्यग्ज्ञान-नौका पर चढ़कर आपने संसार-सागर को पार करके यह मुक्ति नाम की शाश्वत नगरी प्राप्त की है। अब हे नाथ ! जिस मार्ग से तुमने संकटों से उबरकर यह आनंदधाम प्राप्त किया है, उसे मैं भी प्राप्त करूँगा। जीव को सिवाय एक इस अध्यात्ममग्नता के अन्य कुछ शरण नहीं है। युगपत् स्वपरप्रकाशकता—इस प्रकार इस शुद्धोपयोग अधिकार में इन दो गाथावों में भगवान का प्रताप और प्रकाश का प्रकाशन किया है। प्रभु में केवलज्ञान निरंतर है उपयोगरूप में। केवलज्ञान के द्वारा त्रिलोक त्रिकालवर्ती समस्त पदार्थों को जानते हैं और समस्त पदार्थों को जान रहे आत्मा को अवलोकित कर रहे हैं केवलदर्शन के द्वारा। यों प्रभु ज्ञान और दर्शन से निरंतर स्वपरप्रकाशक बन रहे हैं। प्रभु स्वपरप्रकाशक हैं, उनका ज्ञान भी स्वपरप्रकाशक है व दर्शन भी स्वपरप्रकाशक है। ये प्रभु आत्मीय आनंद का निरंतर अनुभव कर रहे हैं।