वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 172
From जैनकोष
केवलणाणी तम्हा तेण हु सोऽबंधगोभणिदो।।172।।
प्रभु की विशेषता—इस गाथा में प्रभु की मुख्य विशेषता बतायी गयी है। लोग प्रभु का स्वरूप नानारूपों में देखना चाहते हैं—खूब कपड़ों से भरपूर मुकुटों से सुसज्जित बांसुरी बजाते, संगीत आदि साधनों से सुसज्जित खूब हँसते हुए, मन बहलाते हुए, लोगों में रमते हुए आदिकरूपों में देखना चाहते हैं, परंतु प्रभु का दर्शन इन रूपों में हो ही नहीं सकता है, कारण कि ये रूप संसारी जीवों के हैं। हम आप भी तो कपड़ों से सुसज्जित और नाना दिल बहलाने के साधनों के इच्छुक और उनमें ही व्यग्र रहा करते हैं। प्रभु की प्रभुता इन कामों में नहीं है, प्रभु ज्ञान और आनंद का पिंड है, ऐसा आत्मा जो कि परम हो गया है, उसका नाम परमात्मा है। आत्मा तो सब एक समान हैं, पर इन आत्मावों में जो परम बन गया है, उसका नाम परमात्मा है। परम का अर्थ हैं ‘परा मां यत्र स परम:।’ ‘उत्कृष्ट मां’ अर्थात् ज्ञान-लक्ष्मी जिसके हो उसे परम कहते हैं और परम जो आत्मा है उसका नाम परमात्मा है। जिसका ज्ञान इतना विशाल है जो समस्त लोकालोक को जानता है ऐसा जो ज्ञानज्योतिपुंज है उसका नाम परमात्मा है। वह परमात्मा समस्त लोकालोक को जानता और देखता है किंतु उसकी इच्छा, ईहा, वांछा रंच भी नहीं है। प्रभु के यह विशेषता है कि उनके इच्छा किसी प्रकार की नहीं है और जानते हैं समस्त विश्व को। प्रभुदर्शन की विधि—हम आपके अंदर इस शरीर के भीतर एक ज्ञानज्योतिस्वरूप पदार्थ है। वह पदार्थ अपने स्वरूप से जिस ज्ञानरूप है उतने को ही देखो, शरीर का भी ध्यान न रखकर केवल आकाशवत् अमूर्त, निर्लेप किंतु ज्ञानमय एक यह मैं आत्मा हूँ—इस प्रकार बारबार भावना करें तो इस भावना के फल में और इस ज्ञान की अनुभूति के समय में विचित्र अनुपम आनंद प्रकट होगा। उस समय के शुद्ध ज्ञान और शुद्ध आनंद के अनुभव द्वारा यह पहिचान होगी कि अहो ! प्रभु तो इससे भी अनंतगुणे शुद्ध ज्ञान और अनंतगुणे शुद्ध आनंद के स्वामी होते हैं। जब तक कोई अपने आपके अंतरंग में शुद्ध स्वरूप के दर्शन का बल न पायेगा तब तक उसे प्रभु का दर्शन नहीं हो सकता है। छद्मस्थ और सर्वज्ञ का अंतरप्रदर्शन—प्रभु का नाम केवलज्ञानी है, जो केवल अपने ही आत्मा के द्वारा जानते हैं उन्हें केवलज्ञानी कहते हैं। हम आप इंद्रियों द्वारा जानते हैं। इन इंद्रियों का बल लेकर जानने का हम आपका स्वभाव नहीं है। भला जो आत्मा ज्ञानस्वरूप ही है वह अपने स्वरूप को अथवा किसी भी पदार्थ को जानने के लिए दूसरों का सहारा ले, यह तो स्वभाव की बात कैसे हो सकती है? यह परतंत्रता है। हम इंद्रियों द्वारा जानते हैं, यह परतंत्रता है। आँखें खराब हो जायें तो हमारा जानना रुक जाता है, कानों में खराबी आ जाय तो शब्दों का जानना रुक जाता है, यह सब परतंत्रता है। ज्ञानमय आत्मा अपने ज्ञान को रोक दे ऐसा स्वभाव नहीं है परंतु कर्मों की अधीनता है, ऐसी ही वर्तमान कायरता की परिस्थिति है। इस कारण इंद्रियों से हम जानते हैं और इंद्रियों से ही हम आनंद पाना चाहते हैं। मैं ज्ञानानंद स्वरूप हूँ, इसमें इंद्रियों की आवश्यकता नहीं है। मोहीजन इन इंद्रियों के द्वारा चूँकि जानते हैं ना, इस कारण इंद्रियों से प्रेम करते हैं। ज्ञानीजन चूँकि अपने स्वरूप को ज्ञानमय अनुभवते हैं ना, इस कारण इंद्रिय की उपेक्षा करके केवल एक आत्मशक्ति से ही अंतर में जानते हुए उसकी रुचि रखते हैं। बंध का कारण—प्रभु समस्त विश्व को जानते हैं, फिर भी उनके किसी प्रकार की इच्छा नहीं है। इसी कारण वे कर्मों के बंधक नहीं होते हैं, वे अबंधक माने गए हैं। हम आप थोड़ा भी जानते हैं तो उस जानने के साथ ही कुछ राग भी किया करते हैं, इच्छा बनाया करते हैं। यहाँ जो हमें बंधन होता है वह जानने का बंधन नहीं है किंतु इच्छा का बंधन है। जगत में अनेक पदार्थ हैं। अभिलाषी पुरुष अपने इष्ट पदार्थों को जानते हैं और बँध जाते हैं। इस बंधते हुए में ज्ञान कारण नहीं है किंतु अभिलाषा कारण है। दृष्टांतपूर्वक बंधहेतु का समर्थन—एक बार चार-पाँच मित्र बाग़ में सैर करने जा रहे थे। वहाँ एक चिड़ीमार जाल बिछाए हुए एक पेड़ की ओट में छिपा हुआ था। चिड़िया आयी, जाल पर बैठी, वहाँ दाने चुगने लगी और फँस गयी। तो एक पुरुष बोला कि यह बाग़ बड़ा हत्यारा है, यह कितनी ही चिड़ियों को फाँस डालता है। दूसरा पुरुष बोला कि यह बाग़ हत्यारा नहीं है, यह शिकारी हत्यारा है, यही जाल में चिड़ियों को फाँस रहा है। तीसरा पुरुष बोला कि यह चिड़ीमार हत्यारा नहीं है, यह जाल जो सूत का बना हुआ है यह हत्यारा है, इस जाल ने कितनी ही चिड़ियों को फँसाया है। चौथा बोला कि इस जाल ने चिड़ियों को नहीं फाँसा है किंतु जाल के भीतर पड़े हुए जो ये दाने हैं (चावल, गेहूँ, आदि अनाज) उन्होंने फाँसा है। तो 5 वाँ बोला कि नहीं नहीं, इन दानों ने नहीं फांसा है, किंतु चिड़िया की स्वयं की जो इच्छा है, मैं दोनों को चुग लूँ, ऐसी इच्छा ने चिड़ियों को फाँसा है। बंधनविधि—ऐसे ही हम आप सब अपने भीतर का निर्णय करें। लोग यहाँ कैसी बड़ी परेशानी अनुभव करते हैं, मुझे इस कारोबार ने फाँस लिया है, मुझे इस गोष्ठी ने, समाज ने अथवा घर गृहस्थी ने फाँस लिया है, इन बच्चों ने मुझे इन बंधन में डाल दिया। कितनी ही बातें आप सोचते जाइए, सब गलत हैं। हम आप पर न परिवार का बंधन है, न गोष्ठी समाज आदि का बंधन है। किंतु उस ही में जो मोह है, इच्छा है, राग है, अज्ञान की अंधेरी है, इन सबके मिश्रण से जो एक अध्यवसान का भाव होता है उसका बंधन है। किसी भी पदार्थ का बंधन नहीं है। प्रभु तो समस्त विश्व को जानते हैं किंतु वह तो कहीं भी नहीं फँसते, उनके कोई बंधन नहीं है। संसार के यह पदार्थ स्वयं है और जो है उसमें ऐसी प्रकृति है कि वह निरंतर परिणमता रहे और यह पदार्थ जब विभावरूप परिणमता है, अपने स्वभाव के खिलाफ परिणमता है तो नियम से किसी दूसरे पदार्थ का संबंध होगा, निमित्त होगा ही, तभी उसकी यह स्वभाव के खिलाफ परिणति है। अपने स्वभाव के अनुसार ही परिणमने के लिए पदार्थ को किसी दूसरे निमित्त की जरूरत नहीं होती है, किंतु जब स्वभाव के विरुद्ध परिणमे तो वह निमित्त पाकर ही परिणमता है। सृष्टिस्वातंत्र्य—यह सारा जगत अपनी सृष्टियाँ कर रहा है। इस जगत को बनाने वाले यदि प्रभु को मान लिया जाय तो यों मानने वाले ने अपनी कल्पना में प्रभु पर महा संकट थोपा है। प्रभु तो सर्वज्ञ होकर भी अपने अनंत आनंद रस में लीन रहा करते हैं। पदार्थों में ही स्वयं अपने आप प्रकृति पड़ी हुई है, जिसे चाहे ‘उत्पादव्ययध्रौव्य’ कहो या ‘सत्त्व रज: तम:’ कह लो। ये पदार्थ निरंतर अपने ही स्वरूप से उत्पन्न होते रहते हैं, नई दशा बनाते हैं और पुरानी दशा को विलीन करते हैं, फिर भी वे पदार्थ शाश्वत निरंतर रहते हैं। इसे चाहे उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य कहो अथवा सत्त्व, रज, तम गुण कहो। सत्त्व गुण के कारण यह पदार्थ शाश्वत रहता है, रजोगुण के कारण यह पदार्थ नई दशा बनाता है, तमोगुण के कारण यह पदार्थ अपनी दशा विलीन करता है। यह त्रिमूर्तिमय देवता प्रत्येक पदार्थ में स्वभाव से ही मौजूद है। इस ही मर्म को ब्रह्मा, विष्णु और महेश शब्द से कहो। जिस पदार्थ में नवीन दशा होने की प्रकृति है वह ब्रह्मत्व है और वर्तमान दशा विलीन होने की जो प्रकृति है वह महेशत्व है और फिर भी वह पदार्थ सदाकाल रहता है यह उसमें विष्णुत्व है। इन पदार्थों को बनाने वाला कोई पृथक् प्रभु नहीं है। आत्मसेवा का ध्यान—भैया ! प्रभु तो केवलज्ञान के द्वारा समस्त विश्व को जानते हैं। निर्दोष हैं, वीतराग हैं, शुद्ध ज्ञानानंद के पुंज हैं, ऐसे प्रभु की उपासना से, भक्ति से एक निर्मलता प्रकट होती है। हम आप ऐसे निर्दोष चमत्कारमय प्रभु के निकट ज्यों-ज्यों अधिक पहुँचेंगे उतना ही हम आप अद्भुत आनंद पायेंगे। इन मोही जीवों के निकट जितना हम अधिक जायेंगे उतने ही व्यग्र होंगे। गृहस्थजन चूँकि बहुत से कामों में व्यस्त रहते हैं, सभी काम उन्हें करने पड़ते हैं फिर भी यह ध्यान रहे कि इन चौबीस घंटों में एक-आध घंटे का समय अपने आत्मा की सेवा के लिए रक्खें। साढ़े तेईस घंटे तो पड़े हैं जो चाहे काम कीजिएगा पर आधा घंटा किसी भी प्रकार देवदर्शन से, स्वाध्याय से, सत्संग में सम्मिलित होने से, प्रवचन सुनने से, धर्मचर्चा करने से किसी भी प्रकार अपने आत्मा की सेवा करें। इस आत्मसेवा के प्रसाद से ऐसा भी बल प्रकट होगा कि आपके साढ़े तेईस घंटे बड़ी कुशलता से व्यतीत होंगे। जिन सांसारिक गृहस्थी के कार्यों को आप करेंगे उनमें और भी सफलता पायेंगे। ये कमाने वाले मनुष्य के हाथ, पैर, सिर नहीं हैं। जो जीव पूर्वकाल में जैसा पुण्य उपार्जित करके आये हैं उसके अनुसार थोड़े से ही पुरुषार्थ में सब कुछ प्राप्त हो जाता है। उस धर्म की रक्षा करो, अपने आत्मा की सेवा करो। आत्मसेवा का एक प्रासंगिक उदाहरण—एक पौराणिक घटना है। किसी शत्रु ने राजा पर आक्रमण कर दिया। राजा सेना लेकर शत्रु से लड़ने चला गया। इतने में दूसरे राजा ने, किसी दूसरे शत्रु ने भी उस पर हमला किया। उस समय महारानी राजगद्दी पर आसीन थी। उसने दूसरा सेनापति बुलवाया। वह सेनापति जैन था, रानी ने उस सेनापति से कहा कि तुम्हें उस शत्रु से युद्ध करने जाना है। सेना सजाकर वह शत्रु से युद्ध करने चला गया। हाथी पर सवार था वह सेनापति। जहाँ संध्या हो गयी वहीं हाथी पर चढ़े-चढ़े सामायिक करने लगा और उस सामायिक में प्रतिक्रमण भी करने लगा। मेरे द्वारा किन्हीं भी पेड़-पौधों को, किन्हीं भी कीड़ों-मकौड़ों को किसी को भी क्लेश पहुँचा हो तो वे सब क्षमा करें। इस प्रकार का क्षमापण का पाठ वह पढ़ने लगा। एक चुगलखोर ने रानी से जाकर चुगली कर दी कि आपने ऐसा सेनापति भेजा, जो कीड़ा-मकोड़ा, पेड़-पौधों से भी क्षमा मांगता है। वह क्या युद्ध करेगा? खैर 5-7 दिन में ही वह सेनापति युद्ध में विजय पाकर आ गया। रानी पूछती है—ऐ सेनापति हमने तो सुना है कि तुम पेड़ों से और कीड़े-मकौड़ों से भी माफी मांग रहे थे, तुमने शत्रु पर विजय कैसे पा ली? तो सेनापति, ने कहा कि मैं आपका साढ़े तेईस घंटे का सेवक हूँ। उन साढ़े तेईस घंटों में खाते हुए, सोते हुए भी कुछ काम आ जाय तो खाना सोना छोड़कर आपकी ड्यूटी बजाऊँगा, किंतु आध घंटे अपने आत्मा की सेवा के लिए रक्खा है, उस आध घंटे में संसार के सब जीवों से क्षमायाचना करता हूँ, मेरे द्वारा किसी को भी कष्ट पहुँचा हो तो माफ करो। तो उस समय में सब जीवों से क्षमायाचना कर रहा था। जब अपनी आत्मसेवा कर ली तब आपकी सेवा को चला गया और वहाँ वीरता से लड़कर विजय प्राप्त करके आया। समय के सदुपयोग की शिक्षा—उक्त कथानक से हमें यह शिक्षा लेनी है कि हम साढ़े तेईस घंटे यदि अनेक कामों में फँसे रहते हैं तो कम से कम आध घंटा एक घंटा विशुद्ध धर्मध्यान का अवश्य ही रखना चाहिए। न रक्खें तो समय तो यों ही गुजर जाता है, जैसे चाहे गुजर जाय। समय गुजर जाता है, लाभ कुछ नहीं मिलता है। लगता ऐसा है कि हम संकटों से बच गए पर लाभ क्या मिला, कौनसा संकट बच गया? जो आत्मसेवा न करके गप्पों में रहा आया। यदि अहर्निश कमाई कर सकते हो तो खूब चौबीसों घंटे धनार्जन का काम कीजिए। नहीं कर सकते हो ना चौबीसों घंटे धनार्जन का काम, तो बचे हुए समय में से ही आधा घंटा एक घंटा धर्मसाधना में लगावो, धनार्जन के लिए तो चार छ: घंटे का ही समय नीयत है, बाकी समय का क्या उपयोग करना, इस पर जरूर विवेक रखना चाहिए। प्रभु की विशिष्टता—प्रभु सर्वज्ञ वीतरागदेव के वांछा नहीं है। ये अरहंत कहलाते हैं। अरहंत कहते हैं पुण्य को। ‘अर्ह पूजायां’ धातु से अरहंत शब्द बनता है। भगवान अरहंत परमेष्ठी हैं, परमेष्ठी उन्हें कहते हैं जो परमपद से स्थित हों। लोक में जिससे बढ़कर और कुछ पद नहीं है उस पद में जो स्थित रहते हैं उन्हें परमेष्ठी कहते हैं। यह प्रभु केवलज्ञानादिक शुद्ध गुणों के आधारभूत हैं। यह केवलज्ञान उनको तपश्चरण से प्रकट हुआ है। अब यह केवलज्ञान कभी न मिट सकेगा। ये प्रभु इंद्रियों द्वारा नहीं जानते हैं किंतु समस्त आत्मप्रदेशों से जानते हैं। जैसे मिश्री मीठे रस से भरपूर है, ऐसे ही प्रभु का यह आत्मा ज्ञानरस से भरपूर है, सर्व ओर से प्रभु समस्त विश्व को जानते रहते हैं, वे समस्त विश्व को जानते हैं फिर भी मन की प्रवृत्ति उनके नहीं हैं। इस कारण इच्छापूर्वक उनका जानना नहीं होता है और इच्छापूर्वक उनका विहार और उपदेश भी नहीं होता है। प्रभु का निरीह विहार—प्रभु सकल परमात्मा, सगुणब्रह्म, सर्वज्ञप्रभु जब तक शरीर सहित है तब तक उनका विहार भी होता है। विहार किस ओर होता है जहाँ के अतिशय पुण्य से, उस पुण्य के निमित्त से प्रभु का विहार उस ओर हो जाता है। वह जान-बूझकर विहार नहीं करते किंतु जिनके पुण्य का उदय आ जाता है वहाँ ही विहार हो जाता है। जैसे ये मेघ उड़ते हैं तो यह जानकर नहीं उड़ते, जानकर नहीं बरसते कि मैं इस गाँव में बरस जाऊँ और किसानों की खेती को खूब हरा-भरा कर दूँ, किंतु जहाँ की जनता का अधिक अच्छा भाग्य है वहाँ ही ये मेघ आ जाते हैं और बरसते हैं। ऐसे ही प्रभु का विहार होता है। प्रभु की निरीह दिव्यध्वनि—मेघ गरजते हैं, ये चाह कर नहीं गरजते हैं किंतु उनकी प्रकृति है। यों ही वहाँ प्रभु का उपदेश होता है वह चाहकर नहीं, किंतु भव्य जीवों के पुण्य का उदय है और प्रभु ने मुनि अवस्था में या इससे पहिले जीवों के कल्याण की भावना खूब भायी थी। सों भव्यों के पुण्य के प्रताप से व प्रभु के वचनयोग के कारण प्रभुसर्वज्ञदेव की ध्वनि निकलती है। निरीह उपदेष्टा भगवान केवलज्ञानी कर्मों से नहीं बँधते हैं क्योंकि उनके इच्छा ही नहीं है। बंधन तो इच्छा से होता है। कोई पुरुष किसी अन्य पुरुष या स्त्री के वश हो तो उसमें उस पुरुष की इच्छा ही कारण है। इच्छा ही बंधन है, इच्छा ही परिग्रह है। जिसके इच्छा है उसको संसार में रुलना होता है, जिसके इच्छा नहीं है वह संसार से मुक्त हो जाता है। यह प्रभु इन पदार्थों को जानकर भी न तो इन पदार्थों रूप परिणमते हैं, न इन पदार्थों का ग्रहण करते हैं, न इन पदार्थों रूप उत्पन्न होते हैं। प्रभु स्वतंत्र हैं, अबंधक हैं। मनोविजय में ही महान् विजय—भैया ! रंच भी इच्छा हो जाय तो वह इच्छा काँटे की तरह हृदय में, चित्त में पीड़ा देती रहती है। इसका कर्तव्य है ऐसा ज्ञानाभ्यास करे कि उन इच्छावों पर विजय प्राप्त करे। इच्छा थोड़े समय को होती है। उस ही समय में यदि यह बह जाय तो वह और भी विपदा का पात्र होता है। इच्छा को न बढ़ने दें, मन को वश में करें, ऐसा अपना ज्ञान बनाएँ तो वह पुरुष संसार पर विजय प्राप्त कर सकता है। एक राजा था, उसने सब राजावों को वश कर लिया अपने तेज और प्रताप से, तब सभी राजा लोग उसे सर्वजीत कहने लगे। पर उसकी माँ उसे सर्वजीत न कहे तो वह बोला—माँ मुझे सारी दुनिया सर्वजीत कहती है, पर तू मुझे सर्वजीत क्यों नहीं कहती? तो माँ बोली—बेटा ! अभी तू ने सबको जीता नहीं है इसलिए मैं तुझे सर्वजीत नहीं कहती। तो वह बोला—अच्छा बतावो, अब कौनसा राजा मुझे जीतने को बाकी रह गया है? तो माँ कहती है कि बेटा, तू ने सब राजावों को तो जीत लिया है, पर तू ने अपने मन को नहीं जीता है। तू इन राजाओं को जीत कर हर्ष के मारे फूला नहीं समा रहा है। तू अभी संसार के स्वरूप को नहीं जानता है, तू अभी अपनी इच्छावों पर विजय नहीं पा रहा है तो तुझे कैसे सर्वजीत कहें? बेटा, जब तू अपनी इच्छावों पर भी विजय प्राप्त कर लेगा तब मैं तुझे सर्वजीत कहूँगी। प्रभु का सर्वविजयित्व—ये प्रभु सर्वजीत हैं, इन्होंने सब पर विजय प्राप्त कर ली है। देखो, मध्यलोक, अधोलोक और ऊर्ध्वलोक—इन तीनों लोकों के सभी जीव इनके चरणों में अपना शीश नमाते हैं। आप यह शंका कर सकते हैं कि कहाँ सब जीव इनके चरणों में अपना शीश नमाते हैं, यहाँ तो 10-20 लोग ही इनके चरणों में शीश नमाते हैं, और बाकी तमाम लोग तो गालियां भी देते हैं। तो भाई सब नहीं आते तो न सही, पर मध्यलोक का इंद्र सम्राट् चक्री भगवान के चरणों में आ जाय तो इसका ही यह मतलब है कि मध्यलोक के सभी जीव उनके चरणों में आ गए। इसी प्रकार अधोलोक और ऊर्ध्वलोक के इंद्र भगवान के चरणों में आ जायें तो इसका यह ही मतलब है कि अधोलोक और ऊर्ध्वलोक के सभी जीव भगवान के चरणों में आ गए। अधोलोक के भवन-व्यंतर जाति के देवों के इंद्र जब भगवान के चरणों में आ गए तो इसका मतलब है कि वहाँ के सभी जीव भगवान के चरणों में आ गए। यह प्रभु सर्वजीत है। सारे जहान को उन्होंने जीत लिया है। प्रभु की उपासनीयता—सर्वज्ञ प्रभु सहज महिमावंत हैं। सारे विश्व को जानते-देखते हुए भी मोह के अभाव के कारण किसी भी परपदार्थ का वे ग्रहण नहीं करते हैं और समस्त विश्व के ज्ञाता-द्रष्टा रहकर अपनी प्रभुता का, अपने शाश्वत आनंद का भोग करते हैं। ऐसी प्रभुता पा लेना हम सबका भी स्वरूप है। हम प्रभु के अधिक से अधिक निकट पहूँचे और अपने इस दुर्लभ नरजीवन को सफल करें।